(सत्यप्रकाश पाण्डेय)”कल मौत को अपने पीछे लपकते देखा । मैं जिंदगी के लिए भागता रहा और मौत पीछा करते करते अचानक रास्ते में रुक गई । उखड़ती साँसों को संभाले मैंने मुड़कर जब पीछे देखा तो मौत अपना रास्ता बदल चुकी थी । शायद मैं ही गलत था, बिना बुलाये उसके दरवाजे पर दस्तक दे रहा था ।”




बिलासपुर जिले में पिछले एक सप्ताह से हाथियों की दस्तक ने जहां ग्रामीणों की नींद हराम कर दी है वहीँ मेरी बेचैनी को भी बढ़ा रखा था । मुझे उनको करीब से देखने और तस्वीरें लेने का जुनून सवार था । हाथी संख्या में 23 बताये जा रहे थे । निश्चित तौर पर इतनी बड़ी संख्या सुनकर मैं उनको तस्वीरो में कैद करने को उतारू हो गया । अख़बार और विभागीय सूत्रों से हाथियों के हाल-मुकाम की जानकारी इकठ्ठी करता रहा । कभी कहीं तो कभी कहीं । मैं कुछ साथियों के साथ पिछले रविवार ग्राम छतौना के जंगल भी पहुँचा । वन कर्मियों की सूचना को सच मानकर दिनभर उस तालाब के किनारे आग उगलती धूप का अत्याचार बर्दाश्त करता रहा जहां दिन ढलते ही वो पानी पीने पहाड़ी से उतरकर आते । उस दिन वो नही आये, दिन भर की तपस्या पसीने के साथ बेकार बह गई ।
पेट की खातिर नौकरी भी करनी पड़ती है सो दूसरे दिन से दफ़्तर में आमद देने लगा । फिर ख़बर मिली कि हाथी बेलगहना वन क्षेत्र के कउआपानी में हैं । दिन के वक्त पहाड़ी पर रहने वाले हाथियों के झुण्ड को खोजने की लालसा लिए मैं आज (शुक्रवार) फिर घर से निकल पड़ा । साथ में जितेंद्र रात्रे, उसकी मोटरसाइकिल से हम बिलासपुर से खोंगसरा के लिए बढ़ चले । पिछले दिनों हाथी जहां-जहां थे वहां भी उनकी ख़बर ली । पूछते-पूछते हम खोंगसरा के समीप नगोई गाँव पहुंचे । आज मौसम हमारे साथ था । घूप और गर्मी दोनों से राहत थी । नगोई में एक बैलगाड़ी वाले से पूछकर हम उसकी बताई दिशा की ओर बढ़ गए । नदी-नाले को पार कर हम जंगल के रास्ते पहाड़ के आखरी छोर पर पहुँचे। यहाँ-वहाँ नज़रे दौड़ती रहीं, उन्हें हाथी की तलाश थी । बियाबान जंगल में सिर्फ मैं और जितेंद्र, दूर-दूर तक किसी आदम तो दूर जानवर की आहट भी नही थी, हाँ कुछ पक्षियों का शोर हमारे साथ था । मन में खौफ़, मगर हिम्मत दूनी । सोचकर पहाड़ चढ़े थे हाथी की तस्वीर लेकर ही लौटेंगे । काफ़ी भटके, पैदल भी चले मगर हाथी नही दिखा । काफी देर बाद बाद निराश होकर पहाड़ से नीचे उतरे और उस नदी के किनारे आकर सुस्ताने लगे जहां से हाथी का पता मिला था ।
हमारी निराशा को उम्मीद के पंख तब लगे जब पास ही काम कर रही एक बूढी दाई से हमने हाथी का फिर पता पूछा । उसने गाँव (बिटकुली) के एक आदमी को पुकार लगाई और हमारे सवालों के जवाब के लिए उसे सामने बुलाकर खड़ा कर दिया । ‘बुधमोहन’ हमारी आज की आखरी उम्मीद था, क्यूंकि दिन ढलने में ज्यादा देर नहीं थी। हाथी के बारे में हमने जैसे ही बुधमोहन से पूछा उसके जवाब ने थके शरीर में स्फूर्ति का संचार कर दिया । उसने बताया अभी-अभी हाथियों को देखकर लौटा है । एक बार कहने पर वो हमारे साथ चलकर हाथी दिखाने को तैयार हो गया । हम उसके साथ फिर उसी रास्ते पर निकल पड़े जहां से निराश होकर कुछ देर पहले ही लौटे थे । कुछ दूर मोटरसाइकिल पर फिर पैदल । आगे-आगे बुधमोहन उसके पीछे कदम से कदम मिलाकर हम दोनों । करीब दो किलोमीटर ऊँचे-नीचे रास्ते पर चलते हम उस जगह के करीब थे जहां बुधमोहन ने हाथी