बिलासपुर के सम्मान में एक आंदोलन…बड़ी लड़ाई जीत गए…अब माथा ऊंचा कीजिए साहेब…।

Chief Editor
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( गिरिजेय ) अपने बिलासपुर के लोगों के लिए इस हफ्ते एक बड़ी अच्छी खबर आई कि अटल युनिवर्सिटी में अतिथि बनाने को लेकर बड़ा आंदोलन – विरोध प्रदर्शन  किया गया । आंदोलन इतना धारदार था कि विश्वविद्यालय प्रबंधन को झुकना पड़ गया  और समारोह के न्यौते का कार्ड तीसरी बार छपवाकर आंदोलनकारियों की मांग का सम्मान किया गया ।  शहर के  हक़ और सम्मान से जुड़े एक आंदोलन की इस  खबर ने मीडिया में खूब सुर्खियां बटोरीं । इसे सुनकर गर्व से माथा ऊँचा हो गया । लगा जैसे अपने बिलासपुर में अब ऐसी कोई समस्या नहीं रह गई है, जिसके लिए आँदोलन की जरूरत पड़े। एक अदद समस्या यही बची थी कि लोकल एमएलए को जलसे में मेहमान नहीं बनाया गया था…. अब इस बड़ी समस्या का भी समाधान हो गया है। एक बड़ी लड़ाई फिलहाल हमने जीत ली है…. इस उम्मीद के साथ कि आगे से अब उऩके साथ ऐसा नहीं होगा औऱ हमारे सम्माननीय जनप्रतिनिधि अपने ही शहर में मेहमान बनने के लिए अब  मोहताज़ नहीं होंगे।सीजीवालडॉटकॉम के व्हाट्सएप् ग्रुप से जुड़ने के लिए यहाँ क्लिक कीजिए

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एक बड़े आंदोलन की जीत पर यक़ीनन उस शहर को नाज़ करना ही चाहिए , जिसका अपना जन आंदोलनों का इतिहास रहा है। तारीख़ गवाह है कि इस बिलासपुर शहर ने अब तक जो कुछ भी हासिल किया है, वह अपनी लड़ाई खुद ही लड़कर ही हासिल किया है। रेलवे ज़ोन, हाईकोर्ट, युनिवर्सिटी, मेडिकल कॉलेज, एसईसीएल जैसी मांगों को लेकर हमारी जद्दोजहद के किस्से आज भी लोगों को याद हैं। यह सब पाने के बाद हम खामोश हो गए । वक्त बदला है और बहुत कुछ बदल गया है। बाज़ार के इस दौर में लोग उसी की बात करते हैं जिसका कोई दाम हो औऱ जो बाज़ार में बिक सकता हो। लिहाजा शहर के इस ज़ज्बे को कोई याद नहीं करना चाहता। लेकिन भला हो इस ताज़ा आँदोलन का….. जिसने हमें सोते से जगा दिया है। इसने हमें इस बात की याद दिला दी है कि जो हमारा हक़ है और देने वाला नहीं दे रहा है तो उसे लड़कर लेना पड़ेगा। भूली – बिसरी यादें फिर से ताज़ा हो गईं।

इस लड़ाई की मूल बात यह है कि हमारे नुमाइंदों की इज़्जत हमारी इज़्जत है और इसे हासिल करने के लिए हम लड़ाई भी लड़ सकते हैं । पिछले कुछ समय से यह अपने शहर की सबसे बड़ी समस्या बन चुकी है। लोगों ने जिन्हे अपना नुमाइंदा चुना है, उन्हे ही लगातार अनदेखा किया जा रहा है। कभी उनकी ही पार्टी के लोग हाथ खींच देते हैं, कभी सलामी लेने का मौका छीन लेते हैं और अब शहर के ऐतिहासिक जलसे में उन्हे मेहमान ही नहीं बनाया गया । सचमुच यह बड़ी समस्या है। जब हमारे नुमाइंदे को ही अपना हक़ नहीं मिलेगा तो फिर वे शहरवालों के हक़ के लिए क्या खाक करेंगे। इसलिए एक बार तो इसे लेकर आँदोलन होना ही था। जब पार्टी के अँदर की बात थी, तब भले ही लड़ना जरूरी न समझा हो। लेकिन जब सामने युनिवर्सिटी जैसी संस्था हो , तब तो लड़ना और आंदोलन खड़ा करके उन्हे जगाना तो जरूरी ही था। बल्कि इसके जरिए पार्टी को भी यह मैसेज़ चला जाएगा कि शहर में जनता के बीच से चुने हुए जनप्रतिनिधि के साथ क्या हो रहा है । और वे अगर इससे चेत जाएं तो अच्छा ही है। इससे जुड़ी एक बात और है कि कोई दो दिन पहले ही दिल्ली से खबर आई थी कि  सोनिया गाँधी ने कांग्रेस के बड़े नेताओँ की मीटिंग में फटकार लगाई थी कि सोशल मीडिया के खोल से बाहर आकर सड़क पर उतरें और आम लोगों के हित में आंदोलन करें। इस पर भी तुरत ही अमल हो गया और अपनी बात रखने के लिए आंदोलन का रास्ता अख्तियार कर लिया गया । सचमुच सोशल मीडिया में कमेंट – फारवर्ड करते रहने से कुछ हो नहीं रहा था। सड़क पर आकर प्रदर्शन किया तो युनिवर्सिटी प्रबंधन को झुकना पड़ गया। पब्लिक के साथ ही व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों तक भी यह मैसेज़ चला गया कि हम अपना हक़ इस तरह से भी ले सकते हैं । अब शायद आगे कोई इस तरह की हिमाक़त न करे।

