पैंतालिस साल पुरानी–“शेर दरोगा”की कहानी-लोककला की जुबानी…

Chief Editor
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features_file(रुद्र अवस्थी)“मेरे पास आओँ,मेरे दोस्तों…एक किस्सा सुनों…”यह गीत महानायक अमिताभ बच्चन की आवाज में है।अपने समय की सुपरहिट फिल्म “मि.नटवरलाल” के इस गाने में अमिताभ बच्चन ने एक शेर का किस्सा सुनाया था। यह फिल्मी किस्सा बहुत से लोगों को याद भी होगा लेकिन “नटवरलाल” के आने और जाने के करीब सात साल पहले छत्तीसगढ़ में भी एक शेर का किस्सा मशहूर हुआ था।यह कहानी फिल्मी नहीं बल्कि सच्ची कहानी थी और लोकल कलाकारों के जरिए यह किस्सा लोगों के जबान पर चढ़ गया था…।पैंतालिस बरस गुजर जाने के बाद किसी को यह किस्सा याद हो या न हो । मगर दुल्लापुर-महली-सुरजपुरा-केसलमरा के पुराने लोग आज भी इस किस्से को याद कर रोमांचित हो उठते हैं कि किस तरह एक बाघ ने गांव के खेत पर दबिश दी…किस तरह गांव के चार लोगों से बाघ का सामना हुआ और किस तरह पुलिस के दो दरोगा की जान लेने के बाद पिस्तौल की गोली का शिकार होकर बाघ, गांव के खेत में ही दम तोड़ दिया था…और यह कहानी किस तरह उस समय गम्मत-नाचा के कलाकारों के जरिए लोगों के बीच आम हो गई थी……।जिन चार लोगों का बाघ से सामना हुआ था, उनमें से एक अनुज राम अब भी दुल्लापुर गाँव में बसर करहे हैं।और आज भी यह बताते हुए उनके रोंगटे खड़े हो जाते हैं कि किस तरह बाघ के हमले में उनके पिता बुधराम जख्मी हुए थे और महज बीस साल की छोटी सी उमर में कैसे वे अपने घायल पिता को बाघ के सामने से उठाकर इलाज कराने ले गए थे…।

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                                   spot_1_fileयह सच्ची कहानी है,मुंगेली-पंडरिया मेनरोड से लगकर बसे गांव दुल्लापुर- महली (थाना-कुंडा ) की।लोगों की यादों में बसे लोक गीत के बोल पर भरोसा करें तो बात 1972 की है। उस समय पंडरिया ब्लॉक का यह गांव बिलासपुर जिले में शामिल था।अब कवर्धा जिले  में है। अक्टूबर का महीना था और सत्ताइस तारीख थी…शनिवार का दिन था….। हल्की ठंड ने दस्तक दे दी थी।धान कटाई के बाद खेत खाली हो चुके थे और खेत की मेढ़ पर अरहर की फसल ने अपनी जगह बना ली थी। दुल्लापुर- महली  गांव का बुधराम अपने बेटे अनुजराम के साथ कंधे में कुदरा ( कुदाल ) और झउहा लेकर बहराखार के  खेत पर खन्ती ( खुदाई ) करने पहुंचा था।तभी उनकी मुलाकात गांव के ही लखन और अंजोरा से हुई।उन दोनों ने बाप-बेटे को बताया कि पास ही बाघ की तरह का एक बड़ा जानवर बैठा है।जिज्ञासा में चारों उस जानवर को देखने आगे निकल पड़े…….।सुबह की धूप निकल आई थी और हल्के–सर्द मौसम में यह धूप अपने गुनगुनेपन का अहसास करा रही थी……।हल्के पांव आगे बढ़ रहे उन चारों लोगों  को भी इस बात का अंदाजा नहीं था कि पास के खेत में बाघ भी गुनगुनी धूप सेंकते बैठा है। और चारों लोग उस ओर ही जा रहे थे……..।तभी किसी की नजर बाघ पर पड़ी और मुंह से चीख निकल पड़ी…।“ ए ददा !!ओ दे हे गा……. बघवा…।“आवाज सुनकर बाघ चौकन्ना हुआ औऱ अगले ही पल एक छलाँग में बाघ बुधराम के ऊपर पहुंच गया था। पल भर में पंजा मारक र उसकी पीठ और कान का मांस नोंच लिया था।बाघ के एका-एक इस हमले से घबराए लखन और अँजोरा  वहां से जान बचाकर भागे…।

