आप टीवी क्यूँ देखते है,अखबार क्यूँ पढ़ते है?-रवीश कुमार

Chief Editor
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आप टीवी क्यूँ देखते हैं….अखबार क्यूँ पढते हैं? यह गंभीर सवाल उठाया है, देश के जाने-माने टीवी पत्रकार रवीश कुमार ने…।हाल ही में एक न्यूज पोर्टल के कार्यक्रम में अपने भाषण में उन्होंने देश की मौजूदा पत्रकारिता को लेकर कई सवाल उठाए हैं। ये ऐसे सवाल है, जो एक पत्रकार और खबरो पर भरोसा करने वाले आम पाठक या दर्शक को भी झकझोरते हैं। उनका यह भाषण यू ट्यूब पर भी है।इसे पढे जाने वाले शब्दों में बदलकर कर हम इसे जैसा का तैसा पेश कर रहे हैं।

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feature_ravis(रवीश कुमार) एक ऐसे समय मे जब मैं अखबार बहुत कम पढ़ता हूँ टीवी नहीं देखता हूँ, न्यूज़ पोर्टल के लिए इतने लोग आए है तो मैं अपने आप से पूछने लगा कि मैं काही नेगेटिव तो नहीं हो गया हूँ लाइफ मे, ये सही बात है कि मैं टीवी नहीं देखता हूँ। अब इतना भी कोई सौ फीसदी न सोचे!! पर हाँ फिर भी चलिये ठीक है अपवाद के रूप मे एक दो परसेंट देखता हूँ। लेकिन आम प्रायः अगर लगा दी जाये प्रायः से अगर असुविधा न हो तो मैं टीवी अब नहीं देखता। जब भी मैं आता जाता हूँ अपने कमरे से आता जाता हूँ , निकलता हूँ तो वो टीवी दिनभर कभी न्यूज़ चैनल चलता रहता था। अब नहीं चलता है। तो मैं सोचता हु कि एक स्पेस है जो मेरे घर मे ये हमेशा बंद है कहीं खराब तो नहीं हो गया है, या मेरे घर मे लोग नहीं है जो इसे देख नहीं रहे है। आप लोग देखते होंगे आपको अच्छा लगता होगा। देखना चाहिए।

                         अगर अच्छी चीज़ है तो देखनी चाहिए। हम एक ऐसे समय से गुज़र रहे है और ये पहले बता दूँ कि पत्रकारिता का कभी कोई स्वर्ण काल था नहीं। और वो हमेशा किसी सोने कि तलाश मे जो भी उसके पास काल है वो खा गए सब। कि हम सोना हासिल करेंगे वो तो हुआ नहीं। इसलिए मैं बधाई देना चाहता हूँ अपने साथी को कि उसने करने के लिए सोचा है और इतना बड़ा सोचा है और आप लोग ने उसका हौसला बढ़ाया है। मैं तो आज तक घर मे एक छोटी पार्टी नहीं दे सका सोचा मैं किसको बुलौंगा और कौन आएगा इस शहर मे। खुद पे भरोसा नहीं है लेकिन जो लोग इस एज मे करते है हम सब को इस खूबी का अलग से हौसला बढ़ाना चाहिए कि अलग अलग उम्र के अलग अलग पृष्टभूमि के लोगो को सहेज लेना जमा कर लेना छोटी बात नहीं होती है।

