गिरते-गिरते क्या छोड़ गया…गौरांग ?

Shri Mi
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edit_sidhiबिलासपुर। बीते कई दिनों से शहर मे एक डेथ मिस्ट्री को लेकर चल रही हल-चल के बाद हो सकता है कि कोई किसी नतीजे पर पहुंच गया हो…और हो सकता है कि कई  लोगों को अभी भी किसी नतीजे का इंतजार हो…। हवा में सवाल बहुत से तैर रहे हैं…। लेकिन इस केस में इस बात पर कोई  शक / सवाल नहीं ही है कि शहर के एक नौजवान की मौत हुई है..। एक माँ-बाप ने अपना बेटा खोया है..। एक बहन ने अपना भाई  खो दिया है…। और नशा या नशे की जगह भी इस अप्रिय घटना के लिए कहीं-न-कहीं जिम्मेदार है….। पुलिस की कहानी पर चलें या शहर की फिजां में तैर रही तरह-तरह की कहानियों को सुनें तो दोनो जगह यह बात कॉमन नजर आती है। सीढियाँ उतरते-उतरते मौत के दरवाजे तक पहुंचे- गौरांग ने  जो कुछ सवाल छोड़े  है , उसके जवाब मिलेंगे या नहीं  ? यह आने वाले कल पर छोड़ा जा सकता है। मगर अब जो कुछ हो रहा है उसकी दिशा तय करते समय यह सोचना भी जरूरी लगता है कि अब सियासत नहीं शहर की हिफाजत के लिए कुछ सोचा जाना चाहिए…..। चूँकि सियासत की सुमधुर बाँसुरी की धुन में शहर पहले से ही नींद मे गाफिल है…अब तो जागकर व्यवस्था को दुरुस्त करना ही एक रास्ता है…। गौरांग जाते-जाते इस रास्ते की ओर इशारा भी कर गया है।
                                       IMG-20160722-WA0052यह शहर के पुलिस-प्रशासन , नेता, पेरेन्ट्स और आम आदमी सभी की ओर इशारा है कि शहर की हिफाजत के लिए आगे आना होगा। बने तो इकट्ठे होकर औऱ ना बने तो यह अकेले में भी हो सकता है कि चाहे जिस भूमिका में हों अपने आस-पास ही गौर कर लें तो अपने शहर की अमन- चैन पसंद पहचान और पुरानी विरासत की हिफाजत  हम खुद ही कर सकते हैं ।  जो शहर कॉस्मोपोलिटन शक्ल में हर आने-जाने वाले को दिलो-दिमाग पर बस जाता था, वह किधर जा रहा है..? जहाँ मोहल्लों के चौगड्डे पर हंसी ठिठोली की बातें होती थी- वहां अब किसी की मौत , किसी मर्डर मिस्ट्री या किसी हादसे से जुड़े किस्से सुने और सुनाए जा रहे हैं। भले ही अब चर्चा की जगह बदल गई है…..। तिगड़्डे-चौगड्डे की जगह अब सामाजिक-पारिवारिक-डिपार्टमेंटल-पर्सनल मीडिया यानी मोबाइल पर चर्चाओँ ने उड़ान के लिए नया आकाश ढूंढ़ लिया है। जो आसमान  की तरह बिना सरहद के छाया हुआ है। न कहीं खम्भा है औऱ न सीमेंट-कांक्रीट की दीवार …….. पता नहीं यह आकाश किस बेस पर टिका हुआ है….?