                                   ANUJ_RAM_FILEकरीब पैंसठ की उमर पार कर चुके अनुजराम बताते हैं कि उस समय उनकी उमर करीब बीस साल की रही होगी।यह सब एका-एक हुआ और कुछ पल के लिए कुछ समझ ही नहीं आया। एक तरफ जबर बाघ की मौजूदगी और इधर बाघ के हमले में पिता का जख्मी शरीर……..। पिता घायल होने के बाद जमीन पर गिड़ पड़े थे और खून बहने लगा था..आस-पास कोई नहीं था। कुछ पल रुकने के बाद अनुज पिता के पास पहुंचे,बाघ की परवाह किए बिना पिता के जख्मों को अपने गमछे से बाँधा और उन्हे उठाकर गांव की तरफ ले आए।उन्हे भैंसागाड़ी पर रखकर पहले पंडरिया ले गए।जहां प्राथमिक उपचार के बाद बस से बिलासपुर पहुंचाया गया। जहां धरम अस्पताल (अब सिम्स) में करीब तीन-चार महीने बुधराम का इलाज चला।जो धीरे-धीरे ठीक हो गए। हालांकि जिस कान पर बाघ ने पंजा मारा था उसमें सुनाई कम देता था। लेकिन उन्हे अपनी उमर-भर जिंदगी मिली ओर कुछ साल पहले ही उनका निधन हुआ। हमलावर बाघ के सामने से पिता के उठा लाने का संतोष आज भी अनुजराम के चेहरे पर दिखाई देता है। अनुजराम के साथ ही गांव के लखन ओर अंजोरा का सामना बाघ से हुआ था। दोनों बरसों तक गांव में ही रहे । अब दोनों इस दुनिया में नहीं है। लेकिन उस घटना के अकेले बचे चश्मदीद अनुज अब भी गांव में रहकर खेती-बाड़ी के सहारे गुजर-बसर कर रहे हैं।

                                       SHER_DAROGA_1इस सच्ची कहानी का दूसरा हिस्सा भी कम दिलचस्प नहीं है…। बाघ के हमले से बुधराम के घायल होने की खबर गांव में आग की तरह फैल गई । गांव का कोटवार इत्तला करने कुंडा थाने पहुंच गया।पंडरिया थाने में भी खबर पहुंच गई थी। तब तक बाघ महली खार में पहुंच चुका था। दोनों थाने के थानेदार (दरोगा) मौके का जायजा लेने मौके पर पहुंचे। पंडरिया और आस-पास के कुछ शिकारी भी वहां पहुंच गए थे। गांव के कुछ लोग भी साथ हो लिए। धान कटने के बाद खेत खाली और मेढ़ पर अरहर की फसल…आगे बढ़ते जा रहे सभी की नजरें बाघ को तलाश रही थीं।खोजते-खोजते सभी बाघ के ठीक सामने पहुंच गए…।बाघ बैठा था अरहर की फसल के पीछे…खेत के एक कोने में..जहाँ पर चार मेढ़ एक साथ आकर जुड़ते हैं। बाघ ने भीड़ के सामने चल रहे एक दरोगा पर सीधे हमला कर दिया…।थानेदार भी उससे भिड़ गए और दोने में गुत्थम-गुत्थी शुरू हो गई…। बाघ के औचक हमले से सभी घबरा गए…।पास ही मौजूद दूसरे थाने दार ने अपनी सर्विस रिवाल्वर निकाल ली।लेकिन पसोपेश की स्थिति थी…गुत्थम-गुत्थी के बीच गोली चली तो बाघ से जूझ रहे  थानेदार को भी लग सकती थी…।आखिर मौका देखकर थानेदार ने गोली चला ही दी।गोली बाघ के पेट में धंस गई।गोली लगने के बाद बाघ और भी खूंखार हो गया…और अब पहले थानेदार को छोड़कर, गोली चलाने वाले थानेदार पर टूट पड़ा…।सीधे उसने थानेदार का सिर ही झपट लिया और ठौर पर ही थानेदार की मौत हो गई। गोली लगने से घायल बाघ भी बच नहीं सका और पास ही मौजूद एक सिपाही के हाथ पर झपट्टा मारने के बाद उसकी भी मौत हो गई।बाघ के हमले में घायल पहले थानेदार को तुरत पहले बिलासपुर और फिर रायपुर ले जाया गया । लेकिन इलाज के दौरान उनकी भी मौत हो गई।गांव के कन्हैया चन्द्राकर, रामकुमार चंद्राकर सहित कई लोग बताते हैं कि बाघ के मारे जाने की खबर थोड़ी देर में ही आस-पास इलाके में फैल गई थी। औऱ जब उसे जीप-गाड़ी में भरकर लाया गया तो कई गांव के लोग देखने पहुंचे थे।