देखे थे । तेज बढ़ते क़दमों की रफ़्तार धीमी हो गई, उसने हमसे कहा बस आगे हाथी होंगे थोड़ा आराम से और संभलकर रहिये । जंगल में बड़ी संख्या में हाथी देखना कम रोमांच भरा नहीं था । बुधमोहन की चेतावनी ख़त्म होती उससे पहले ही हाथियों का झुण्ड सामने दिखाई पड़ गया । दबे स्वर में उसने कहा.. लो साहब खींच लो जितनी तस्वीरें खींचना है । हमारे सामने 13 हाथियों का झुण्ड उसमें तीन बच्चे । कुछ तस्वीरें छुपकर लीं, फिर लगा कुछ और बेहतर लिया जाये । पेड़ की आड़ से हम निकलकर थोडा सामने आये । हमारी मौजूदगी की भनक अब तक हाथियों को हो चुकी थी । उनकी हरकत और बच्चों को सहेजने की कोशिश हमको सन्देश देती रही कि हाथी अलर्ट हैं ।
जान जोखिम में डालकर मैंने कुछ तस्वीरें उनके सामने जाकर लेने की कोशिश की, सफल भी हुआ । इस दौरान हाथी और मेरे बीच का फासला महज 50 से 60 फुट का रहा होगा । एक किनारे साथ गया ग्रामीण,दूसरे छोर पर जितेंद्र । दोनों हाथी से दूर और उनकी नज़रो से बचे हुए । मुझे मेरे अतिउत्साह और बेवकूफी ने उनके सामने खड़ा कर रखा था । देखते ही देखते वो कतारबद्ध हो गए । मुझे उनके समूह की बेहतर तस्वीर मिल गई, लेकिन जब तक मैं कुछ समझ पाता सारे हाथी मेरी ओर लपक पड़े । मैं बिजली की रफ़्तार से मुड़ा और भागने लगा । जंगल के रास्ते भागना आसान नहीं था मगर पीछे मौत का शोर और उसके बढ़ते कदम मुझे भागते रहने को मजबूर कर गए । साँसें उखड़ रहीं थी, क़दमों की रफ़्तार धीमी पड़ती जा रही थी मगर रुकना लाजिमी नहीं था । काफी दूर भागने के बाद एक जगह रुका और मुड़कर पीछे देखा । हाथियों की शक्ल में मेरे पीछे लपकती मौत लौट चुकी थी । थर्राते हाथ-पाँव, रह रहकर ऊपर आती साँसें जंगल से बाहर निकल जाने को कह रहीं थी । इस दौरान मेरे साथी भी भागे लेकिन वो मुझसे काफी आगे और सुरक्षित थे । इस पूरे घटनाक्रम में एक महत्वपूर्ण बात जो देखने को मिली वो अखबार की ख़बरों से दूर है । हम सुबह 11 बजे से शाम 5 बजे तक जंगल की ख़ाक छानते रहे मगर एक भी कर्मी वन विभाग का नज़र नहीं आया । ख़बरों में जरूर मैंने पढ़ा था विभागीय अमला रात दिन मौजूद रहा । हाथियों को खदेड़ने के अलावा ग्रामीणों को सावधान रहने का हांका पाड़ता रहा, परन्तु मौके पर कहीं कुछ नहीं । ग्रामीण अपने भरोसे हैं, जानवर अपने ।
सोचता हूँ..आज मौत के दर पर दस्तक तो मैंने ही दी थी, उसके रास्ते में खड़ा होकर तस्वीर मैं ही खींच रहा था । किसी ने बुलाया तो था नहीं, फिर लपकती मौत के हाथ अगर आज मैं लग जाता तो हाथियों को कोसा जाता । गलत है, हम इंसान वन्य प्राणियों के अधिकार क्षेत्र में दखल कुछ ज्यादा ही देने लगे हैं । उनके ठिकानों में पैठ बनाकर हम अपनी जरूरतों को पूरा कर रहे हैं । धीरे-धीरे जंगलों के दायरे सिमटते जा रहें हैं और जंगल की ये मूक संताने हमारे क्षेत्र में घुसपैठ को मजबूर हैं । खतरा दोनों को है मगर जानवर अब ज्यादा खतरे में जान पड़ते हैं । उन्हें बचाना होगा, उनके इलाकों को सुरक्षित रखना होगा । वरना मैं तो कल ही मौत को पछाड़कर सकुशल घर लौटा हूँ कहीं कोई अभागा उनकी आगोश में आया तो बेकसूर हाथी कसूरवार ठहराए जायेंगे । मैंने जो किया बिल्कुल उचित नहीं था, क्यूंकि जंगल और जंगली जानवर नहीं जानते आप वन्य प्रेमीं है, फोटोग्राफर है, उन्ही के विभाग से हैं या फिर कोई मंत्री-संत्री ।