(रूद्र अवस्थी) हरे – भरे जंगल और घाटियों से गुजरने वाली सर्पाकार सड़कों के उस पार…… कई पहाड़ों – खाइयों के पार बसे.. अपनी आबोहवा में मस्त …… पेण्ड्रा – गौरेला – मरवाही इलाके को सही में एक जिला मुख्यालय बनाने की जरूरत थी। यह काम काफी पहले होना था , जो अब जाकर हुआ है। बरसों पुरानी मांग अब जाकर पूरी हुई है। हरियाली से लदे इस इलाके को मिली खुशियों का अहसास किया जा सकता है। इस इलाके को आज जाकर वह खुशी मिली है, जिसके लिए वहां के लोगों ने करीब तीस साल तक संघर्ष किया । और एक बड़ी मांग पूरी होने के बाद यह इलाका मुख्यमंत्री भूपेश बघेल को दिल से शुक्रिया अदा कर रहा है। सियासत के नजरिए से इस मामले में कौन जीता और कौन श्रेय का हकदार है, इस पर बहुत से दावे हो सकते हैं। लेकिन कोई अगर पेण्ड्रारोड स्टेशन पर उतरकर कमानिया गेट होते हुए संजय चौक से ज्योतिपुर – पेण्ड्रा और फिर कोटमी के रास्ते मरवाही तक का सफर पूरा करले तो उसे सहज ही अहसास हो जाएगा कि सही मायने में इस इलाके के आम लोगों की असली जीत हुई है। और ऐसी जीत हासिल करने वालों का दिल मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जीत लिया है।
पेण्ड्रा – गौरेला – मरवाही को जिला बनाना क्यों जरूरी था …? इस सवाल को समझना बहुत कठिन नहीं है। जंगल – पहाड़ के बीच बसा यह इलाका छत्तीसगढ़ का दूसरा छोर कहलाता है। मध्यप्रदेश के बघेलखंड इलाके से सटे इस अँचल का अपना एक अंदाज है। अमरकँटक की हसीन वादियां इसे अपनी बाहों में समेटे हुए है। कुदरत ने इस इलाके को इतना कुछ दिया है कि कहीं कोई कमी नजर नहीं आती। लेकिन व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों ने जरूर कमी कर दी थी और इस इलाके को उसका हक मुहैया कराने में हमेशा कँजूसी की। जिस इलाके में एक ढंग का अस्पताल भी नहीं…. न कोई स्कूल… न उद्योग और न रोजगार के साधन….। यहां तक कि आवागमन के लिए भी साधन काफी कम थे। एकमात्र भरोसा रेलगाड़ी पर और गिनती की पैसेंजर गाड़ियां……। इमरजेंसी हो जाए तो चाहकर भी लोग वहां से बाहर नहीं निकल सकते थे। आज तो फिर भी कटनी लाइन में रेलगाड़ियों की गिनती कुछ बढ़ गई है और अचानकमार के साथ ही केंदा घाटी का रास्ता भी सुलभ हो गया है। लेकिन इस इलाके के लोगों ने बरसों से यह दंश झेला है कि अगर अचानक तबीयत बिगड़ जाए तो ईश्वर को याद करने के अलावे उनके पास और कोई रास्ता नहीं था। कोई आमाडांड़ – मरवाही के आखिरी छोर पर खड़े होकर इमेज कर सकता है कि अगर उसे किसी सरकारी काम से बिलासपुर आना है तो एक सौ सत्तर किलोमीटर से अधिक का सफर तय करना पड़ेगा।
हालांकि पिछले कुछ बरसों में शासन – प्रशासन चलाने के लिए एडीशनल कलेक्टर – एडीशनल एसपी और जंगल विभाग के बड़े साहब पेण्ड्रा – गौरेला में बैठने लगे थे। लेकिन यह तो राज – पाट की बात है…..आम लोगों की बुनियादी जरूरतों के लिए कोई सुविधा नहीं मिली । पुराने लोगों को अब भी याद होगा कि गौरेला का सेनिटोरियम अस्पताल अपनी खूबियों के लिए मशहूर रहा है। जहां कविवर रविन्द्रनाथ टैगोर भी एक बार आए थे। पेण्ड्रा के पुराने स्कूल और बीटीआई की ऐसी पहचान रही है कि यहां से शिक्षकों को ट्रेनिंग मिलती थी। किसी जमाने में गौरेला के मिश्रीदेवी कन्या हाई स्कूल की सुंदर इमारत इस बात का असास कराती थी कि यहां के लोगों को बच्चियों की पढ़ाई – लिखाई की कितनी फिकर है। लेकिन वक्त के बदलते – बदलते इलाके की यह पहचान कब – कहां गुम हो गई …… लोगों को पता भी नहीं चल सका। इलाज की जरूरत हो या बच्चों की पढ़ाई की बात हो इस इलाके के लोगों को कमी का अहसास हमेशा होता रहा है।