                         मैंने इसलिए कहा कि मैं टीवी नहीं देखता पर मैं बहुत टीवी देखता था बीमार कि तरह और एक दौर आया जो नहीं देखने के कारण है वो मैं ईमानदारी से स्वीकार करता हूँ कि मैं भी वही करता हूँ, एक दौर आया जब टेलिविजन से रेपोर्टिंग समाप्त कि जाने लगी और हो गई अपने अपने कारणो से और उसके नतीजे मे यह हो रहा था कि सारी जो हक़ीक़त है सोसाइटी कि वो अब चार लोगो तक है। और वो चार लोग जो भेजे जाते है वो कुछ बातो कि राजनीतिक समझ रखते होंगे लेकिन रेपोर्टिंग से जो देश भर से जो चीज़ें जमा की जाती है इसमे अलग अलग मुद्दों पर आप जानते रहते है वो अब बंद हो गया है, हाँ या ना मे सवाल दे दीजिये तो ग्रे एरिया का स्कोप खतम हो गया है। अगर आप हाँ या ना मे सवाल नहीं देते तो ये जनमत बनाने की मौत हुई है उसकी हत्या हुई है, तो उसी के शोक मे मैं टीवी नहीं देखता हूँ, हाँलकि जो दुनिया मे बनाना चाहता था, वो मैं भले नहीं बना पाया लेकिन मैं चाहता हूँ की जो भी जितना प्रयास कर रहा है और जिस दिन तक वो अगर नाला ले तो उसका हौसला जरूर बढ़ाना चाहिए। हम सब को इस बात को ध्यान से देखना चाहिए। मैं आपसे भी पूछना चाहता हूँ कि आप टीवी क्यूँ देखते है? आप अखबार क्यूँ पढ़ते है? मतलब क्या जानकार कल से क्या बेहतर हो गए।

                    चीज़ें तो वहीं पहुच रही है कि आज अगर ये दंगा है तो जो 84 का भी दंगे कि बात करो तो हर सब घटना कि पृष्टभूमि तो बीस साल पहले कि तो है। तो इसमे इस बटवारे मे इसमे हमारे और आपके भीतर का नज़रिया क्या नया हो रहा है। तो हमारे जो भीतर कि बेचेनीयां है। वो इसे मार दी जा रही है और मर गई है हम सब बेचैन लोग अब नहीं है आप सब भी एक ठहरे और एक तरह से ठहर चुके लोग है। लेकिन उन बेचेनीयों को कुरेदने की लिखने की बात है,जो बोलने की बात है, वो लगभग अब समाप्त हो गई है और वो इसलिए भी कि आप कोई भी टेलिविजन खोलिए वही आदमी है मैं समझता हूँ मैं हैरान हूँ उस एंकर कि क्षमता पे भी और उन चार प्रवक्ताओ पे भी कि कितने जल्दी से वे भारत के सभी विषयों पे वे कैसे बोल लेते है। और कैसे अंतिम सवाल पुछ लेते है। तो ये मैं बादल नहीं सकता जो कि ग़म-ए-रोजगार कि ये नियति है वो आप के पास भी है वो मेरे पास भी। मैं कर रहा हूँ। लेकिन मैं आपको बता दे रहा हूँ। कि मैं आपको बहुत श्रद्धा कि नज़र से नहीं देखता कि आप टीवी देखते है मैं यही पूछता हूँ ये कौन लोग है जो टीवी देख रहे है? और क्यो देख रहे है? मेरा तो एक कारण है कि मेरा तो एक रोज़गार है। और आपका क्या कारण है मुझे ये समझ नई आय और इस बात से मैं पागल हुए जा रहा हूँ। जो आदमी ज्सिकी हर सांस टीवी से चलती हो उस आदमी के घर मे अगर टीवी नहीं चलता है, क्या वो सिर्फ दुखी हो गया है? इतना दुखी इंसान तो नहीं हूँ मैं। इतना दुखी इंसान नहीं हूँ।