“शेर-दरोगा” की लोकगाथा
spot_clikजिस जगह यह घटना हुई थी।वह खेत आज भी है।जिसमें अभी चना की फसल लगी हुई है। हालांकि वहां पर इसकी कोई निशानी नहीं है। लेकिन घटना के बाद लोककलाकार  जिस तरह इसे अपनी कला में शामिल कर इसे लोगों के सामने पेश करते रहे,वह एक निशानी बन गई। वो जमाना मोबाइल-कम्प्यूटर- वीडियो का नहीं था। लिहाजा इस घटना को सहेजकर भी नहीं रखा जा सका। लेकिन आस-पास के गंधर्व कलाकारों ने इसे काफी अरसे तक अपनी कला के जरिए सहेजकर रखा।

                                               हमारी मुलाकात ऐसे ही एक कलाकार तुकाराम से हुई। जिन्होने इस घटना पर शेर-दरोगा नाम से एक tukaram_fileरचना तैयार की थी।करीब पैंसठ साल की उमर में तुकाराम अब मुंगेली के करीब रामगढ़-खैरवार में रहते हैं।उनकी पैदाइश कवर्धा के पास झलका गांव में हुई थी।उनके पिताजी संगू गंधर्व लोकनर्तक थे।लिहाजा उन्हे बचपन से ही लोकविधा का माहौल मिला।एक बार तुकाराम घर से नागपुर चले गए।जहां कुछ समय तक डिब्बा बजाकर लोगों का मनोरंजन किया। फिर एक बार बेगम आजाद कव्वाल के साथ भी मंच साझा किया।लेकिन पिताजी नागपुर से वापस लौटा लाए।गांव में रहकर सत्य घटनाओँ पर खुद रचना करते और गांव के मंचों पर उसे पेश करते…..।खूब वाहवाही मिलती….। उन्होने इंदिरा गाँधी, राजीव गाँधी की हत्या पर भी लिखा और लोकगाथा की तर्ज पर गाया।अटलबिहारी बाजपेयी की तेरह महीने की सरकार को लेकर भी उन्होने गीत गाए हैं। नाचा -गम्मत का दौर खत्म होने के बाद यह कलाकार अब मजदूरी करके जिंदगी बसर कर रहा है।

                             तुकाराम बताते हैं कि उस समय उनकी उमर करीब बाइस साल की थी।वे गड़वा बाजा और नाचा में काम करते थे । उन्होने बाघ-दरोगा के  पूरे घटनाक्रम पर एक रचना तैयार की थी। कहरवा ताल पर तैयार यह रचना काफी लोकप्रिय हुई और उस समय किसी भी उत्सव-शादी-व्याह के मौके पर जब भी प्रहसन का मौका आता , लोग इसकी फरमाइस जरूर करते थे।लोकनाट्य की विधा में तैयार की गई रचना उन्हे आज भी याद है…

खेत घूमत जावत रहिन , बेटा अऊ बाप गा…मेढ़ के खाल्हे मां बइठे रहय बाघ गा…
उन्होने अपनी रचना में थानेदारों के शौर्य का भी उल्लेख किया था कि किस तरह अपनी ड्यूटी निभाते हुए अपनी जान दे दी..
देश भक्ति जनसेवा बर,दिन गुनिन न रात गा…मेढ़ के खाल्हे मां बइठे रहय बाघ गा…

