पं.श्यामलाल चतुर्वेदी को पद्मश्रीःछत्तीसगढ़ का “असल चेहरा ” सम्मानित……

Chief Editor
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(रुद्र अवस्थी)छत्तीसगढ़ के माटीपुत्र पंडित श्यामलाल चतुर्वेदी को पद्मश्री पुरस्कार से  सम्मानित किया गया है। यह बिलासपुर और छत्तीसगढ़ का सम्मान है। क्योंकि श्यामलाल जी का व्यक्तित्व असल छत्तीसगढ़ से मेल खाता है और  उन्हे छत्तीसगढ़ का पर्याय कहा जाए तो अतिशयोक्ति नहीं होगी। उनके सम्मान से बिलासपुर -छत्तीसगढ़ सम्मानित हुआ है।CGWALL.COM  टीम की ओर से उन्हे बधाइयां और शुभकामनाए…।  पत्रकारिता में चतुर्वेदी जी के साथ काम करने का जो अनुभव मिला , उसे सामने रखने से जिस तरह की शख्सियत उभरती है, उसे  शब्दों में जोड़कर  यहां पेश करने की कोशिश हमने की है..।छत्तीसगढ़–जी हां। देश के नक्शे में एक सूबा…..जो अपनी सीमाओँ के दायरे के हिसाब   से बहुत बड़ा तो नहीं है…….. ।और दूर से देखने वालों को बहुत छोटा भी नजर आता है……। लेकिन कोई नजदीक आकर नजर डाले तो जमीन के इस हिस्से में उसे सब-कुछ दिखाई देगा….।नदियां…पहाड़….जंगल…उपजाऊ जमीन…खेत-खलिहान…पानी….बिजली…खनिज…मेहनतकश लोग…..और सब कुछ जो एक खुशहाल इलाके को चाहिए…।खुशहाली की इस तस्वीर के साथ उपेक्षा के दंश भी है…….अपनी उम्मीदें पूरी न हो पाने का मलाल भी है…..। फिर भी भोले-भाले निश्छल छत्तीसगढ़  के चेहरे पर मुस्कान बरकरार है…..। हर हाल में खुश ….और आनंद में डूबे होने का अहसास कराने वाले छत्तीसगढ़ का यह चेहरा मेल खाता है……एक चेहरे से …..। यह चेहरा है…पं श्यामलाल चतुर्वेदी का चेहरा ……। एक ऐसी शख्सियत …जो नदियों की मानिंद सहज-सरल, भोला-भाला, निश्छल भी है…..। पहाड़ों की तरह विशाल भी है…..। जंगल की तरह शांत औऱ गंभीर भी है….। हरे-भरे खेतों की तरह खुश औऱ उन्नत भी है….।बड़े-बड़े बिजली घरों की तरह ऊर्जा के प्रवाह  से भरपूर भी है….। गांव-गंवई के मेहनतकश लोगों की तरह शक्तिमान भी है…….यहां के संत-महात्माओँ की तरह कहीं भी सच बोलने का साहस भी है….।… जिनकी वाणी में छत्तीसगढ़़ के सुमधुर लोकसंगीत जैसी मिठास भी है….। जी हां यहां पर बात हो रही है  …… एक ऐसे व्यक्तित्व की…… जिसकी आत्मा में असली छत्तीसगढ़ बसा हुआ है…..। इन्हे समझने के बाद असली छत्तीसगढ़ की समझ भी हो जाएगी और पहचान भी…..।
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जैसा मैने पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी को महसूस किया उसके मद्देनजर उनके बारे में कुछ लिखते समय पहली लाइनें कुछ ऐसी ही हो सकती हैं……। स्टूडेंट लाइफ में तो उनका लिखा बहुत पढ़ते रहे हैं। लेकिन उन्हे नजदीक से देखने और महसूस करने का मौका पहली दफे उस समय मिला , जब मैने 1985 के आस-पास पत्रकारिता की शुरूआत की। दैनिक अखबार में काम करते हुए रिपोर्टिंग के सिलसिले में अक्सर उनसे मुलाकात हो जाती। उस समय मेरी उम्र मुश्किल से 21 साल की रही होगी और पं. चतुर्वेदी जी साठ की उमर में रहे होंगे। उम्र का इतना लम्बा फासला …..लेकिन उनके व्यवहार –वर्ताव से हमेशा ही लगता कि किसी उर्जावान- नौजवान से मुलाकात हो रही है…….। वह पत्रकारिता का ऐसा दौर था , जब बिलासपुर शहर में पत्रकारों की भीड़ नहीं थी । गिने-चुने पत्रकार थे। लोग कम थे और सभी बीट की खबरें अकेले ही कवर करते थे। लिहाजा प्रेस-कांफ्रेस हो या कोई आमसभा या फिर पुलिस-प्रशासन की कोई खबर हो, अकसर सभी की मुलाकात होती थी। उस समय हम जैसे नए पत्रकारों के लिए  यह बात बड़ी दिलचस्प लगती थी कि पं.श्याम लाल चतुर्वेदी अब क्या सवाल करने वाले हैं या उनका कमेंट क्या होगा…..। वे अक्सर ही सीधे-सपाट सवाल या कमेंट करते और कभी-कभी उनकी बातें सुनकर ऐसा सन्नाटा पसर जाता कि पिन के गिरने की भी आवाज सुनाई दे दे या फिर जोर का ठहाका सुनाई देता.।