अमरकँटक का गेट- वे होने के साथ ही पेण्ड्रा – गौरेला इलाके का बिलासपुर से बहुत गहरा रिश्ता रहा है। इस रिश्ते की गहराई को याद करते हुए गौरेला के एक पुराने समीक्षक अशोक शर्मा कहते हैं कि अरपा हमारे आँगन से ही निकलती है और जंगलों – पहाड़ों से गुजरती हुई बिलासपुर को जोड़ती है। यह रिश्ता कुदरत ने बनाया है और हमेशा बना रहेगा। वे यह भी याद करते हैं कि 1990 – 91 मे मध्य़प्रदेश की पटवा सरकार नें जब नए जिले बनाने की पेशकश की और पेण्ड्रा – गौरेला – मरवाही विकासखण्डों को कोरबा जिले में जोड़ने का प्रस्ताव आया तो इस इलाके के लोगों ने जमकर विरोध किया । लोग दिल से चाहते थे कि कोरबा से जोड़ने की बजाय इस इलाके को बिलासपुर जिले में ही रहने दिया जाए।
भालू की वजह से भी अक्सर सुर्खियों में रहने वाले इस इलाके के लोग ज्यादातर वनोपज के सहारे ही अपना बसर करते रहे हैं। अमरकंटक की वादियों से लगे पहाड़ों के पड़ोस में रहने वाले इस इलाके के लोगों की सोच – समझ भी ऊँचे पर्वतों से कहीं कम नहीं है। जिस तरह जामुन – सीताफल- तेंदू जैसे मीठे फल इस इलाके में उपजते हैं, कुछ वैसी ही मीठी जुबान लोगों की भी है। आप किसी आम आदमी से बात कर लीजिए होंठों पर हल्की मुस्कान के साथ बड़े ही मीठे अँदाज में अपनी बात रखेगा कि आप उसकी गहराइयों में गोता लगाते रह जाएंगे और किसी लेखक – कवि के गद्य़ांश – पद्यांश की तरह उसके अर्थ निकालते रह जाएँगे। । इस इलाके का आदमी लाखों की भीड़ में भी बात करे तो अपनी उपस्थिति का अहसास करा देगा। पं. मथुरा प्रसाद दुबे और राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल ने लम्बे समय तक इस इलाके की नुमाइंदगी की । अविभाजित मध्यप्रदेश के कद्दावर आदिवासी नेता डॉ. भंवर सिंह पोर्ते इस इलाके से ही निकलकर आए थे। छत्तीसगढ़ के पहले मुख्यमंत्री अजीत जोगी का भी यह अपना गाँव – घर है। इस इलाके की सियासत की बात पर सिर्फ इतना ही लिखना है कि बीजेपी कभी यहां की सियासी पेचीदगियों को समझ नहीं सकी। इसीलिए पन्द्रह साल तक छत्तीसगढ़ में राज करके भी यहां से कोई बड़ा नेता तैयार नहीं कर सकी। और शायद इसी उलझन में पन्द्रह साल राज करके भी पेण्ड्रा – गौरेला – मरवाही इलाके को जिले का दर्जा भी नहीं दे सकी। इस पर भी बहुत कुछ लिखा जा सकता है कि इस इलाके की नुमाइंदगी करने वाले क्या कुछ दे सकते थे और क्या दे गए ….. ? लेकिन आज की तारीख में बरसात की नमी और हवा में घुली हल्की सी ठंडक के बीच कोई भी इस बात का अहसास कर सकता है कि बरसों पुरानी हक की लड़ाई में अपनी जीत पर पेण्ड्रा – गौरेला – मरवाही का इलाका दिल से खुश है ….. और अपनी लड़ाई जीतने वाले इस इलाके के लोगों का दिल सूबे के मुख्यमंत्री भूपेश बघेल ने जीत लिया है।