कम नहीं था जो पृथ्वीराज कपूर को मिला ……..

Chief Editor
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manish dutt(रुद्र अवस्थी) थियेटर, रंगमंच और हिन्दी के जाने-माने कवियों की रचनाओँ को लयबद्ध करने में अपना जीवन समर्पित कर घर – बार …सब कुछ छोड़ देने के बाद भी मनीष दत्त अकेले नहीं हैं…….। उनका रचना कर्म करीब दो हजार साहित्यिक गीतों के रूप में आज भी उनके साथ है……। यह प्यारा शहर उनके साथ है , जहाँ वे पैदा हुए….., जिसे अपनी कर्मभूमि बनाया…….और जिस शहर में कला की अपनी एक शानदार परंपरा रही है…। जिनसे कभी सुमित्रा नंदन पंत जैसे कवि ने चिठ्ठी के जरिए संवाद किया……। जो कभी महादेवी वर्मा तो कभी हरिवंशराय बच्चन से मिलने गए….। इतना ही नहीं, आज से पचास साल पहले बिलासपुर के लक्ष्मी टॉकिज में नाटक खेलने आए महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर से मिले…। खुद भी सैकड़ों नाटकों का मंचन किया और नाटक के दृष्यों की मानिंद शहर के बदलते अंदाज के अपनी तजुर्बेकार आँखों से निहारते रहे……। यह बदलाव उन्हे दर्द देता है …तकलीफ देता है। यह दर्द उन्होने सीजीवाल से एक खास मुलाकात में बाँटे।उनकी तकलीफ है कि संस्कृति विभाग पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है।कलाकारों की पहचान करने वाला कोई नहीं है। ऑडिटोरियम बन रहे हैं। लेकिन इसके लिए किसी कलाकार की राय लेने की फुर्सत किसी को नहीं है। इसी शहर की माटी से पैदा हुए सत्यदेव दुबे. डा.शंकर शेष, श्रीकांत वर्मा को कोई याद क्यों नहीं करता ?

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आजादी के करीब सात साल पहले 1940 मे बिलासपुर के एक मध्यमवर्गीय बंगाली परिवार में जन्मे मनीष दत्त अपनी उम्र के पचहत्तर साल पूरे कर चुके हैं। इस शहर में कला ओर संस्कृति की शानदार परंपरा आज भी उन्हे गौरवान्वित करती है। वे मानते हैं कि यह शहर छत्तीसगढ़ में अपने तरह का अकेला शहर हे , जहां पर अलग-अलग संस्कृति और समाज के लोग हैं। इस कॉस्मोपोलिटन शहर में मराठी, तेलगू, तमिल, बंगाली,ओड़िया जैसे तमाम भाषा,- संस्कृति के लोगों ने अपनी हिस्सेदारी निभाई है। जिससे यहां पर सभी तरह की कलाओँ को फलने- फूलने का अवसर मिलता रहा। थियेटर को समृद्ध बनाने में एक तरफ बंगाली समाज के मिलन मंदिर का योगदान रहा। वहीं दूसरी तरफ महारा।ट्र मंडल में भी नाटकों का मंचन होता रहा। जिससे रंगमंच के कई कलाकार सामने आए.। वे डा. वी.सी. मित्रा, विनय मुखर्जी,दादा भट्टाचार्य,बलाई घोष,एन.वी. शास्त्री,शिवपद दत्त,एसीपी बराड़कर, एमआई शेख,कन्हैयालाल शुक्ला,उमाकात खरे –जैसे नामों को याद कर  कहते हैं कि रंगमंच में यहाँ के लोगों ने अविस्मरणीय योगदान दिया है।

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उन्हे याद है कि 1965 में कोएना के भूकम्प पीड़ितों का मदद के लिए महान अभिनेता पृथ्वीराज कपूर थियेटर के कलाकारों के साथ बिलासपुर आए थे। यहाँ पर लक्ष्मी टॉकिज में दीवार और दूसरे नाटकों का मंचन हुआ था। उन्हे देखने के लिए भीड़ उमड़ पड़ी थी। मनीष दत्त भी उनसे मिलने वालों में थे। पृथ्वीराज कपूर शाल ओढ़कर  नाटक खत्म होने के बाद गेट पर खुद खड़े रहते और  अपनी शाल लोगों के सामने  फैला देते जिसमें लोग अपनी हैसियत के हिसाब से  भूकम्प पीड़ितों की मदद के लिए रुपया डालते थे। उस समय पृथ्वी राजकपूर को मिला वह कम नहीं था। मनीष दत्त को यह किस्सा बिलासपुर के रंगमंच के इतिहास का एक स्वर्णिम हिस्सा लगता है । चूंकि इससे जाहिर होता है कि शुरू से ही संवेदनशील रहे बिलासपुर शहर  में नाटक के कद्रदान तब भी कम नहीं थे और किसी भी पीड़ित की मदद में हमारे हाथ कभी पीछे नहीं रहे।