वह ऐसा दौर था जब आज की तरह तेज-तर्रार संचार के साधन नहीं थे। हम सबके सामने  सिर्फ कागज-कलम के सहारे अपनी साइकल या मोपेड की रफ्तार से खबरों को पहले पहुंचाने की चुनौती थी। ऐसे में समाचार को पेश करने के अँदाज से ही रिपोर्टर की पहचान बन सकती थी। हम जैसे नए पत्रकारों की यह खुशकिस्मती रही कि चतुर्वेदी जी के रूप में एक तेज-तर्रार रिपोर्टर और एक कुशल संपादक हमारे साथ फील्ड पर ही मौजूद रहते। जिससे खबर लिखने में बड़ी मदद मिलती थी। हम लोगों के कान उनकी बातों पर ही टिके होते और कई बार उनकी बातों  से ही खबर की हैडिंग और इन्ट्रो की तलाश  पूरी हो जाती। सुगढ़ हिंदी और ठेठ छत्तीसगढ़ी को मिलाकर उनकी जुबान से निकले कमेंट में सब कुछ मिल जाता था।उस दौर में कई बार सरकारी योजनाओँ को नजदीक से देखने या किसी बड़े कार्यक्रम की रिपोर्टिंग के लिए पत्रकारों के टूर होते रहे। जिसमें हर बार पं. श्यामलाल जी हमारे साथ होते थे। शहर के आस-पास तो बहुत से मौके ऐसे थे जब उनका साथ मिला। मुझे याद आता है 1990 में जब वी पी सिंह देश के प्रधानमंत्री थे , एक बार उनका दौरा जशपुर हुआ। तब जशपुर अलग जिला नहीं बना था और रायगढ़ जिले में आता था। उनका कार्यक्रम कवर करने हम लोग जशपुर गए। गरमी के दिन थे।

बिलासपुर से जशपुर तक सफर इतना लम्बा था कि बिलासपुर से निकलकर रायगढ़ में रात रुकने का इंतजाम किया गया। फिर दूसरे दिन जशपुर पहुंचे। उस समय पं. श्यामलाल चतुर्वेदी ,पियूषकांति मुखर्जी, शशिकांत कोन्हेर और मैं एक ही गाड़ी में सफर कर रहे थे। अब भी याद है कि – हमारी गाड़ी बिलासपुर से मस्तूरी, पामगढ़, शिवरीनारायण, सारंगढ़, रायगढ़, धरमजयगढ़, सिसरिंगा घाटी – जहाँ से भी गुजरती वहां की खासियत से पं. चतुर्वेदी जी हमें रू-ब-रू कराते जाते । जशपुर में वी पी सिंह को एक आदिवासी सम्मेलन में बोलना था। हम लोग भाषण कवर करने लगे। लेकिन चतुर्वेदी जी की नजर वी पी सिंह के मंच के सामने बनाए गए सुरक्षा घेरे के उस पार बैठे आदिवासियों पर थी। उन्होने गौर किया कि भोले-भाले – अनपढ़ छत्तीसगढ़िया किस तरह भाषा की सीमा से परे जाकर अपने प्रधानमंत्री के चेहरे के भाव पढ़ते हुए उनकी बातों के समझने की कोशिश कर रहे हैं।चतुर्वेदी जी ने इस ओर इशारा भी किया।  चर्चा यह भी चली कि हर समय अपना तीर-कमान साथ रखने वाले आदिवासी आज बिना तीर-कमान के जमीन में बैठकर लोकतंत्र के राजा की बात टकटकी लगाए सुन रहे हैं…….।
भाषणबाजी खत्म होने और जलसा उसलने के बाद सब वापस लौटे तो तीर-कमान की चर्चा को और बल मिल गया। जब सभी की नजर एक जगह पर अपना-अपना तीर- कमान तलाश रहे आदिवासियों पर पड़ी। पूछने पर पता कि सभी आदिवासी अपने परंपरागत तीर-कमान के साथ यहां आए थे। लेकिन सुरक्षा कारणों से उनके तीर-कमान पहले ही एक जगह जमा करा लिए गए। शाम ढल रही थी और अँधेरे में टटोलकर आदिवासी अपने तीर-कमान पहचानने की कोशिश कर रहे थे। दिमाग में सवाल उठा कि जब इन लोगों पर भरोसा नहीं है तो नेता उन्हे अपनी बात सुनने के लिए बुलाते क्यूं हैं…………। क्या उनके तीर-कमान जमा कराते समय अफसरों-मुलाजिमों ने यह भी नहीं सोचा कि सरकारी बंदूक की तरह तीर-कमान पर तो नम्बर नहीं लिखे होते ….. फिर जलसे के बाद अफरा-तफरी के बीच निश्छल आदिवासी अपने तीर-कमान भला कैसे पहचानेंगे….। सरकारी तंत्र और आम आदमी के बीच विश्वास को लेकर यह सवाल मन में कौंधता रहा। बहरहाल जैसे-तैसे वापस लौटे और जब धरमजयगढ़ के ढाबे में खाने के लिए रुके तो एक डिस्पैच पूरा हो गया था। जहां कई सरकारी अफसरों की गाड़ियों के ऊपर रस्सी से बंधे तीर-कमान नजर आए। जाहिर सी बात है,ये तीर-कमान भगदड़ के बीच पहचान की लड़ाई में इन अफसरों के हाथ आ गए थे और आदिवासियों की इस “पहचान” को ड्राइँग रूम में सजाने के लिए अपने साथ ले आए थे।  इस बात का ख्याल किए बिना कि इस “पहचान” को घर पर सजा लेने के बाद एक “विश्वास” तो कहीं छूट गया….टूट गया। लौटने के बाद मैने इन भावनाओँ को अखबार में लिखा …। और मुझे अपनी रिपोर्टिंग का सबसे बड़ा अवार्ड मिला, जब पं. श्याम लाल चतुर्वेदी ने मुझे पास बुलाकर इस डिस्पैच के लिए मुझे बधाई दी।