                          home_frontतुकाराम से मुलाकात के दौरान लगा कि जैसे “बुंदेले हरबोलों के मुख,हमने सुनी कहानी थी…खूब लड़ी मरदानी वो तो झाँसी वाली रानी थी…”कुछ ऐसे ही हरबोलों की तरह माटी से जुड़े छत्तीसगढ़ के लोककलाकारों की भी अपनी एक परंपरा रही है। जिसके जरिए वे शौर्य गाथाओँ को न केवल जन-जन तक पहुंचाते रहे हैं, बल्कि जनमानस में उसे जिंदा भी रखते रहे हैं। “बाघ-दरोगा” की तरह कितने ही किस्से बने और बनते रहे। लेकिन वक्त की मार और इलेक्ट्रानिक कल्चर ने इस कला को किनारे लगा दिया। नटवरलाल जैसे सिनेमाई किस्से कितने सही हैं,यह तो नहीं मालूम।लेकिन लोककलाकारों के  किस्से सच पर ही टिके रहे और किसी घटना की निशानी कायम रखने में कामयाब भी रहे।यह सिलसिला अब कमजोर जरूर पड़ा है। लेकिन जिस तरह लोग आज भी इस किस्सागोई का जिक्र कर उसे याद करते हैं।और” एक सच्ची कहानी-शेर दरोगा की निशानी” के रूप में आज भी लोगों की जुबां पर है…।उसे देख-सुनकर लगता है कि इस मायने में यह कला कितनी बड़ी…कितनी सार्थक और कितनी कारगर रही है।लेकिन लगता यह भी है कि इस विधा को बचाने-संवारने की फिकर समाज ने भी नहीं की  और न सरकार में बैठे लोगों ने कभी कुछ सोचा।महानायकों की कहानियां सिनेमा के जरिए लोगों तक पहुंचने लगी और तकनीक की वजह से स्थाई बन गई।लेकिन हमारे लोककला के नायक भी कम नहीं रहे और बिना संसाधनों के भी सच्ची कहानियों को सच्चे मन से पेश कर उसे जनमानस में जिंदा रखने में अपना अहम् किरदार निभाते रहे…।

“शेर – दरोगा” स्टेडियम
plchandrakar_fileजिस जगह यह घटना हुई थी , उसके नजदीक अब बस्ती भी बस गई है। जहां सरपंच का मकान है। गांव वाले बताते हैं कि घटना के बाद से लोग उधर जाने से डरते थे।काफी समय तक लोगों में दहशत थी। लेकिन धीरे-धीरे सब सामान्य होता गया। घटनास्थल के पास ही अब गांव का रास्ता बन चुका है।  जो हॉफ नदी को पारकर केसलमरा गांव से जोड़ता है। बिलासपुर के सीएमडी कॉलेज में भूगोल के जाने-माने प्रोफेसर डा.पुरषोत्तम चँद्राकर का बचपन इसी केसलमरा गाँव में गुजरा है। वे बचपन की याद करते हैं–“घटनास्थल से लगकर एक मैदान हुआ करता था। जिसमें आस-पास गाँव के लोग भी क्रिकेट खेलने आते थे। और उस मैदान को शेर-दरोगा स्टेडियम नाम दे रखा था।”

बैगा का मिथक  
बाघ की इस घटना को लेकर गांव में  एक किंवदंती यह भी सुनने को मिली कि इसमें इलाके के एक बैगा की भी भूमिका रही है। हालांकि इस विश्वास का कोई प्रमाण नहीं है। लेकिन लोग पुरानी चर्चाओँ को आज भी याद करते हैं। महली के जगदीश चंद्राकर बताते हैं कि पंडरिया थानेदार ने किसी मामले को लेकर किसी बैगा को काफी समय तक थाने में बिठा रखा था। उसका बदला लेने बैगा ने बाघ को “बराकर” (मंत्र शक्ति का प्रयोग कर) दुल्लापुर- महली भेजा था ।जिसने तीन पुलिस के लोगों पर हमला किया और दो की जान ले ली। लोग इसे एक मान्यता (मिथक) से भी जोड़कर देखते हैं – जिसके मुताबिक बाघ को बैगा अपना छोटा भाई मानते हैं और अपने मंत्र शक्ति से उससे अपना मनचाहा काम करा लेते हैं।

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