तुम “ख़ामोश” नहीं हो सकते मनीष दादा…….

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( रुद्र अवस्थी ) चेहरे पर अपनापन…… होठों में हल्की सी मुस्कान और आंखों से झलकता प्रेम…. जब भी मुलाकात होती बस इसी  तरह के एहसास के साथ मुलाकात होती……. ऐसी मुलाकात अब कभी नहीं होगी…..।  लेकिन इस तरह मिलने वाले मनीष दत्त (  दादा )  से अब मुलाकात कभी नहीं होगी …… । वह हम सबका साथ छोड़ कर दुनिया से अलविदा कह चुके हैं । उनका जाना एक ऐसे कलाकार का जाना है….  जिसके अंदर कला जीवित रहती थी और एक अकेले कलाकार के अंदर इतनी विधाएं एक साथ जीवित थीं,  जिन्हें उनसे मिलकर हर समय महसूस किया जा सकता था। आमतौर पर दुनिया से जाने वालों के बारे में …. और खासकर कला की दुनिया से जुड़े लोगों के निधन पर कहा जाता है कि एक आवाज “खामोश” हो गई । लेकिन मुझे लगता है कि मनीष दादा के रूप में जो कला और कलाक़ार की एक आवाज थी…. वह कभी खामोश नहीं हो सकती….।  यह आवाज़  हमारे…. हम सब के आसपास हमेशा गूंजती रहेगी और उनसे जुड़े तमाम लोगों को एहसास कराती रहेगी कि कला- संस्कृति को बनाए रखने …..बचाए रखने के लिए अभी काफी कुछ करना है । “काव्य भारती”  के रूप में जो विरासत मनीष दादा छोड़ गए हैं,  उसे जिंदा रखना और लोगों को उसके साथ जुड़े रखना है।

बिलासपुर -मुंगेली मेन रोड पर स्विमिंग पूल के सामने से जो रास्ता नेहरू नगर की ओर जाता है , उसमें कुछ दूर आगे जाने के बाद बाईं ओर एक पुराने से मकान में मनीष दादा से जब भी मुलाकात हुई ,हमेशा लगता जैसे प्रेम  – वात्सल्य उनकी आंखों में छलक रहा है। बातचीत में पूरा अपनापन……. और संबोधन कुछ इस अँदाज़ में होता कि….. “तेरे को कब से बोलते चले आ रहा हूँ….तू ऐसा क्यूं नहीं कर लेता….” ?   हमेशा उनकी टेबल पर अखबारों -पुरानी फाइलों और गर्द -गुबार से भरे कागजों का अंबार लगा होता । सामने पुरानी कुर्सी में बैठ कर अपने खास अंदाज में प्रेम पूर्ण मुस्कान के साथ वह बहुत तीखी बातें भी कह जाया करते थे । कला – संस्कृति को लेकर समय के साथ चलते रहने की ललक उनके अंदर थी।  पूरी तरह सफेद हो चुके घने बालों के बीच़ उभरे हुए चेहरे में इस बात का दर्द हमेशा झलकता था कि कला – संस्कृति को बचाने की जिम्मेदारी संभालने वाले लोग किधर जा रहे हैं…..?  उन्होंने अक्सर मुलाकातों में इस बात का जिक्र किया कि बिलासपुर कला के क्षेत्र में काफी धनवान रहा है।  वे अक्सर जिक्र करते थे किस तरह शहर में नाटक खेले जाते थे और लोग नाटक तैयार करने में अपना समय देते थे ।  देखने वाले भी इसी तरह उत्सुक रहते थे । उन्होंने इस बात का भी जिक्र किया था कि बिलासपुर में नाट्य कला से प्रभावित होकर स्वर्गीय पृथ्वीराज कपूर भी अपना नाटक लेकर बिलासपुर आए थे और खचाखच भरे हॉल में अपने नाटक का प्रदर्शन किया था । दादा नाटक और नाट्यकला  कला से जुड़े लोगों के ‘इनसाइक्लोपीडिया’ की तरह थे। जो एक-एक कलाकार के बारे में जानते थे और उन्हें जोड़े रखने की कोशिश में हमेशा लगे रहते थे । उन्हें इस बात का भी दर्द था कि बिलासपुर में नाट्य मंच बनाने के लिए प्लानिंग की गई तो इस बारे में संस्कृति कर्मियों की राय नहीं ली गई ।

