
संस्कृति…1
जालीवुड में कलाकारों से जूझते दोपहर हो गई थी। यहां से बाहर निकलकर सिंह चुपचाप जामवंत के साथ चलने लगा। चलते चलते वे एक सरोवर के निकट पहुंचे, यहां राजा को एक पेड़ के नीचे बैठी बूढ़ी गाय आंसू बहाती दिखी, गाय के पास बैठा बैल उसे सांत्वना दे रहा था।
गाय को रोते देख राजा को बड़ा आश्चर्य़ हुआ, उसने निकट जाकर पूछा, बहन तुम रो क्यों रही हो ? किसने तुम्हें सताया है ? गाय ने पहले कुछ नहीं कहा, परन्तु सिंह के बारम्बार पूछने पर उसने अपनी व्यथा का वर्णन आरंभ किया।
गाय ने कहा- हे भाई, मेरा नाम कपिला है, ये मेरे पति नंदी हैं। ये लड़कपन से ही धार्मिक और संस्कारी रहे हैं। वर्षों पहले विवाह के उपरांत हम पति-पत्नी सुख से रहा करते थे, हमारे घर नित्य भक्त वत्सल भगवान श्रीहरि का भजन पूजन होता था, भगवद्गीता का पाठ होता था, घी का अखण्ड दीप प्रज्जवलित होता रहता था। हम सुबह से रात तक अतिथि सत्कार एवं दान दक्षिणा में व्यस्त रहते थे।
कुछ समय बाद हमारे दो पुत्रों व एक पुत्री का जन्म हुआ। पुत्रों का जन्म होने पर हमें ऐसा लगा मानों साक्षात् कृष्ण बलराम हमारे घर अवतरित हो गए हैं। पुत्री तो अपने आप पलती रही, परन्तु मोक्ष का साधन माने जाने के कारण पुत्रों को हमने फूलों की सेज में राजकुमारों की तरह पाला। बाल्यकाल से हम उनकी समस्त इच्छाएं पूरी करते रहे।
आरंभ में इन्होंने पुत्रों को गुरुकुल में शिक्षा दिलाकर प्रकाण्ड पंडित बनाने का विचार किया, ताकि वे धर्म की ध्वजा फहराते जीवन व्यतीत करें, परन्तु आसपड़ोस के बच्चों को आधुनिक परिवेश में पलते देख इनके विचार बदल गए। जमाने के अनुसार चलने के फेर में इन्होंने पुत्रों को आधुनिक स्कूल में भर्ती करा दिया, पुत्री को ये घर पर ही शिक्षा देने लगे।
पुत्रों की पढ़ाई का खर्च अधिक था, परन्तु उनके पैर जमाने के लिए इन्होंने पुश्तैनी जेवर, जमीन सब बेच दिया। शिक्षा पूर्ण होने के पश्चात् इन्होंने उनका व्यावसाय आरंभ कराया, कुछ समय बाद अपनी बची पूंजी बेचकर धूमधाम से सभी का विवाह भी कर दिया।
कन्या तो विदा होकर अपने घर चली गई। पुत्र व्यावसाय करने लगे। आरंभ में वे पिता के बताए रास्तों पर चलते हुए व्यापार करते रहे, इससे उन्हें अधिक लाभ नहीं हुआ। वे अपनी पारिवारिक आवश्यकताओं की पूर्ति करने योग्य ही धन अर्जित कर पाते थे।
उनके साथी अनैतिक व्यापार कर रातोंरात धनवान हो रहे थे। मित्रों को धन कुबेर बनकर विलासी जीवन जीते देख हमारे पुत्र कुंठित होने लगे, हीन भावना के शिकार होकर वे अधिक से अधिक धन कमाने के लिए बेचैन रहने लगे। अभावग्रस्त बहुओं के तानों ने उनकी बेचैनी को और बढ़ा दिया।
पिता उन्हें धन का लालच छोड़ संस्कारी जीवन जीने की सलाह देते थे। वे कहते थे आत्मिक विकास संस्कारों से होता है, जन्म जन्मांतर तक संस्कार ही साथ देते हैं, धन तो यहीं छूट जाता है। वे यह भी समझाते थे कि पाप के सहारे कमाया गया धन अपनी कालिमा भी साथ लेकर आता है, यह धन संस्कारों को नष्ट कर देता है, परन्तु पुत्रों की आंखें भौतिक विकास से चौंधिया गई थीं। उन्हें पिता की बातें अनुचित प्रतीत होती थीं।
घर में दिन रात हाय हाय मची रहती थी। धीरे धीरे धन के लिए बेचैन पुत्रों ने अपने पिता की उपेक्षा आरंभ कर दी, वे बात बात में इनका अपमान भी करने लगे, हारकर इन्होंने चुप्पी साध ली। कुछ दिनों बाद उन कुल दीपकों ने संस्कारों को तिलांजलि देकर वर्जित वस्तुओं का व्यापार आरंभ कर दिया। देखते ही देखते वे तेजी से धनवान होने लगे, जैसे जैसे वे धनवान होते गए, वैसे वैसे घर में कलियुग का प्रवेश होता गया….
( क्रमशः )
( आगे है कलियुगी संस्कृति, बूढ़े माता-पिता का त्याग )