छत्तीसगढ़ का संविलियन मध्यप्रदेश से बेहतर कहने का कोई कारण नहीं,बढ़ेगी असंतोष की ज्वाला

Chief Editor
भोपाल।छत्तीसगढ़ सरकार की ओर से शिक्षा कर्मियों के संविलयन को लेकर मध्यप्रदेश में भी प्रतिक्रिया हुई है। मध्यप्रदेश के अध्यापक नेताओँ का मानना है कि छत्तीसगढ़ के संविलयन को बेहतर कहने की कोई वजह नजर नहीं आती। वे यह भी कह रहे हैं कि मध्यप्रदेश की तरह छत्तीसगढ़ के शिक्षा कर्मी भी अपने वास्तविक अधिकारों से दूर धकेल दिए गए हैं।जिससे शिक्षा कर्मियों में असंतोष की ज्वाला और तेज होगी।मध्यप्रदेश अध्यापक संघर्ष के नेता रमेश पाटिल ने कहा कि छत्तीसगढ़ के शिक्षाकर्मी लंबे समय से शिक्षा विभाग में संविलियन की बाट जोह हो रहे थे। मध्यप्रदेश के अध्यापक साथियों को भी छत्तीसगढ़ के शिक्षाकर्मियों के संविलियन का बेसब्री से इंतजार था क्योंकि दोनों प्रदेश के शोषित कर्मचारियों का जन्म एक साथ हुआ है।
छत्तीसगढ़ में शिक्षाकर्मियों को नए कैडर (lb) के रूप में शिक्षा विभाग के अधीन किया गया है। शिक्षा विभाग नहीं दिया गया है यह स्पष्ट है। जिसके लिए न्यूनतम 8 वर्ष की सेवा अनिवार्य की गई है। नए कैडर का तात्पर्य ही पूर्ण अधिकार से कहीं ना कहीं दूरी बनाए रखना और समानांतर व्यवस्था बनाना होता है। 8 वर्ष की सेवा अनिवार्य किए जाना मतलब सीमित लोगों को ही खुश होने का अवसर देना। जो संकेत करता है कि शोषण की परंपरा लम्बे समय तक चलते रहेगी। पदनाम, सेवाशर्तें और वेतनमान यह अभी रहस्य बनी हुई है।
      उन्होने कहा कि शिक्षाकर्मियों के संविलियन में सबसे गंभीर विषय है शिक्षाकर्मी नियुक्ति दिनांक से सेवा की निरंतरता दी जा रही है या नही? सेवा की निरन्तरता के बिना संविलियन का कोई औचित्य नहीं है। जिससे भूतलक्षी एवं भविष्यलक्षी लाभ प्रभावित होते हैं। लेकिन छत्तीसगढ़ में भी सेवा की निरंतरता पर स्पष्ट कुछ नहीं कहा गया है। छत्तीसगढ़ के शिक्षाकर्मी नेतृत्व को सचेत और सावधान रहना होगा और हर हालत में शिक्षाकर्मी नियुक्ति दिनांक से सेवा की निरंतरता मान्य करने के लिए शासन पर दबाव बनाना होगा।
रमेश पाटिल का मानना है कि मध्यप्रदेश के अध्यापक और छत्तीसगढ़ के शिक्षाकर्मी एक दूसरे के संविलियन को बेहतर तो ठहरा सकते हैं ।  लेकिन यह सच है कि दोनों ही प्रदेश के अध्यापक एवं शिक्षाकर्मी वास्तविक अधिकारों से कोसों दूर धकेल दिये गये है।भूत और वर्तमान तो बिगड ही गया है, भविष्य और बुढ़ापे की चिंताओं से दोनों को ही मुक्त नहीं किया गया हैं।
शासन की लंबे समय तक सेवा करने का प्रतिफल मिलते हुए दिखाई नहीं देता है। यह सिद्ध करता है की किसी भी प्रदेश की सरकार हो, या किसी भी दल की सरकार हो, प्रदेश का नेतृत्व भले ही अलग हो लेकिन सरकारों का चरित्र बिल्कुल एक जैसे होता है।
        उन्होने कहा कि   मध्यप्रदेश और छत्तीसगढ़ की सरकार अध्यापक और शिक्षाकर्मियों को अंशदाई पेंशन के रूप में शेयर बाजार की चपेट से निकालकर यदि पुरानी पेंशन व्यवस्था ही बहाल कर दे, ग्रेच्युटी पूर्व सेवा के अनुक्रम मे लागू कर दे तथा बीमा आदि भविष्यलक्षी लाभ लागू कर दे तो शोषित कर्मचारियों के जीवन में बहुत हद तक खुशहाली आ सकती है लेकिन सबसे बड़ा प्रश्न यही है कि क्या ऐसा करने की इच्छा शक्ति वहां के राजनीतिक नेतृत्व में हैं? क्या वे उद्योगपतियों के चंगुल से निकलने मे सक्षम है?
 इतना तो तय है कि मध्यप्रदेश के अध्यापक और छत्तीसगढ के शिक्षाकर्मियो मे असंतोष की ज्वाला और तेज होगी।शैक्षणिक व्यवस्था प्रभावित होगी।राजनीतिक उथल-पुथल मचेगी क्योंकि दोनो ही प्रदेश के शोषित कर्मचारी सुविधाओ के लिए संघर्ष नही कर रहे है वे कर्मचारियो के मूलभूत अधिकारो के लिए संघर्ष कर रहे है जिनसे उन्हे सरकारो ने कानून-कायदो मे उलझाकर वंचित कर रखा है।
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