बिलासपुर।रंग-उमंग-तरंग का पर्व होली पूरे देश के साथ ही छत्तीसगढ़ में भी काफी उत्साह के साथ मनाया जाता है। जिसमें रंगों के साथ ही फाग का भी अपना महत्व है। देश के दूसरे हिस्सों की तरह छत्तीसगढ़ में भी फाग की समृद्ध परंपरा रही है। नगाड़ा, मादर,टिमकी और झाँझ-मजीरे की धुन पर गाए जाने वाले इस समूह गीत का रंगों के इस महापर्व के साथ गहरा नाता रहा है। बसंत पंचमी के बाद से गांव-गलियारों -चौपालों में फाग के स्वर गूँजने लगते हैं औऱ होली का त्यौहार नजदीक आते-आते इसकी आवृति बढ़ जाती है।छत्तीसगढ़ी फाग में भक्ति का भी रस है और ऋंगार की भी झलक मिलती है।फाग में कृष्ण की लीला , राम के चरित्र और आल्हा-उदल के किस्से भी समाहित हैं। कबीर – तुलसी के दोहे भी इसमें शामिल होते हैं। सब मिलाकर तरंग कुछ ऐसी उठती है कि फाग गाने और सुनने वाले का मन नाच उठता है।फाग की परंपरा ,सभी तबके के लोगों को एक मंच पर जोड़ती है। इसकी झलक किसी भी गाँव की चौपाल पर देखी जा सकती है।
वक्त ने बहुत कुछ बदल दिया है। इसका असर फाग की परंपरा पर भी नजर आता है। जहां पहले के दौर में होली के करीब महीने भर से चौपाल पर फाग की महफिल जुटती थी। वहां अब यह बात नजर नहीं आती। हुड़दंग – हंगामे और शराब के चलन ने सब कुछ बदल कर रख दिया है। कुछ जगह लोगोँ ने बताया कि चुनावी रंजिश और सियासी होड़ के चलते भी अब लोग एक जगह जुट नहीं पाते। उधर नई पीढ़ी को नगाड़े की बजाय DJ की धुन अपनी ओर खींच रही है। पेशेवर लोगों ने भी फाग के नाम पर वह सब परोसना शुरू कर दिया है, जो इसकी मौलिकता पर ही चोट करते नजर आते हैं। लेकिन ऐसे समय में भी कई गाँव फाग की परंपरा को बचाए हुए हैं। कई जगह तलाशने के बाद CGWALL की टीम को मुंगेली जिले के धरमपुरा गाँव में असली फाग सुनने का मौका मिला। गाँव की चौपाल पर लोग परंपरागत फाग गाते हुए मिले।शाम से शुरू हुई फाग की यह महफिल देर रात तक सजी रही। देख – सुनकर लगा कि गाँव में अब भी असली फाग जिंदा है।एक खासियत यह भी नजर आई कि उनके वाद्य यंत्रों में एक भी वाद्य ऐसा नहीं था , जिसे बजाने में बिजली या बैटरी का इस्तेमाल किया गया हो। सब कुछ सहज-सरल और स्वस्फूर्त…….।गाँव के उमालाल कश्यप और उनके साथियों ने फाग की पुरानी परंपरा और पहचान को आज के दौर में भी कायम रखा है। उनकी कोशिश है कि नई पीढ़ी इससे जुड़े और इसे आगे भी कायम रखे।