(रुद्र अवस्थी) “तरक्की को अगर स्वाद से महसूस किया जाए तो यकीनन वह मीठा ही होना चाहिए..।“ पढ़ने में यह लाइन अट-पटी सी लग सकती है। लेकिन अपने बिलासपुर जिले से लगे कवर्धा इलाके के गावों में इन दिनों तरक्की के इस मीठेपन को महसूस किया जा सकता है। जहाँ सड़कों पर जगह-जगह मीठे गन्ने से लदे ट्रैक्टर नजर आते हैं और खेतों के बीच गन्ना रस से गुड़ और रॉब बन रहे हैं। खुशहाली की इस तस्वीर से छत्तीसगढ़ के इस इलाके में तरक्की की नई कहानी लिखी जा रही है। बड़े-बड़े कड़ाहों में उबल रहे गन्ना रस से उठ रही मीठी खुशबू के बीच यह सुनना भी मीठा सा लगता है कि छत्तीसगढ़ में पैदा होने वाले गन्ना में शर्करा की मात्रा अन्य प्रदेशों के मुकाबले अधिक है। लेकिन यह सुनकर कड़वाहट मिली हुई तकलीफ भी होती है कि रुपए-दो रुपए किलो के चावल से संतुष्ट छत्तीसगढ़ के मजदूरों की हिस्सेदारी इस मुहिम में कम नजर आती है। अगर गन्ना की पैदावारी के साथ ही स्थानीय मजदूरों को भी इस काम के काबिल बनाने की पहल हो तो आने वाले समय में इसके और भी बेहतर नतीजे सामने आ सकते हैं।
बिलासपुर से तखतपुर –मुंगेली-पंडरिया-पांडातराई होकर कवर्धा तक चौड़ी – सपाट सड़क पर सफर करते समय कुछ ऐसा ही अहसास होता है। सड़क के किनारे दूर तक जहाँ तक भी नजजर जाती है, गन्ने के खेत दिखाई देते हैं। खेतों में कटाई का कम चल रहा है। लोगों ने सीजीवाल को बताया कि धान की मिंजाई से खाली होने के बाद इस काम में और तेजी आएगी। कटाई के साथ ही सड़कों पर कुछ बैलगाड़ी और ज्यादातर ट्रैक्टर की ट्रालियों में गन्ने की ढुलाई चल रही है। गन्ना लेकर कवर्धा के शक्कर कारखाने की तरफ जाते हुए लोग भी मिले। लेकिन बड़ी तादात में गन्ना उस इलाके में चल रहे गुड़ कारखानों में भी पहुंच रहा है। धीरे-धीरे कर आस-पास इलाके में अढ़ाई सौ से अधिक गुड़ के कारखाने चल रहे हैं। जहां रोजाना कई हजार टन गन्ना खप रहा है।
चरखा के दिन गए……
यह जिस इलाके की बात हो रही है, वहां पर गन्ने की खेती कोई नई बात नहीं है। यहां पर काफी पहले से ही किसान गन्ने की खेती करते रहे हैं। भले ही छत्तीसगढ़ बनने के बाद कवर्धा में पहला शक्कर कारखाना लगा हो। लेकिन इस इलाके का गन्ना गुड़ बनाने में खपता रहा है। तब गुड़ पुराने तरीके से बनाया जाता था। जिसमें बैल से चलने वाले चरखे के जरिए गन्ना पेरा जाता था और पास ही गन्ने की गरेड़ी जलाकर कड़ाहे में गुड़ बनाया जाता था। लेकिन वक्त के साथ आए बदलाव ने यह सिस्टम ही बदल दिया है। अब चरखे की जगह मशीनों ने ले ली है। जिसमें बैल को चक्कर नहीं लगाना नहीं पड़ता। अलबत्ता यह मशीन भी बिजली से चलती है। इस मसीन के जिएर कई टन गन्ने का रस रोज निकाल लिया जाता है। रस को इकट्ठा करने के लिए भी आधुनिक टंकी हैं। जिसमें पाइप के जरिए रस जमा होता है। पाइप के जरिए ही गन्ने का रस गरम कड़ाहों में भेजा जाता है। रस की सफाई सही ढंग से हो इसलिए तीन अलग कड़ाहे रखे जाते हैं। कड़ाहों को गरम करने बनाई गई बड़ी भट्ठी सोयाबिन को भूसे से दहकती है। जिसकी आँच में तपकर गन्ने का रस रॉब और गुड़ की शक्ल लेता है।
पहले दिन पहला गुड़….
