तो लौ बुझ जाएगी !

Shri Mi
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sp_pandey(सत्यप्रकाश पाण्डेय)आज के भौतिकवादी युग में चारो ओर स्वार्थ और मक्कारी का बोलबाला है। पिता-पुत्र हो या भाई-भाई सारे रिश्ते कही-ना-कही स्वार्थ परक को प्रस्तुत करते है। स्वार्थ और मक्कारी के इस दौर में एक शख्स ऐसा भी है जिसने मानवता की मूल भावना को फलीभूत करते हुए ‘वसुधेव कुटुम्बकम’ के सिद्धांत को अपने आप में आत्मसात कर रखा है। वो शख्स आदिवासियों के दुःख में दुखी होता है तो उनकी खुशियों में परम् आनंद तलाश लेता है। कई जगह से सिला हुआ खादी का मटमैला कुर्ता, कुछ उसी रंगत का पायजामा, गले में एक मफलर और कमर तक लटकता कंधे पर टँगा खादी का झोला। ये हुलिया उस शख्सियत की पहचान है जिसका नाम डॉक्टर ‘प्रभुदत्त खैरा’ है।
                                                         pd_kheraकरीब पौने छः फुट और प्रफुल्लित मन के डॉक्टर खैरा गरीबो, आदिवासियों के आर्थिक, सामाजिक और सांस्कृतिक उत्त्थान के लिए पूरी तरह समर्पित है। बिलासपुर से अमरकंटक मार्ग पर ग्राम लमनी [अचानकमार टाइगर रिजर्व] को अपनी कर्मस्थली बना चुके डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा को देखकर यकायक किसी सूफी संत या दरवेश की याद तरोताजा हो जाती है। खादी के कुरते-पायजामे में लिपटा गौर वर्ण का वो शख्स उम्र के नौ दशक पूरा करने को है। 89 बरस के डॉक्टर ‘प्रभुदत्त खैरा’ आदिवासियों के बीच ‘खैरा गुरूजी’ और ‘दिल्ली वाले साहब’ के नाम से पहचाने जाते हैं। आदिवासी अंचल के अलावा उस इलाके से वाकिफ हर इंसान के लिए ये नाम आत्मीयता का पर्याय है। हर रोज सुबह गुरूजी दैनिक नित्य-कर्म से निपटने के बाद लमनी के एक छोटे से होटल में बिना दूध वाली चाय की चुस्की लेना नहीं भूलते। इसके बाद शुरू होता है गाँव की परिक्रमा का दौर, गाँव के हर घर की चौखट पर डॉक्टर खैरा की दस्तक होती है। आदिवासी अपनी सभ्यता-संस्कृति के अनुरूप डॉक्टर खैरा का आत्मीयता से स्वागत भी करते है।
                                                                एक-एक व्यक्ति का हालचाल पूछते डॉक्टर खैरा गांव के नुक्कड़ पर पहुँचते है। इसके बाद पढ़ने-पढाने का सिलसिला शुरू होता है, बिना कापी-पुस्तक के भी डॉक्टर खैरा बच्चो को काफी कुछ सिखाते-बताते है । कपडे सिलकर पहनने, हाथ धोकर खाना खाने की आदत डॉक्टर खैरा बच्चो में डलवा चुके है। डॉक्टर खैरा के कंधे पर टंगे खादी के झोले में चाकलेट,बिस्किट,आंवला,चना और कुछ दवाइया होती है। खेल-खेल में पढाई, फिर झोले से खाने की चीजो को निकालकर गुरूजी सबको थोडा-थोडा हर रोज बाँटते है। जंगल में रहने वालो को आंवला,हर्रा,बहेरा और अन्य वनोषधि के अलावा फल-फूल के महत्व से रूबरू करवाना गुरूजी नही भूलते। जंगल में रहने वाले आदिवासी बच्चो के बीच शिक्षा की अनिवार्यता के मद्देनजर उनकी कोशिश होती है कि उन्हें आज के दौर और ज्ञान-विज्ञान के साथ-साथ प्रकृति की भी जानकारी मिले। डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा का पिछले दो दशक से प्रयास है कि प्रत्येक आदिवासी और उनके बच्चे शिक्षित होने के साथ अपनी संस्कृति और सभ्यता को बचाये रखें।
