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(राजेश अग्रवाल ) पत्रकार, कवि और मेरे मार्गदर्शक, जिनके साथ मैंने सबसे लम्बे समय तक काम किया और बहुत कुछ सीखा, नथमल शर्मा जी का कविता संग्रह ‘उनकी आंखों में समुद्र ढूंढता रहा’ का कल शाम विमोचन था। कविता संग्रह में मानवीय संवेदनाओं, वर्तमान सामाजिक -राजनीतिक विसंगतियों, छत्तीसगढ़ के लोगों के रोजगार, जीवन-यापन और जीने के लिए आम लोगों के संघर्ष पर अनेक रचनाएं हैं। इस पुस्तक का विमोचन कवि और बिलासपुर के संभागायुक्त त्रिलोक चंद्र महावर ने किया। ऐसे समय में जब मौजूदा सरकार जनता और अफसरों के बीच से अपने ख़िलाफ उठने वाली किसी भी आवाज़ को बर्दाश्त नहीं कर रही हो, प्रगतिशील लेखक संघ से जुड़े शर्मा जी के कार्यक्रम में संभागायुक्त ने मुख्य अतिथि बनने का जोखिम उठाया। कविता संग्रह से ही संदर्भ लेते हुए आलोचक डॉ. विजय गुप्त ने विकास के नाम पर जल, जंगल, जमीन के दोहन पर बात रखी। विकास के नाम पर किसानों, आदिवासियों का हक छीने जाने पर चिंता व्यक्त की। उन्होंने सरकार की नीतियों की जबरदस्त आलोचना करते हुए कहा कि वह पूंजीपतियों और कार्पोरट के इशारे पर काम करती है। उन्होंने संग्रह में शामिल एक कविता पर बात करते हुए मई 2014 के चुनाव के बाद आए बदलावों को देश की विविधता, सद्भाव की परम्परा और लोकतंत्र के लिए खतरनाक भी बताया ।
सभागार में मौजूद श्रोताओं को लगा कि शायद इस समय मुख्य अतिथि महावर अपने-आपको काफी असहज महसूस कर रहे होंगे। एक प्रशासनिक अधिकारी होने के नाते सरकारी नीतियों का बचाव करना उनका दायित्व बनता था, सो जब बोलने की बारी आई तो उन्होंने ऐसा किया भी। उन्होंने कहा कि एक तरफ हम विनाश की चिंता करते हैं, दूसरी तरफ विकास का उपभोग भी करते हैं। जिन जगहों पर पहले बैलगाड़ी से लोग पहुंचा करते थे, आज वहां हवाईसेवा भी पहुंचने वाली है। पहले हमें मोहल्ले की छोटी दुकानों से संतोष था, आज मनोरंजन और खरीदारी के लिए मॉल पर जाना पसंद करते हैं। एक तरफ हम विकास के चलते मिली सुविधाओं का उपभोग भी करते हैं, दूसरी तरफ उजड़ने का रोना भी रोएं, यह दोहरा रवैया कैसे चलेगा?
महावर जी के प्रति पूरा सम्मान रखते हुए भी कहना चाहूंगा कि उनकी यह बात कुछ समझ में नहीं आई।
विकास का पैमाना आखिर एक तरफा कैसे तय किया जा सकता है। सत्ता और पूंजी की ताकत जिनके पास है, क्या वे ही तय करेंगे कि विकास कैसा हो? क्या ऐसे विकास में उन लोगों की सहमति ली जा रही है, जिनको उनकी जमीन से बेदखल कर उनके जीवन पद्धति को सामाजिक-सांस्कृतिक ढ़ाचे को ढहा दिया जाता है और आमदनी के नैसर्गिक स्त्रोतों को या कहें जीने का अधिकार ही छीन लिया जाता है। क्या हवाई सेवा और मॉल की सुविधा उन लोगों को मिलने वाली है, जो लोग इसके बनने से उजड़ गए हैं। जिनकी पुश्तैनी जमीन चली गई, जो अपने ही खेतों में खड़ी फैक्ट्रियों में मजदूर बन कर रह गए, वे इस विकास को क्या समर्थन देते हैं?
विकास किस दिशा में हो, कितना हो, क्या खोने के बदले हासिल हो रहा है अब इस पर विचार करने का समय आ गया है। अब तो विकास का लालच पैदा किया जा रहा है। पानी, सेहत, सड़क, नाली की जरूरी सेवाओं पर बजट में हर साल अरबों रुपए खर्च हो जाते हैं, पर हालात नहीं बदलते, फिर स्मार्ट सिटी का सपना दिखाने लगते हैं। आप सार्वजनिक परिवहन सेवा को ठीक नहीं रखेंगे। ताकि जो सक्षम न हो वह भी लोन लेकर ही सही कार खरीद लें। बैंकों का भी भला, उद्योगपतियों का भी। फिर सड़कों पर भीड़ बढ़े तो सौ पचास साल पुराने हजारों पेड़ों को बलि चढ़ा दें। बड़ी पूंजी के साथ व्यापार शुरू करने वालों की भारी छूट का मुकाबला करने के लिए छोटे व्यापारियों को कोई रियायत नहीं देंगे। इसलिए लोग मॉल से खरीदारी करने के झांसे में आ जाएं और उसे अपनी आदत में शामिल कर लें। मल्टीप्लेक्स और सिनेमाघरों के बीच का भी यही मामला है। दूरसंचार और निजी मोबाइल सेवाओं में भी यही हो रहा है।
लोहा, कोयला और तमाम खनिजों की बेतहाशा मांग पैदा कर आप खेतों और जंगलों को बर्बाद कर हैं। खेतों और वनों से ही इतना संसाधन क्यों चाहिए? मल्टीकॉम्पलेक्स और पॉश कॉलोनियां बनाने और उनमें बिजली-पानी की निर्बाध खपत के लिए न! कुछ बौद्धिक योग्यता से ऊंची फीस पाने वालों को छोड़ दें तो इस कथित विकास के उपभोक्ता अधिकतर तो वे हैं जो हमारे आपके टैक्स की राशि से ठेके, सप्लाई का काम पाते हैं मोटा वेतन और सुविधाएं हासिल करते हैं। यह असीमित मांग इसलिए पैदा हो रही है क्योंकि पूंजी कुछ लोगों के पास भरपूर आ रही है और दूसरी ओर आदिवासियों, किसानों और युवाओं की दशा दिन ब दिन दयनीय होती जा रही है। गरीबों, वंचितों से जीने तक का अधिकार छीनकर विकास की अपनी अवधारणा को कदापि सही नहीं कहा जा सकता। विकास का मापदंड तय करने का पहला अधिकार तो उन लोगों के पास होना चाहिए जिनके घर अब तक इतनी चकाचौंध के बावजूद अंधेरे से घिरे हुए हैं।.