                      तो पत्रकारिता जो हैं वो एक प्रदर्शन का विकल्प बन कर रह गई है। तो आप भी लगभग और उस प्रदर्शन का विकल्प बनने का लाभार्थी मैं हूँ। इसमे कोई दम नहीं है। इसमे गलत बात नहीं है क्यूंकी जब एक पत्रकार सेलेब्रिटी बनता है, तो निश्चित रूप से वो पत्रकार अब धीरे धीरे लोगों कि नज़र मे नहीं रह जाता है। बहुत जल्दी आप देखगे कि मैं साबुन के एड मे आ रहा हूँ। क्या करें ! जब पत्रकारिता का काम बंद हो जाएगा तो साबुन कर लेंगे फिर क्या कर सकते है। इतने सारे संत लोग साबुन बनाने लगे है तो फिर किसी पत्रकार का भी साबुन नहा लो भई। मेरे साबुन से नहाने मे आपको क्या दिक्कत है। मैं च्यवनप्राश बनाऊँगा मेरा च्यवनप्राश खाने मे आपको कोई दिक्कत है क्या? इतने लोगो का च्यवनप्राश आपने खा लिया मेरा भी खाइये। अगर मेरे लिखने से कहीं कुछ नहीं हुआ तो मेरे च्यवनप्राश से आपकी सेहत अच्छी हो जाएगी, कम से कम मरते दम तक ये तो सुकून रहेगा कुछ तो , कुछ लोगों को अच्छा कर गया मैं। किसी को तो मैं अच्छा कर के जाऊन दुनिया मे। वो दुनिया जो हम बनाना चाहते थे वो जरूर कुछ बेहतर हुई होगी। हम सब चाहते है आप अपने तरीके कि दुनिया चाहते है। हम अपने तरीके कि दुनिया चाहते है कि कुछ बेहतर हो जाये आने वाले कल से। लेकिन एक मोड पे पाहुच के देखते है कि अरे यार ये तो कुछ हुआ ही नहीं। बल्कि कुछ बदला नहीं चीज़ें आ गई है, गजेट्स आ गए है, साधन आ गए हैं, माध्यम आ गए है। और वो जो सवाल जो तलक सवाल है उनके पूछने कि प्रक्रिया समाप्त हो गई है। मैं चाहता हूँ कि अब पत्रकारों को अब आफ़िसीयली रेकोगनाईज़ड कर देना चाहिए कि ये इस पार्टी के पत्रकार है। ताकि वो दुविधा खतम हो जाये। और वो ठीक है मतलब कई लोग मुझसे कहते है कि मैंने कहा आप चिंता मत करो, मैं इस सम्माज कि हक़ीक़त को न जड़ से जनता हूँ, जिस दिन दलाली करनी होगी बोल के कर लूँगा मैं। गंगा मे डूबने नहीं जाऊंगा मैं। बोल के करूंगा के मैं फोर्चुनर लाया हूँ इत्ता बड़ा, करता हूँ उसकी दलाली।

               जब इत्तने सारे लोग शर्म से डूबकर नहीं मरे। तो शर्म के ड्यूक मरने कि ज़िम्मेदारी या शर्म को उस्की इज्ज़त बचाने कि ज़िम्मेदारी मेरी थोड़ी है। कि मैं शर्म की नाक बचाने खुद डूब के मर जाऊ नहीं तो इस शर्म का लिहाज कल को नहीं करेगा कोई। तो इसकी चिंता नहीं कीजिये वो मैं तनाव दबाव से अपने आपको धीरे धीरे उबरने लगा हूँ। पर है नहु कुछ आप देख लीजिये जो स्पीड न्यूज़ है वो क्या है। वो हर समय एक खबर कि हत्या है। और हर समय एक खबर कि हत्या का समाचार वो आप देखते है मैं नहीं देखता। मुझे तो मालूम नहीं अब टीवी मे क्या होता है। आप जानते होंगे क्या होता मैंने सुना है लोग इस तरह कि बाते करते हैं मैं तो देखता नहीं टीवी। मेरे दिन के किसी भी फालतू कार्यक्रम मे अब टीवी देखने का अच्छा काम नहीं है। अब मैं उसके अलावा कुछ और फालतू काम करता हूँ। हर वक़्त एक सवाल है एक एंकर है जो कभी कसी पार्टी को लेकर बागी हो जाता है। कभी किसी आदमी को लेकर बागी हो जाता है। और हम लगातार भूलते चले जा रहे है, खबरों से दूर है उस हक़ीक़त से दूर है, , एक डॉक्टर को बनने मे पढ़ने मे दस साल लगता है,एमबीबीएस मेरा अपना मानना है कि एक रिपोर्टर को रिपोर्टर बनने मे दस साल लग जाते है, जब वो बहुत लोगो से मिल लेता है बहुत इलाको से घूम आता है, तब जाके उसको पता चलती है ये बात कि रेपोर्टिंग कैसे कि जाती है।अब कोई अपने रिपोर्टर से नहीं जाना जाता। मैं जिस माध्यम से आता हूँ मैं उसकी बात कर रहा हूँ।

