यही है बिलासपुर (अंतिम किस्त)

Shri Mi

dwarikaकभी परमिट का जमाना हुआ करता था, खाने-पीने की चीजों पर भी सरकार की अनुमति लेनी होती थी, लाइन लगानी पड़ती थी और जो थोड़ा-बहुत मिले उससे गुजारा करना पड़ता था। एक परिवार को महीने भर के लिए सिर्फ दो सेर शक्कर मिलती तो वह मंदिर के भोग की तरह थोड़ी-थोड़ी सबको मिलती। चाय या दूध में गुड़ डालकर काम चलता तो कभी फीके के साथ फाकामस्ती। देश की आज़ादी के बाद का वह समय अन्न और व्यवस्था के अभाव का दौर था जो लगभग पच्चीस वर्षों तक चला, जिसका गवाह बिलासपुर भी रहा।

                             बिलासपुर में ‘होशियारी’ नामक एक किला है जिसमें केवल यहाँ के राजनीतिज्ञ निवास करते हैं। इस किले की होशियारी का इतिहास अक्षुण्ण है जो आजादी के बाद से अब तक कायम है। सबसे पहले सांसद बने अमरसिंह सहगल, उसके बाद ‘ये’ और ‘वो’ भी। इन सबके दर्शन कभी किसी को नहीं मिले, सबके सब मिट्टी के माधव थे, किसी काम के नहीं निकले। पैंसठ साल की स्वर्णिम कालावधि को उन सबने मिलकर मिट्टी में मिला दिया। यही हाल विधायकों का भी था। बिलासपुर के जितने विधायक बने, संयोग से सब मंत्री बने लेकिन सबको अपनी और अपने परिवार के उत्कर्ष की चिंता थी, शहर भी ऐसा गज़ब का है जो उन्हीं के विकास के लिए चिंतित रहता है ! ऐसा शहर कहीं और भी है क्या ? आप सोचिए कि कितना गजब हुआ, इस शहर से छः लोग राज्य के स्वास्थ्यमंत्री बने और ये निर्लज्ज बिलासपुर में एक मेडिकल कालेज न खुलवा पाए। आज़ादी के पहले नगरपालिका के एक अध्यक्ष थे कुंजबिहारीलाल अग्निहोत्री जिन्होंने गोलबाज़ार बनवाया था, उनके बाद बने अध्यक्षों और महापौरों के कार्यकलाप यहाँ लिखने लायक नहीं है, वैसे, मौखिक बताने लायक बहुत कुछ है।

                            देखते-देखते धूल भरी सड़कों पर कोलतार की काली चादर ढँक गई। छोटे घर बड़ी अट्टालिकाओं में तब्दील हो रहे हैं, दूकानें ‘शाप’ बनते जा रही हैं और आपसी रिश्ते अब अपरिचय के हिमालय की वृष्टिछाया में छुपते जा रहे हैं। मोहल्ले के किसी घर में गमी हो जाए तो किसी के घर में चूल्हा नहीं जलता था, अब ‘जिसका दुख, वह जाने’ वाली बेशर्मी से अपना टेलीविज़न तक नहीं बंद करता।

                          सरकारी और अर्ध सरकारी स्कूलों में रौनक थी, जमकर पढ़ाई होती थी, अब वीरान हो गए। स्कूल में पढ़ाने वाले शिक्षक गुरुजन होते थे अब वेतनभोगी नौकर। डाक्टर देवता होते थे अब व्यापारी। व्यापारी ग्राहक की समस्या के सहायक होते थे अब लुटेरे। केवल बाजार नहीं बदला, पड़ोस भी बदल गया। अब सम्बन्धों की गर्माहट दूर बसे लोगों से है, जो जितना करीब है वह उतना अप्रिय और असहनीय। पहले पड़ोसियों से आपस में नमस्कार होती थी अब नज़रें चुराते हुए निकल जाने का रिवाज़ हो गया।

                        पड़ोसिनें अपनी रसोई में बनी सब्जी पड़ोसिनों के घर भेजा करती थी, आपसी आदान-प्रदान चलते रहता था लेकिन अब एक-दूसरे को उपेक्षा की नज़रों से देखती हैं। कस्बाई रहन-सहन और सद्भाव गुम हो गया, अपरिचय और ‘काम-से-काम’ वाली आधुनिक संस्कृति ने बिलासपुर को अपने पंजे में जकड़ना शुरू कर दिया है। एक समय था, जब सब एक-दूसरे से जुड़े हुए थे, साझा संस्कृति थी, अब ऐसे हाड़-मांस वाले शरीर दिखाई पड़ते हैं मानों वे सब हृदयविहीन यंत्र हों। कितना बदल गया बिलासपुर !

By Shri Mi
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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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