सीजीवाल की टीम पंडरिया रोड पर महली से मुड़कर सकरे रास्ते से होते हुए हॉफ नदी पर बने स्वामी शारदानंद सेतु से उस पार पहुंची तो केसलमरा गाँव के दाऊ श्री बाबू लाल चंद्राकर के खेत पर गुड़ फेक्ट्री से धुवाँ उठता दिखाई दिया । ट्रैक्टर से गन्ने उतर रहे थे। जिसे तौलने की मशीन लगी थी और बिजली से चलने वाली मशीन से गन्ने का रस निकाला जा रहा था। करीब बीस मजदूर काम पर लगे थे। लोगों में गजब का उत्साह नजर आया और लोग बड़ी दिलचस्पी के साथ काम कर रहे थे। हमें बताया गया कि गुड़ फेक्ट्री इस साल ही लगी है और आज काम का पहला दिन है। सारे लोगों को हिदायत दे रहे बदायूं ( यूपी) से आए बुजुर्ग चच्चा ने गुड़ बनने की पूरी प्रक्रिया समझाई।वे इस काम के सिलसिले में विदेश में भी जाकर अपनी सेवाएं दे चुके हैं। उन्होने बताया कि रॉब तैयार कर टीन के पीपे में रखा जाएगा और व्यापारी इसे खुद आकर ले जाएंगे। उन्होने अपनी फेक्ट्री का पहला गुड़ तैयार कराया और हमें उसका स्वाद चखाया। फेक्ट्री में पहली बार तैयार हुए साफ-सुथरे गुड़ के स्वाद में तभी इस इलाके की तरक्की का मीठापन भी महसूस हुआ। उन्होने यह भी बताया कि छत्तीसगढ़ के गन्ने में शर्करा की मात्रा अन्य राज्यों के मुकाबले अधिक है। यदि सरकार किसानों को शक्कर बनाने की इजाजत दे तो इससे और अधिक फायदा मिल सकता है।
स्थानीय लोग भी बनें काबिल….
गुड़ के मीठेपन के बीच यह बात जानकर जरूर तकलीफ हुई कि गन्ने की खेती में भले ही स्थानीय लोग हिस्सेदारी निभाते हैं और उनके ही खेतों में गन्ने की पैदावार होती है। लेकिन बाद की प्रक्रिया में उनकी हिस्सेदारी ना के बराबर है। महली के किसान श्री राम कुमार चंद्राकर बताते हैं कि गुड़ फेक्ट्री में आठ से दस घंटे तक काम करना पड़ता है। जिसमें यहां के लोग काम करना पसंद नहीं करते । गन्ने की खेती में अधिक मेहनत नहीं लगती और पानी भी कम लगता है। लेकिन बाद की प्रक्रिया अधिक मेहनत मांगती है। कुछ लोगों ने यही टिप्पणी की कि अपने यहां के लोग रुपए-दो रुपए किलो के चावल से ही संतुष्ट हैं। लिहाजा उन्हे नई चीजों को सीखने में कोई दिलचस्पी नहीं है। इसी वजह से बाहर के प्रदेशों से कुशल लोगों को बुलाना पड़ता है। यह बात भी सामने आई कि जिस तरह से सरकार गन्ने का रकबा बढाने के लिए मुहिम चला रही है, उसी तरह स्थानीय लोगों को काबिल बनाने के लिए भी ट्रेनिंग और मोटीवेशन की मुहिम चलाना चाहिए।
विकास की राह में स्वर्णिम पायदानः बोरा
बिलासपुर के मौजूदा संभागीय कमिश्नर सोनमणि बोरा उस दौर में कवर्धा जिले के कलेक्टर रहे हैं, जिस समय वहां शक्कर कारखाना मे उत्पादन शुरू हुआ था। और उस इलाके में गन्ना की पैदावार बढ़ाने में उनकी भी अहम् हिस्सेदारी रही है। वे बताते हैं कि उस समय कवर्धा जिले में गन्ने की पैदावारी तो होती थी। लेकिन शक्कर कारखाने के लिए पर्याप्त नहीं थी। इसे देखते हुए गन्ने की पैदावार बढ़ाने के लिए सरकार की तरफ से भी पहल की गई। इस सिलसिले में पिट-रिंग पद्धति का प्रसार किया गया और किसानों को फसल चक्र बदलने के लिए प्रोत्साहित किया गया। शक्कर कारखाने की ओर से किसानों को उन्नत बीज मुहैया कराए गए। साथ ही गन्ने का समर्थन मूल्य तय किया गया। किसानों ने भी इस मुहिम में बराबर की भागेदारी निभाई और उनकी मेहनत का असर आज इलाके में नजर आ रहा है। यह इस बात का सबूत है कि नगद फसल से किसानों की स्थिति बदल सकती है और यह तरक्की की राह में एक स्वर्णिम पायदान है।