                    देखने के माध्यम मे गया तो वहाँ सारे लोग बोल रहे है। तो मैं क्या देखूँ, मैं तो देखने के माध्यम मे हूँ न। तो देखने के माध्यम मे सारे लोग बोल रहे है तो फिर रेडियो चला लीजिये फिर। फिर टीवी क्यूँ है।  बीस पचीस प्रकार के लोग है, कोई नहीं ट्राइबल इशू पर बोलने वाला इस दिल्ली मे। और सारी तकनीक बंद दुकान बंद है तो कोई अगर छत्तीसगढ़ से चिल्लाता भी रहे कि मैं बोल सकता हूँ इस इशू पे तो आपके पास तो वो भी नहीं है , तो भईया आप रहिए वहीं पे। आपकी जगह पे हम दिल्ली से किसी को ले आएंगे वो बोलेगा, ये हक़ीक़त है। एक दर्शक के रूप मे मैं हमेशा पूछता हूँ कि मैं इस सवाल को क्यूँ ढोता रहूँगा कि पत्रकारिता कि ज़िम्मेदारी और उसके सवाल का जवाब पत्रकार दे। आप दीजिये आप खरीदते है अखबार। आप डिकिए न कि आप किस टाइप के दर्शक है किस टाइप के पाठक है। अगर आपको ठीक लगता है तो इसका मतलब कि पत्रकारिता ठीक है तो इसमे फिर प्रोब्लम क्या है? हर समय तो हम नहीं देंगे न। ये एक दर्शक को पूछना पड़ेगा कि कौन चाहता है, क्या आप चाहते है कि पत्रकारिता अच्छी हो। तो फिर आप इस बात के लिए मेरे लिए भी लड़ेंगे न कि ऐसा थोड़ी होगा कि मुझे इस्तीफा देके हेरो नहीं बनना। कहाँ कहाँ तक देते रहेंगे इस्तीफा। आपकी भी ज़िम्मेदारी है कि मेरी रक्षा तो कीजिये, आप वही अखबार खरीदे जा रहे है वही टीवी देखे जा रहे है। कहीं कुछ आप बदलने के लिए तैयार नहीं और हम इस भ्रम मे बागी हुए जा रहे है कि हम आपको बादल रहे है।