अखबार में शहर की धर्म कला संस्कृति के क्षेत्र में काम करते हुए मैने कई बार उनसे मुलाकात की और शहर में नाटकों के इतिहास के बारे में उनसे लंबी बात की । उन्होंने काफी समय दिया और मुझे कई लोगों से मिलवाने भी ले गए । तब बहुत सी पुरानी बातें सामने आईं।  मनीष दादा  संस्कृति और कला के क्षेत्र के अद्भुत मनीषी थे । उन्होंने हिंदी साहित्य के बड़े-बड़े कवियों की रचनाओं को गीत के रूप में ढालने का बीड़ा उठाया था। आज के दौर में यह कल्पना करना भी कठिन लगता है कि आज से करीब 40 साल पहले जिस समय एलपी रिकॉर्डिंग का जमाना था।  उन्होंने अपनी बनाई धुन पर स्थानीय कलाकारों के गीत रिकॉर्ड कराए।  अपनी इस धुन को याद करते हुए मनीष दादा ने एक बार बताया था कि वह जब भी कोलकाता जाते तो रिक्शे वाले को भी रविंद्र संगीत गुनगुनाते हुए सुनते थे । तब उन्हें लगा था कि अगर किसी कवि की रचना को गीत संगीत में ढालकर पेश किया जाए तो वह आम आदमी की जेहन में भी उतर सकता है । शायद अपनी इसी कल्पना को साकार करने के लिए उन्होंने देश के ख्याति नाम कवियों की रचना को अपने संगीत में ढाला ।  एक बार उनसे बात करते-करते कवि हरिवंश राय बच्चन की इन पंक्तियों पर भी चर्चा हुई ,जिसमें उन्होंने लिखा था किः-

  छप चुकी मेरी किताबें पूरबी औ पश्चिमी दोनों तरह के अक्षरों में,

  औ सुने भी जा चुके हैं भाव मेरे देश और परदेश दोनों के स्वरों में,

  पर खुशी से नाचने को पाँव मेरे,

  उस समय तक है नहीं तैयार जब तक,

  गीत मैं अपना नहीं सुनता किसी गंगा जमन के तीर फिरते बावले से…..

इन पंक्तियों को याद करते हुए मनीष दादा सोचते थे कि कवि की रचना तभी जीवंत और हो सकती है जब वह लोगों की जुबान पर आए । इसे ही ध्यान में रखकर उन्होंने 80 के दशक में हिंदी के साहित्य गीतों को स्वरबद्ध और नृत्यबद्ध कर प्रस्तुत करने की शुरुआत की । जिसमें उन्होंने जयशंकर प्रसाद ,सुमित्रानंदन पंत ,जायसी, महादेवी, निराला, नीरज, बच्चन आदि की रचनाओं को पेश किया था । 1977 में मनीष दत्त ने सुमित्रानंदन पंत को एक चिट्ठी लिखकर बताया कि उन्होंने रश्मि बंद के कुछ गीतों को “विश्व नीड़” शीर्षक से संगीत निरूपक बनाकर प्रस्तुत किया है । उन्हें चिट्ठी का जवाब दिसंबर 1977 में मिला और पंत जी ने मनीष दत्त के इस अभिनव प्रयास की बड़ी तारीफ की । इससे खुश होकर मनीष दत्त 1977 में ही महादेवी निराला और पंत जी की रचनाओं को रिकॉर्ड कर उन्हें सुनाने के लिए इलाहाबाद गए ।जब वे इलाहाबाद पहुंचे तो पता चला कि पंत जी का देहावसान हो गया है और उसी दिन उनकी अंत्येष्टि हुई थी । निराशा तो हुई । लेकिन उनकी मुलाकात जयशंकर प्रसाद जी के सुपुत्र रत्न शंकर प्रसाद से हो हुई । इसी दौरान मनीष दत्त की मुलाकात महादेवी वर्मा से हुई । उन्होंने अपने संगीतबद्ध गीत भी सुनाएं । महादेवी वर्मा भी यह जानकर बहुत खुश हुई थी । इलाहाबाद से लौटकर मनीष दत्त ने 1978 में “काव्य भारती” कला संगीत मंडल की विधिवत स्थापना की । जिसने बहुत से कलाकारों को आगे बढ़ने का मौका दिया ।