                                गौरांग की मौत के बाद आपसी चर्चाओँ में जिन बातों को उड़ने के लिए पंख लग गए, उनमें पुलिस कार्रवाई पर संदेह से लेकर शराब और नशे के दूसरे अड्डों के  देर रात खुले रहने तक बहुत सी बातें हैं…। बाते  ऐसी भी हैं कि शहर के नौजवानों में नशे की लत बढ़ती जा रही है और घर वालों से लेकर व्यवस्था के जिम्मेदार  लोगों तक सभी बेपरवाह बने हुए हैं…..।कामन मेन भी इतना समझ ले रहा है कि अगर बार देर रात खुला नहीं होता..अगर पुलिस-प्रशासन-एक्साइज अपनी ड्यूटी ईमानदारी से निभाते रहते…..अगर गौरांग और उसके दोस्त देर रात तक घर से बाहर नहीं होते…….अगर नशे का कहर नहीं होता..उनके अंदर घर- परिवार-समाज का थोड़ा लिहाज होता… और अगर समय पर मॉल की लिफ्ट सामने होती सीढ़ी की बजाय लिप्ट से उतरना होता …तो …तो न गौरांग को अपने परिवार से दूर जाना होता और न आज वह सब होता जो आज हो रहा है…। यह दुनिया छोड़ते हुए गौरांग भी शायद यही इशारा कर गया है कि बातों-बातों में आ रहे “अगर-मगर” को परमानेंट डिलिट करने के लिए सभी को कुछ करना पड़ेगा…।अगर नशे के खिलाफ और नई पौध को गलत रास्ते पर जाने से रोकने के लिए हर-घर में सजगता हो जाए तो और थोड़ी सी फिकर अपने शहर की पुरानी विरासत की भी कर लें तो अभी भी बहुत कुछ हो सकता है..। इतना कुछ हो सकता है कि नगर निगम के बनाने से पहले ही अपना शहर स्मार्ट हो जाएगा……। वक्त बदला है- अब नई पीढ़ी अपना अच्छा या बुरा जो चाहती है, उसे तुरत हासिल कर लेना चाहती है…..समाज का नियंत्रण रहा नहीं…परिवार का भी नियंत्रण कमजोर पड़ता जा रहा है..।
                                 आज के नौजवान को चौबीस घंटे पूरी दुनिया से जोड़ रखे- मोबाइल की एक गजब खासियत है कि उसमें क्या चल रहा है- पड़ोस में बैठे शख्स को भी इसकी हवा नहीं लग पाती। फिर भी उन्हे गैरजिम्मेदार बताते समय सोचना पड़ेगा कि हम कैसा भविष्य गढ़ रहे हैं। यह  उपदेश नहीं जिम्मेदारी की बात है कि जिसके हिस्से में जो कुछ है , उसे पूरा करे । गैरजिम्मेदारों की फौज को जिम्मेदार बनाने की जिम्मेदारी आज की पीढ़ी निभाए।
                                    एक अहम् सवाल यह भी है कि ऐसे मामलों मे पुलिस-प्रशासन क्यूं शक के दायरे में है। लॉ एण्ड- आर्डर के साथ ही आम आदमी कि हिफाजत जिस पुलिस सिस्टम के भरोसे है, उसके काम पर ही अगर शक होने लगे सिस्टम पर से ही भरोसा टूटने लगे तो फिर सिस्टम कहां रहेगा  ? यह भयावह है और इससे उबरने के लिए दोनो तरफ से कदम आगे बढ़ाने की जरूरत नजर आती है…। हालांकि पुलिस के काम पर सवाल उठने की वजह साफ है कि सुशील पाठक हत्याकांड से लेकर राहुल शर्मा- राजेन्द्र तिवारी तक कई मामले हैं। जिसमें नतीजे तक पहुंचने की जिम्मेदारी जिन पर है,-वे पता नहीं अपने नतीजे तक पहुंच पाए या नहीं। लेकिन मौका-ए- वारदात से काफी दूर बैठकर उस वारदात को तमाम मीडिया की नजरों से देखने वाला आम आदमी तो इन मामलों में खुद को किसी नतीजे पर नहीं पाता। भरोसा टूटने की एक बड़ी वजह यही है। औऱ भरोसा कायम करने की जिम्मेदारी पुलिस प्रशासन पर ही है। जिसके काम-काज पर उठे संदेह की वजह से विश्वास का यह पुल नीचे झूल गया है। ऐसे में इस सवाल पर व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों को गौर करना पड़ेगा कि जब हर एक आदमी को पुलिस शक की नजरों से नहीं देखती तो हर आदमी पुलिस को शक की निगाहों से क्यूं देख रहा है ? गौरांग मामले में भी क्यूं सभी पक्ष पुलिस की कार्रवाई से असंतुष्ट हैं….? इस खाई को पाटने पुलिस प्रशासन के जिम्मेदार अफसर शहर-समाज के लोगों से बेतकल्लुफ मुलाकात-संवाद तो कायम करें। अभी भी बात बन सकती है। व्यवस्था का दोष अगर दिख रहा है तो दोनों पक्ष की हिस्सेदारी के बिना उसे सुधार पाना मुश्किल ही है।
                               शहर जाग रहा है और व्यवस्था के सुधरते तक जागता रहेगा – यह जताने के लिए जनदबाव जरूरी है । यह दबाव पुलिस-प्रशासन,नेता, समाज-घर-परिवार-नौजवान सभी महसूस करें। यह शहर तो कस्बाई रंगों को समेटे एक-दूसरे की पहचान को हमेशा जवाँ रखने वाला शहर है..। वक्त भले ही सब-कुछ बदल देने की जल्दबाजी में हो। लेकिन पुल की डोर अभी सिर्फ नीचे झुकी है टूटी नहीं है….। डोर फिर से तन जाएगी…। पुलिस-प्रशासन भी कुछ नीचे उतरकर समाज के इस रंग में घुलने की कोशिश तो करे । दूरियां ही नजदीकियां बन सकती हैं….।लगता है – “सीढियों” से नीचे गिरते हुए गौरांग यही संदेश छोड़ गया है..।
By Shri Mi
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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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