               क्या कोई फर्क पड़ना चाइए? मुझे लगता है कि अगर बातों से , घटनाओ से अगर फर्क, नहीं पड़ता है। तो आपको कंस ए कम पत्रकार तो नही होना चाइए था। मैं दादरी गया था। और सही है कि हर घटना पे उतना विचलित नहीं होते है। लेकिन जब मैं वह से लौट के आ रहा था तो उस रास्ते से लौटते हुए बदलपुर चला गया मैं। वहाँ जो अंबेडकर कि मूर्तियाँ लगी हुई है तो किसी के घर से खड़ा होकर देखने लगा मैं। लेकिन फिर भी उस घटना कि और उस दादरी के गाँव मे जो मिल के असर हुआ मैं गाड़ी मे बैठते बैठते बहुर सिरियस बीमार पड़ गया। इत्ता बीमार पड़ा कि मैं ऑफिस नहीं गया मुझे, आमतौर पे पेटदर्द और उल्टी क्या चीज़ होती है मुझे नहीं मालूम। इन सब का मुझे अनुभव है बिना च्यवनप्राश खाये। लेकिन मुझे उल्टी हुई, और घर जाकर मैं सोफ़े पे लेट  गया। मुझे लगा सबसे बीमार आदमी मैं ही हूँ, मैं ऑफिस नहीं गया उसके न्बाद से। मेरे कई दोस्त मुझे फोन करके डांटने लगे के तुमने कोई ठेका ले रख है , मैंने कहा-मैंने कोई ठेका नहीं ले रखा है, वहाँ कोई पचास लोग मेरे अलावा और भी गए थे। और मैं भी अपने आज के दिन ले लिए ही रेपोर्टिंग करने के लिए गया था कि मुझे वो बहस नहीं करनी थी। लेकिन आप अगर अपने समाज कि भीतर कि असहिस्नुता को देख कर विचलित नहीं होते है उससे ओरभावित नहीं होते है,इसका मतलब आपमे कुछ गड़बड़ी है। आप कम से कम योगा तो जरूर कर लीजिये आप। आपके पास सोश्ल मीडिया है, टिवीटर है, साहिस्नुता, असहिस्नुता का जितना मज़ाक उड़ना चाहते है उड़ा लीजिये।

                ये जो समूह बनाते है ये लोग मज़ाक उड़ाने वाले मे से, उसी मे से आपको जब निजी तकलीफ होगी न,तो वो लोग वैसे ही हसेंगे और आप अकेले पड जाएंगे। ऐसे मैंने देखा है तो ये जो नज़रिया बनता है। उसमे शामिल मत होइए आपके पास बहोत ताकत है। आप पूछिये हमसे के आप 84 मे थे के नहीं, अब मेरी क्या गलती थी कि हम तो स्कूल मे थे,हमको तो छड्डे मे छोड़ के जाके रेपोर्टिंग लार देना चाहिए था वहाँ से। हमे थोड़ी पता था के 2015 के साल मे अगर 84 से य साल नहीं सीख रहा है तो 2015 के साल मे जाके दादरी कर देगा। तो मैं 84 मे भी जाके रेपोर्टिंग कर देता। भले लिखना नहीं सीखा था तो। तो इस तरह से हमले हो रहे है और मैं देखता हूँ के समाज के लोग कम से कम लिखने बोलने वालों की तरफ आते नहीं है। उसके बचाव मे नहीं आते है। ये अच्ची बात है आपकी जो ज़िम्मेदारी है वो निभाये मैं कहता नहु हु। मैं तो सिर्फ पुच रहा हूँ और बता रहा हूँ। मुझे अकेले चलने मे कोई फर्क नहीं पड़ता मैं चल लेता हूँ। इन गुमनामियों से कोई दर नहीं लगता है। जो शोहरत है वो आणि जानी है, वो कोई मकान तो है नहीं के हम बना लेंगे। मकान भी बना लेंगे तो फिर क्या पता के कब आकार मकान के उपर से फ़्लाइओवर बन जाये। तो कुछ भी स्थायी तो नहीं हगाई। लेकिन फर्क पड़ता है कुछ चीज़ें है जहां मैं समझोटा नहीं कर सकता। अगर वहाँ समझोता कर लिया तो मुझे सचमुच फॉरचूनर खरीदने के उपायों के बारे मे जल्दी सोचना चाहिए। क्यूंकी वो गाड़ी बनी है उसका भी सुख भोग लेना चाहिए अगर आप मे इतना है तो। इसलिए फर्क पड़ता है कुछ सवाल है भले अगर आप कर पाये या न कर पाये।