मनीष दत्त ने रंगमंच के अलावा संगीत के क्षेत्र में बड़ा योगदान दिया है। बड़ा योगदान इस मायने में है कि उन्होने देश के कई जाने-माने हिन्दी कवियों की रचनाओँ को लयबद्ध किया। दरअसल बचपन में बड़ी बहन की किताबों में निराला जी के गीतों को पढ़कर उन्हे लगा कि इन्हे संगीत में ढालना अधिक लोकप्रिय हे सकता है।वे रविन्द्र संगीत से भी काफी प्रभावित थे और हिन्दी की क्षेष्ठ रचनाओँ को लेकर भी इसी तरह का प्रयोग करना चाहते थे। और सीमित संसाधनों के बावजूद किया भी। उन्होने अमर बेला नाम से ग्यारह कवियों की रचनाओँ का एक एलपी रिकार्ड तैयार किया।जिसमें मुकुटधर पाण्डेय, श्रीकृष्ण सरल, शिवमंगल सिंह सुमन,जयशंकर प्रसाद, निराला, महादेवी वर्मा, सियाराम सक्सेना, सरयू प्रसाद त्रिपाठी, मधुकर प्रमुख हैं। इस एलपी रिकार्ड के गीत आज भी विविध-भारती पर बजते हैं। इसके बाद और भी साहित्यिक गीतों को लयबद्ध किया। जो कैसेट फार्म में आज भी उपलब्ध है। मनीष दत्त चाहते हैं कि इन रचनाओँ को डिजिटली ट्रांसफर किया जाए। जिससे नई पीढ़ी को ये रचनाएँ मिल सकें।

हिन्दी की श्रेष्ठ रचनाओँ को लयबद्ध करने के जुनून ने मनीष दत्त को कई महान साहित्यकारों से मिलने का मौका दिया। मधुशाला पर रूपक तैयार करने को लेकर 1977-78 में एक बार हरिवंशराय बच्चन से करीब तीन घंटे की मुलाकात हुई थी। इसी तरह की कोशिश को लेकर सुमित्रानंदन पंत से खतोकिताबत होती रही। पंतजी ने मनीष दादा को चिठ्ठी लिखकर 27 दिसम्बर 1977 को इलाहाबाद बुलाया था।  तय तारीख को वे इलाहाबाद पहँच भी गए । लेकिन बदकिस्मती से उसी दिन पंतजी का स्वर्गवास हो गया। उस दौरान ही मनीष दत्त की मुलाकात महादेवी वर्मा से हुई। जिन्हे लयबद्ध गीत सुनाने का मौका मिला और तारीफ भी मिली। तभी जयशंकर प्रसाद के पुत्र रत्नशंकर से भी मुलाकात हुई थी। उश समय यह बात हुई कि साहित्यिक रचनाओँ को लयहद्ध करने का इतना बड़ा काम अकेले कैसे हो सकेगा। तब वहाँ से लौटकर 3 जनवरी 1978 को काव्यभारती कला संगीत मंडल का गठन किया। जिसके जरिए कई लोगों को संगीत की शिक्षा मिलती रही। साथ ही हिंदी गीतों के जन-जन तक पहुँचाने का काम चलता रहा। यह सिलसिला आज भी जारी है। लेकिन मनीष दत्त ने पैसे के लिए कुछ नहीं किया। जो कुछ भी किया वह कला के लिए किया और करते चले आ रहे हैं।

आज कला की स्थिति के सवाल पर मनीष दत्त विफर उठते हैं। उन्होने कहा कि आज तो संस्कृतिव विभाग पूरी तरह से ध्वस्त हो गया है। लोककला का हल्ला मचाकर कुछ दलाल किस्म के लोगों ने विभाग पर कुछ इस तरह से कब्जा जमाया है कि नए कलाकारों को पनपने नहीं दे रहे हैं। आज विभाग का दायित्व केवल उत्सव का आयोजन रह गया है। क्या केवल उत्सव का आयोजन कर लेने से ही कला जीवित रह सकती है।उस ओर भी देखना चाहिए कि कलाकारों की असल ट्रेनिंग तो गाँव में हो रही है। यदि उस ओर ध्यान नहीं दिया गया तो कला धीरे-धीरे लुप्त हो जाएगी।उन्होने बताया कि 2004 में उन्होने खुद रतनपुरिहा गम्मत के लिए दस दिन का वर्कशाप किया। जिसमें सौ से अधिक कलाकार आए। सेमरताल के पास गाँव का एक ऐसा कलाकार आया बुधनाथ , जो आरे के ऊपर तिहाई डांस करता था। वह जब लखनऊ में प्रदर्शन करने पहुँचा तो लोग  दाँतों तले उंगलियाँ दबाने मजबूर हो गए। आज यह सोचने की जरूरत है कि हम इस तकह के कलाकारों के लिए क्या कर रहे हैं।

मनीष दत्त को इस बात को लेकर भी चिंता है कि बिलासपुर जैसी संस्कारों की नगरी में ऑडिटोरियम को एक सामान्य निर्माण मानकर काम हो रहा है। कभी किसी कलाकार से इस बारे में राय नहीं ली गई। सभी तरफ सिर्फ और सिर्फ दुकानें बन रहीं हैं। जिस कला की वजह से इस शहर की पहचान रही है उसका कोई भी नामलेवा नजर नहीं आता। मनीष दत्त खुद यह सवाल करते हैं कि – सत्यदेव दुबे जैसे इतने बड़े कलाकार का यह शहर है। लेकिन उनके नाम पर कभी कोई वर्कशाप करने की बात क्यूं नहीं होती ? जिला ग्रंथालय कहां गया और वहां की अनमोल किताबें कहाँ हैँ ? क्या इन सवालों का जवाब आज के कर्णधारों के पास है?

 

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