बड़े संस्थानों में पीआरओ जरूरी

Shri Mi
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atr_new(प्राण चड्ढा)जंगलविभाग के आला अफसर की वाल फेसबुक पर नहीं दिख रही।उनके वार और मीडिया के पलटवार का जो सिलसिला चला, उससे मन खट्टा है। साहेब चिंतन में होंगे, और में सोच रहा हूँ, ये फिर कभी न हो। दरअसल जो संस्थान जनता के सम्पर्क में हैं, वहां पब्लिक रिलेशन अधिकारी जरूरी है।
मेरे पत्रकारिता के शुरुवाती दौर में जनसम्पर्क विभाग के बुजुर्ग अधिकारी, आरपी तिवारी ने किस्सा सुनाया था-किसी कलेक्टर ने पीआरओ के भगा दिया और कहा -“ये काम तो मेरा पीए भी कर सकता है।” पीआरओ चला गया। कुछ दिन बाद साहब को जिले की उपलब्धि की खबर देनी थी,उन्होंने पीए से कहा, आज शाम प्रेस से मिलूँगा,आप शहर के अच्छे प्रेस वालों को बुला लो। शाम पांच बजे साहब को, शहर के सात आठ लाँड्री वाले हाजिर मिले।
अचानकमार टाइगर रिजर्व में पीआर का काम एक छोटे साहब देखते। एक अखबार मे तो खबरों की धूम रहती। जो वो बताते वही बात वर्शन में भी छपी होती। दोहराव से मन खिन्न होता।

             
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                                  atr1जो एपिसोड हुआ ये उन सम्पादकों के लिए भी सबक है जो किसी अधिकारीं के बीट रिपोर्टर को दिए समाचार की हैडिंग देख कर ही बढ़त मानते हैं और उन सम्पादकों के लिए भी सबक है जो अधिकारी के दिए खबर को अपने अख़बार में न देख उसे मिसिंग मानते हैं।
पीआरओ का सम्पर्क और अनुभव सन्स्थान और आला अधिकारी के बड़े काम का होता है। यदि ATR के भारी बजट में एक अधिकारी कम करके अनुभवी पीआरओ रखा जाता है। तो अमरकंटक की घाटी के जैवसम्पदा से परिपूर्ण इस टाइगर रिजर्व में सैलानी बढ़ेंगे,और क्या प्रकाशन किया जाये और क्या नहीं,इस पर भी उसके विवेक का लाभ मिलेगा। फिर प्रकाशन से इस तरह का एपिसोड घटित भी नहीं होगा। कई और संस्थान हैं,जहां पीआरओ का काम कोई अधिकारी कर रहा है तो उस सन्स्थान के आला अफसरों के लिए भी ये हादसा एक सबक है।हर पोस्ट और उसके अनुभव का महत्व है, वो क्या कहावत है–

जिसका साज उसी से बाजे
और कोई बजाए तो..।

By Shri Mi
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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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