              लेकिन फर्क ही नहीं पड़ता के आपके शहर मे किसी को घेर के मार दिया जाता है आपके शहर मे किसी को इस बात के लिए ढेला मार दिया जाता है कि एक खास समाज से आता है। और वो हेलमेट लगा के बारात ले के जाता है। अगर इस तस्वीर को देख के हमारा देश का समाज विचलित नहीं होता है, तो मुझे बहुत तकलीफ है उस समाज से, मुझे उस समाज से कोई सहानुभूति नहीं है। मुझे समझ नहीं आता कि मैं क्या करूँ के इसे छेड़ दूँ। क्या ये जहां बैठा है उसके सीट मे कांटे बिछा दूँ, क्या करूँ। के  ये उछल के नाचने लगे।  किसी को ये क्यूँ सामान्य लगती है के अचानक ऐसी खबरे आती है और वो गायब हो जाती है। बहुत सारे लोगो को तरह तरह से धमकाया जा रहा है आप अपनी अपनी राजनीतिक निष्ठाओं का सेवन करते रहिए और उस अंडे से जो मुर्गी निकलेगी उससे अपना व्यापार बढ़ा लीजिएगा। लेकिन ये जो अपना नुकसान कर रहे है। अपना बचाव नहीं कर रहे है। मौत किसी एक आदमी कि होगी। ये सब जो घेरा घेरी हो रही है है ये इसलिए हो रही है कि हमने जनमत का ऐसा प्लैटफ़ार्म बनाया है जहां सिर्फ शोरगुल है मारो मारो कि आवाज़ आती है। हर डिबट शो से वो मारो मारो कि आवाज़ आती है तुम चोर हो। तुम चोर हो। तार्किकता, बोधिकता, यहे सारी चीज़ें कहाँ चली गई, हर गंभीर घटना को सिम्पल सवालों मे बदलके 5 लोग आ जाते है उसी मे फेटा-फेटी कर लेते है। वो रेपोर्टिंग का जो विकल्प है वो पत्रकारिता का तो विकल्प नहीं है। दुखद है क्या किया जा सकता है। किसी को जलाने किसी को दुखने के लिए खबर लिखी जा रही है।

           खबर कि खोज नहीं हो रही है कि क्या करना है। वर्ण ये गूगल से निकाल निकाल के उसी दही का एक मट्ठा और उसी मत्थे के एक पचरंगा आचार कि तरह बिक रहा है। बहुत कम टेलिविजन मे रेपोर्टिंग के कार्यक्रम राग गए है। और वो भी सारा स्क्रिप्ट का कमाल है शब्द का। जो लोग साहित्यकार नहीं बन आए उनकी अछि भाषा का कमाल है। ये कोई संकट कि स्थिति नहीं है मैं ये कोई संकट बयान नहीं कर रहा हूँ मैं ये बता रहा हूँ इसमे सब कोई खुश है। रोज़ ऐसे फोन आ रहे है जिसमे बताया जा रहा है लोग सताये जा रहे है तरह तरह से व्यवस्था के जरिये और उनकी आवाज़ कहीं नहीं पाहुच रही है। हम इस समाज को निराशा , बेचनी से भर रहे है, जो कहाँ जाकर किस रूप मे फूटेगी हम नहीं जानते है। आप अखबारों के हेयद्लिने उठाकर देख लीजिये तो कैसे पार्टियों के नज़रिये से लिखे जा रहे है। अचा हो गया है सांप्रदायिक होना। माने पढ़ाई लिखाई सब बेच आए है क्या?सोचना सब बंद कर दिये है क्या। किसी से आप किसी कारण को लेकर नफरत करते है वो कैसे अच्छा होता है। किसी बात कि तूक होनी चाहिए न। आप कारण दे रहे हो न क्या जायज़ कारणो के आधार पे आप किसी से नफरत कर सकते है क्या। फिर तो हिंसक समाज को मान्यता दे रहे है।

(यूट्यूब से साभार)

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