                                                              आदिवासियों के बीच जिंदगी को एक नई पहचान देने वाले डॉक्टर खैरा की निजी दास्ताँ कम संघर्षपूर्ण नही है। सन 1928 में लाहौर [पाकिस्तान] में जन्मे डॉक्टर खैरा की प्रारम्भिक शिक्षा-दीक्षा लाहौर में ही हुई। सन 1947 में भारत विभाजन का दंश झेल चुका डॉक्टर खैरा का परिवार दिल्ली आ गया। हिन्दू राव विश्विद्यालय दिल्ली से समाजशास्त्र में मास्टर डिग्री और 1971 में पीएचडी की उपाधि डॉक्टर खैरा ने हासिल की। दिल्ली विश्विद्यालय में समाजशास्त्र के प्रोफ़ेसर के रूप उन्होंने अपनी सेवाएं दी। इसी बीच सन 1965 में माता जी के निधन की खबर से डॉक्टर खैरा टूट गए, एकदम अकेले हो गए। माँ के गुजर जाने के बाद अविवाहित खैरा ने फिर जिन्दगी अकेले ही काटने की ठान ली। डॉक्टर खैरा पहली बार सन 1983 -1984 में दिल्ली विश्विद्यालय से समाजशास्त्र विभाग के छात्रों को लेकर मैकल पर्वत श्रृंखला से घिरे अचानकमार-लमनी के जंगलों में आये। यहा की सुरम्य वादियों की गूँज डॉक्टर खैरा के मन-मस्तिष्क में घर कर गई।
                                                              वर्ष 1993 में सेवानिवृति के बाद डॉक्टर खैरा लमनी के जंगल में आकर अति पिछड़े आदिवासियों के बीच रहने की कोशिश में जुटे। शुरुवात के तीन बरस डॉक्टर खैरा के लिए बहुत कठिन थे, आदिवासियों के बीच एक ऐसी मानवकाया रहना शुरू कर चुकी थी जिसका मकसद, काम और बोली अशिक्षित आदिवासियों के लिए भिन्न थी। लेकिन यहाँ के आदिवासियों का भोलापन,उनकी संस्कृति में डॉक्टर खैरा धीरे-धीरे ऐसे घुले की बस यही के होकर रह गये। अब डॉक्टर खैरा वानप्रस्थी के रूप में आदिवासियों के साथ जंगल में जनचेतना का शंखनाद कर रहे है।
                                                           आदिवासियों के शैक्षणिक और सामाजिक उन्नति के साथ उनकी आर्थिक आत्मनिर्भरता के लिये डॉक्टर खैरा अपनी पूरी उर्जा झोंक चुके है। उन्होंने अपने प्रयास से वनग्राम छपरवा में साल 2008 में अभ्यारण्य शिक्षण समिति की नीव रखी जहां आस-पास के करीब 8 गाँवों के आदिवासी बच्चे शिक्षा की जलती अलख में उजाले की तलाश में जुटे हैं। डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासी आज भी विकास से कोसों दूर पाषाणयुग में जी रहे है। उन्हें सरकारें केवल वोट बैंक का हिस्सा मानती हैं, डॉक्टर खैरा के मुताबिक आदिवासियों को अब तब उनके मूल अधिकारों से वंचित रखा गया है। वैसे भी डॉक्टर खैरा की माने तो बीहड़ो में संवैधानिक मूल आधिकारो की बाते सिर्फ बेमानी लगती है। करीब 24 बरस से आदिवासियों के बीच रह रहे डॉक्टर खैरा मानते है की आदिवासी ही जंगलो की सुरक्षा कर सकते है लेकिन सरकारे और वन महकमा आदिवासियों को जंगल से विस्थापन के नाम पर बाहर खदेड़ रहा है। आदिवासियों की संस्कृति और सभ्यता को सरकारें शहरी परिवेश में ले जाकर ख़त्म करना चाहती हैं। खैर, डॉक्टर प्रभुदत्त खैरा की निःस्वार्थ कोशिशे अनवरत जारी है। हालांकि अचानकमार टाइगर रिजर्व बनने के बाद जंगल के उस इलाके की तस्वीर सरकारी महकमें ने काफी बदल दी है।
                                                            डॉक्टर खैरा कहते हैं जंगल में वन महकमें के कानून ने आदिवासियों की जिंदगी के रंग को बेनूर कर दिया है। अचानकमार टाइगर रिजर्व का रास्ता 20 जनवरी 2017 से बंद किये जाने के बाद आदिवासी परिवारों पर रोजी रोटी का संकट भी बढ़ गया है। इधर वन विभाग एटीआर के 19 गाँव विस्थापित करने की तैयारी में है। ऐसे में आदिवासियों के बीच दो दशक से रहकर उनके अधिकारों के लिए संघर्षरत इस मसीहा को सिर्फ न्यायपालिका से उम्मीद है। उन्होंने एटीआर का रास्ता बंद किये जाने के मामले को लेकर छत्तीसगढ़ उच्चन्यायालय में एक याचिका लगाई है। एक उम्मीद है जो टूटी तो संस्कार-सभ्यता और शिक्षा के लिए जलती लौ बुझ जाएगी …
By Shri Mi
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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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