जंगल में लूटतंत्र (मंत्रणा 8)

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जंगल में लूटतंत्र—43, अंतिम किश्त ) ( सीजी वाल पर भी उपलब्ध ) 

मंत्रणा…8

ब्रम्ह की अखंडता व जगत के भ्रम को समझाने के लिए जामवंत ने कहा- राजन्, इस भ्रम को ज्ञानीजन रस्सी और सांप का उदाहरण देकर समझाते हैं, वे बताते हैं कि सूर्यास्त के बाद अंधेरा होते होते एक व्यक्ति किसी दूसरे व्यक्ति के घर में प्रवेश करता है, एकाएक उसे उस घर में लटकी हुई रस्सी दिखाई देती है, अकस्मात नजर पड़ने से उसे रस्सी के सांप होने का भ्रम होता है, भ्रमित होते ही वह भयाक्रांत होकर भागने लगता है।

यहां उस व्यक्ति के भ्रमित होने से रस्सी सांप नहीं बन जाती, वह रस्सी ही रहती है, परन्तु भ्रम के कारण वह उस व्यक्ति को सांप की तरह दिखती है। एक दूसरा व्यक्ति जब उसे बताता है कि जिसे तुम सांप समझकर भाग रहे हो, वह सांप नहीं रस्सी है। सत्य सामने आते ही भागते हुए पहले व्यक्ति का भ्रम टूट जाता है, उसे सर्प की जगह स्पष्ट रूप से रस्सी दिखाई देने लगती है। 


हे राजन, दार्शनिकों के अनुसार उस भयाक्रांत मनुष्य की तरह ही जीव को इस जगत के अस्तित्व का भ्रम हो गया है। वे बताते हैं कि यह संसार जिसमें हम रहते हैं, आते जाते, खाते पीते, मौज मस्ती करते हैं, कभी हंसते हैं तो कभी रोते हैं, कभी कुछ पाते हैं तो कभी कुछ खोते हैं, वास्तव में इसका अपना कोई अस्तित्व ही नहीं है।


यह मूल रूप से (रस्सी की तरह) ब्रम्ह ही है। भ्रम के कारण यह हमें (सांप की तरह) संसार नजर आता है, इसलिए हम वैसा कार्य व्यवहार करते ( सांप समझकर भागते) हैं। अज्ञान के दूर होते ही जिस दिन भ्रम टूट जाता है, उसी दिन इसकी वास्तविकता ( यह रस्सी ही है, सांप नहीं) समझ में आ जाती है। 

जगत के भ्रम को समझाने के लिए दार्शनिक एक और तर्क प्रस्तुत करते हैं, वे कहते हैं कि यह जगत जाग्रत अवस्था का स्वप्न है। 

राजा ने कहा- वह कैसे ? 
जामवंत ने कहा- राजन्, जिस तरह हम नींद में सपनों की दुनिया में खोए रहते हैं, स्वप्न में कभी परियों के देश जाते हैं, कभी पहाड़ पर चढ़ते हैं, कभी खाई में गिर पड़ते हैं, कभी रोते हैं तो कभी हंसते हैं, स्वप्नावस्था में हमें वह दुनिया सत्य प्रतीत होती है, हमें यह आभास भी नहीं होता कि हम स्वप्न देख रहे हैं, जैसे ही हम जागते हैं, सच सामने आ जाता है, हमें पता चल जाता है कि हम स्वप्न देख रहे थे। 

दार्शनिकों का तर्क है कि स्वप्नावस्था में स्वप्न अगर तथ्य हो सकते हैं, तो जाग्रत अवस्था में तथ्य स्वप्न क्यों नहीं हो सकते… जिस तरह स्वप्नावस्था में सपनों का संसार सत्य प्रतीत होता है, उसी तरह जाग्रत अवस्था का यह संसार भी सत्य प्रतीत होता है, परन्तु होता यह स्वप्न ही है, क्योंकि इस अवस्था में सामने आने वाले तथ्यों के स्वप्न नहीं होने का कोई प्रमाण नहीं हैं, जिस तरह इनके अस्तित्व में आने और विलीन होने का आभास होता है, उससे इनका स्वप्न होना ही सिद्ध होता है। 

दार्शनिकों के अनुसार यह जाग्रत अवस्था अज्ञान रूपी रात्रि है, इसमें सोया हुआ जीव संसार रूपी स्वप्न में खोया रहता है। अज्ञान दूर होते ही उसकी नींद खुल जाती है, जागते ही वह जान जाता है कि जिसे वह सत्य समझ रहा था, वास्तव में वह मिथ्या था। 


ज्ञानियों का कहना है कि व्यक्ति को जब सत्य का ज्ञान प्राप्त होता है, तो उसका अहंकार समाप्त हो जाता है, वह स्वार्थ का पूर्ण त्याग कर टुकड़ों में विभाजित इस संसार को एक ब्रम्हरूप में देखने लगता है। हृदय में प्रेम का सागर लहराने से पूरा संसार उसे अपना दिखाई देने लगता है, उसके लिए कोई पराया नहीं रह जाता है। 

राजन्, जिन्हें यह ज्ञान प्राप्त हो जाता है, वे समझ जाते हैं कि इंद्रियों के जिस संसार के पीछे के पीछे सभी दौड़ रहे हैं, वास्तव में उसका अस्तित्व ही नहीं है, आधारहीन यह संसार, सत्ता और संपत्ति सिर्फ झलक दिखलाने के लिए है। यह संसार देखते ही देखते उड़ जाता है, इनके पीछे भागने वाला शरीर भी नष्ट हो जाता है, इसलिए इनके पीछे भागना, अनैतिक कर्म करना, दूसरों को लूटना व्यर्थ है। 

राजन्, ज्ञानियों के मन में सभी के लिए प्रेम, दया और करुणा उत्पन्न हो जाती है। वे अपने लिए नहीं, दूसरों के लिए जीने लगते हैं। वे सभी के बीच रहकर अपनी सेवा भावना, कार्य व्यवहार, कला, साहित्य के सृजन से ज्ञान की तरंगे प्रवाहित करते रहते हैं, ताकि अज्ञान के बादल फटते रहें और दूसरों को थोड़ा सा ही सही, ज्ञान का प्रकाश मिलता रहे। 

अतः राजन्, भारत के विचारवानों को इन संपूर्ण तथ्यों पर विचार कर राष्ट्रीय मानस में नैतिकता का विचार जागृत करना होगा, ताकि मार्ग से भटके हुए लोग सन्मार्ग पर चलें, इसी से इस राष्ट्र का सच्चा विकास होगा। 


हे राजन्, आप और इस नंदन वन के वन्यप्राणी भाग्यशाली हैं, जिन्हें अनायास ऋषि प्रसाद से विचारवान होने का अवसर प्राप्त हुआ है। वर्तमान में यहां के वन्यप्राणियों को भी ज्ञान प्राप्ति की प्रेरणा देना ही उचित है। अतः उन्हें कष्ट भोगते हुए सादा जीवन जीने दीजिए, इससे ही उनका भला होगा। 


ज्ञान चर्चा से सिंह के सारे संशय और भ्रम दूर हो गए, वह शांत मुद्रा में बैठ गया। जामवंत ने कहा- राजन्, अब आप विश्राम कीजिए और मुझे भी आज्ञा दीजिए। वन्यप्राणियों ने बहुत दिनों से आपके दर्शन नहीं किए हैं, कल सुबह वे आपके दर्शन करने आएंगे…राजा से विदा लेकर ज्ञानी जामवंत अपने ठिकाने की ओर प्रस्थान कर गए..

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