देह छोड़ने के बाद भी जिंदगी की एक मिसाल छोड़ गए,दत्तात्रेय-परिजन ने सिम्स को सौंपा शरीर

Chief Editor
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cims_aug_index_11augबिलासपुर(सीजीवाल)।जब तक साँसे हैं, तब तक इंसान की जिंदगी रहती है..यह शाश्वत सत्य है। लेकिन अगर इँसान देह दान कर दे तो सांसे टूटने के बाद भी इँसान दुनिया में जिंदा रह सकता है और उसकी पार्थिव काया लोगों को सीख देती रह सकती है…। कुछ ऐसी ही सीख दे गए कोरबा निवासी..दत्तात्रेय श्री राम माहुलिकर।जिन्होने साल भर पहले अपनी देह दान कर दी थी और कल रात उनके निधन के बाद उनके परिजन   उनकी देह सिम्स को समर्पित कर गए । इस दौरान सिम्स में कुछ ऐसा माहौल था  कि स्व. दत्तात्रेय श्री राम माहुलिकर की जिंदगी  की प्रेरणा भी सबके सामने  थी और उनकी पार्थिव देह से  भी लोगोँ को एक साथ कई सीख मिल रही थी।

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                                              कोरबा निवासी दत्तात्रेय राम माहुलिकर एक जाने-माने समाजसेवी थे। वे राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ के स्वंसेवक थे और मीसाबंदी भी रहे। मूलतः बिजली विबाग में सेवाएं देते हुए वे समाज सेवा में अनवरत लगे रहे। उनका परिवार बिलासपुर के  तिलक नगर में भी रहा। 1988 में बिजली विभाग से रिटायर होने के बाद वे कोरबा में बस गए और वहां उनकी समाज सेवा जारी रही। इस दौरान उन्होने समाज और शैक्षणिक क्षेत्र में अपना अमूल्य योगदान दिया। वे ग्राहक पंचायत और मजदूर संगठन के संस्थापक सदस्यों में रहे और सरस्वती शिशु मंदिर के संस्थापक/संचालक  के रूप में अपनी सेवाएं दीं। फोटोग्राफी में भी उनकी गहरी रुचि थी। समाज सेवा में वे इतने रच-बस गए थे कि 2016 में अपनी देह भी दान कर दी थी। जिससे उनके पार्थिव देह से भी मेडिकल छात्र सीखते रहें।

                                                      गुरूवार को वे  कोरबा में अपनी स्कूटर से निकले थे। इस दौरान उन्हे अटैक आया  । करीब 88 साल के दत्तात्रेय श्री राम माहुलिकर के लिए यह अटैक पहला और आखिरी साबित हुआ और वे हमेशा के लिए अपना शरीर छोड़ गए। वे भले ही मौत से हार गए । लेकिन देह दान के उनके कदम ने उन्हे फिर से जीवित कर दिया……। परिवार में उनके भाई प्रभाकर माहुलिकर और पुत्र हेमंत-पुत्री संध्या हैं। उन्हे देह दान की जानकारी थी और वे शुक्रवार की सुबह उनका पार्थिव शरीर लेकर सिम्स बिलासपुर पहुंचे। जहां सारी औपचारिकताएं पूरी करने के बाद उनका शरीर सिम्स को समर्पित कर दिया गया ।

                                                 इस दौरान सिम्स में माहौल गमगीन था…यह एक ऐसे शख्स की विदाई का क्षण था जिन्होने अपनी पूरी जिंदगी समाज सेवा में समर्पित कर दी थी। लेकिन उनके परिजन की आँखों में इस बात का शुकून भी झलक रहा था कि अपनी मृत्यु के बाद भी आने वाले कई बरसों तक वे मेडिकल छात्रों के बीच जीवित रहेंगे और उन्हे ANOTOMY पढ़ने में मदद करते रहेंगे। परिजन कहते हैं- परंपराए तो हम गढ़ते हैं और समय आने पर नई परंपराएं अपनी जगह बना लेती हैं। उन्हे एक समाजसेवी का शरीर सिम्स को समर्पित करते हुए गर्व का अनुभव हो रहा था।यह बात भी सामने आई कि – आँखों में आँसू इसलिए उतर आए कि पिता की जिंदगी भी गौरवपूर्ण थी और शरीर छोड़कर जाते-जाते भी हमारा मान- सम्मान बढ़ा गए। सिम्स का माहौल देखकर लगा जैसे दूसरों की सेवा में समर्पित एक जीवन अपनी देह छोड़ने के बाद फिर जी उठा।

 

 

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