मनीष दादा कला और संस्कृति को आगे बढ़ाने की दिशा में हमेशा आगे की सोचते थे । इसका अंदाजा इस बात से लगाया जा सकता है कि उन्होंने निराला, मुकुटधर पांडे आदि कवियों की रचनाओं पर सुपर 8 मिलीमीटर चलचित्र का निर्माण भी काव्य भारती की ओर से किया । 1987 में काव्य भारती का “अमर बेला” ग्रामोफोन रिकॉर्ड तैयार हुआ । उन्होंने काव्य भारतीय काव्य संगीत अकादमी की स्थापना की । इसकी स्थापना 10 मई 1980 को सुप्रसिद्ध गिटारिस्ट सुनील गांगुली के कर कमलों से हुई थी।  इस संस्था के बच्चों को काव्य गायन, काव्य नाटक ,काव्य नृत्य मंचीय विज्ञान का प्रशिक्षण देकर उनकी प्रायोगिक और लिखित परीक्षा ली जाती थी । इसका सर्टिफिकेट भी उन्हें दिया जाता था । यह पाठ्यक्रम स्नातक स्तर तक चलता था और करीब 7 हज़ार  छात्रों ने अपनी स्कूली और महाविद्यालय पढ़ाई के साथ यह परीक्षाएं उत्तीर्ण की । यह कार्यक्रम करीब 15 सालों तक चलता रहा । लेकिन बाद में फंड की कमी के कारण इसे बंद करना पड़ा । वे चाहते थे कि यह पाठ्यक्रम फिर से शुरू हो और बिलासपुर ही नहीं  बल्कि सारे देश भर में इसकी शाखाएं खोली जाएं।  मनीष दादा की महत्वाकांक्षी योजना थी की काव्य भारती विद्यापीठ की स्थापना हो । इस आवासीय विद्यालय में आधुनिक व्यवसायिक पाठ्यक्रमों की भी व्यवस्था हो।  इसके साथ ही यहां पढ़ने वालों को सामाजिक -सांस्कृतिक और बौद्धिक रूप से एक जिम्मेदार और सुसंस्कृत नागरिक के रूप में समाज को प्रदान किया जाए । इस दिशा में लगातार प्रयासरत रहे । उनके पास कैसेट में बहुत सी रचनाएँ रखीं थीं। जिन्हे वे डिज़िटल फार्म में सुरक्षित कर रहे थे। अपनी 80 साल की जिंदगी में वे जो कर सकते थे ,उन्होंने पूरी शिद्दत और ईमानदारी से किया।  मनीष दादा इस फ़ानी दुनिया को छोड़ कर विदा हो गए । लेकिन कला -संस्कृति की दुनिया को उन्होंने जो कुछ दिया है ….वह अभी हम सबके बीच है और हमेशा रहेगा । उनकी आवाज  “खामोश” नहीं हुई है और यह आवाज़ हमेशा एहसास कराती रहेगी कि जो काम दादा अधूरा छोड़ गए हैं उसे पूरा करने के लिए संस्कृति प्रेमियों को आगे बढ़ते रहना होगा।

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