मुझे 1987 के आसपास इंडियन एक्सप्रेस ग्रुप के राष्ट्रीय दैनिक जनसत्ता में में बिलासपुर संभाग की रिपोर्टिंग का मौका मिला। जो सिलसिला 2000 तक चला। इस दौरान जनसत्ता के प्रधान संपाद प्रभाष जोशी जी से भी कई बार मिलने का मौका मिला। साथ ही भोपाल में जनसत्ता के स्टेट हेड रहे महेश पाण्डे जी से भी काफी नजदीक के संबंध रहे। दोनों का जब भी बिलासपुर आना हुआ पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी से जरूर मुलाकात होती। इनके बीच चर्चाओँ में मुझे भी साथ रहने का मौका मिलता रहा। एक बार प्रभाष जी बिलासपुर आए तो चतुर्वेदी जी के साथ मल्हार भी गए। मैं भी साथ था। वहां उन्होने मल्हार की पुरा-सम्पदा को नजदीक से देखा। रास्ते भर पं. चतुर्वेदी जी से प्रभाष जी की बातें होती रहीं।और उनकी बातें सुनकर मुझे तो इतना कुछ सीखने-समझने को मिल गया , जितना कई किताबें पढ़ने के बाद भी शायद न मिल पाता। पं. चतुर्वेदी पत्रकारों को कभी-कभी गजेटिया सम्बोधित करते थे ( गजट से गजेटिया) । प्रभाष जी ने इसे याद रखा था और जनसत्ता के अपने मशहूर कॉलम ”कागद-कारे’ में एक बार चतुर्वेदी जी के नाम के साथ इसका जिक्र भी किया था।

मुझे लगता है कि पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी को छत्तीसगढ़ का पर्याय या असली चेहरा कहें तो कोई अतिशयोक्ति नहीं होगी। सहजता-सरलता और विशालता का सम्मिश्रण है…. उनका व्यक्तित्व….। उनकी आवाज में उनकी बात सुनना हमेशा ही एक नए अंदाज का अहसास करा देता है। हाल के दिनों में एक मुलाकात के दौरान जब उनका हाल पूछा तो बड़ी सहजता से उन्होने कहा कि- “तबीयत को छोड़कर बाकी सब ठीक है……।“ ऐसी निश्छलता के साथ अपनी बात रखकर सुनने वाले को मुस्कान से भर देने वाली यह जुबान अपने-आप में अनूठी भी है और यादगार भी…….। जवाब में सिर्फ यही कहने का मन करता है कि उनका संरक्षण हम सब पर बना रहे पं. श्यामलाल चतुर्वेदी जी स्वस्थ और दीर्घायु हो।और छत्तीसगढ़ का यह असली चेहरा हमारे सामने हमेशा इसी तरह मुस्कराता रहे……….।

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