यह तो सम्मान की बात है और अपने सम्मान के लिए लड़ना ज़ायज़ है। सियासत से जुड़े लोग तो हर जगह सियासत ही देखते हैं। विरोधी पार्टी के लोग तो कहेंगे ही कि इस शहर में अतिथि बनकर आए और जलसों में अतिथि बनते आए शख्स की नज़र सिर्फ़ और सिर्फ़ अतिथि की ही कुर्सी पर होती है। सारा झगड़ा इसी कुर्सी का है । शहर के लोगों की समस्याओँ से इनको कोई मतलब नहीं है। विरोधी पार्टी के लोग तो यह भी गिना सकते हैं कि शहर में चारों तरफ कितनी समस्याएं हैं ….। उनके लिए क्यों आंदोलन नहीं हो रहे हैं। शहर की सड़कों के गड्ढे दिखाएंगे और कहेंगे कि इन्हे ठीक करने के लिए ही कुछ कर देते। आप अधिक बहस करेंगे तो शहर के मध्यनगरीय चौक ले जाएंगे, जहां नाले के ऊपर रोड़ बनने के बाद आस – पास आठ रास्ते करीब एक ही जगह पर आकर मिलते हैं। अंदाज लगा सकते हैं कि ऐसी जगह पर कितनी ट्रेफिक होती होगी। लेकिन ठीक इसी जगह पर खोदी गई सड़क के ऊपर डाली गई गिट्टी अभी भी ऊबड़ – खाबड़ है । शहर में ऐसी कितनी गलियां हैं, जिनकी हालत इससे भी बदतर है। जिस शहर में चलना भी मुश्किल है, वहां दूसरी सहूलियतों की बात कोई क्या करे। यह सब दिखाई नहीं देता । और अतिथि की राजनीति चमकाने के लिए आंदोलन हो रहे हैं।

बिलासपुर शहर की ताश़ीर को समझने वाले पुराने लोगों से बात कीजिए ….. वे तो यह भी कह देंगे कि बिलासपुर शहर तो आज ही नहीं, पिछले कोई दो दशक से इस तरह की राजनीति का गवाह बना हुआ है और तमाशा देखते – देखते खुद अपना दर्द भूल गया है। करीब बीस साल तक  ऐसे नुमाइंदे रहे जो अपनी पार्टी और सरकार में ताक़तवर रहे। उन्हे अपने  लिए न ताक़त जुटाने की जरूरत थी और न ताक़त की नुमाइश करने की दरकार थी। लेकिन उनकी भरपूर ताक़त का पूरा फ़ायदा बिलासपुर शहर को नहीं मिल सका ।बल्कि वे अपनी ताक़त का इस्तेमाल किस तरह करते रहे …. यह समझने के लिए उनकी पार्टी और शहर की तस्वीर सबके सामने है। और आज ऐसे प्रतिनिधि हैं, जिन्हे अपनी ही पार्टी और अपनी सरकार मे ताक़तवर बनने के लिए संघर्ष करना पड़ रहा है। शहर तमाशब़ीन बनकर यह सब देख रहा है और अपना संघर्ष भूल गया है। इन बातों के साथ कोई यह भी याद दिला देगा कि यह वही बिलासपुर शहर है , जहाँ आर.पी.मंडल के कलेक्टर रहते एक आह्वान पर इसी शहर के लोगों ने  रेत की बोरियों से अरपा की धार को रोक दिया था । शहर की बेहतरी के लिए एक जनआंदोलन की इससे बड़ी और मिसाल और क्या हो सकती है।  जिसे देखकर उस समय की सरकार को अरपा पर चैकडेम बनाना पड़ा था । वही दौर था , जब हरियाली के लिए उठ खड़े हुए शहर के लोगों ने अपने हाथों से पौधे लगाए ।  अरपा किनारे छठ घाट के पास के मैदान और कानन पेंडारी के बाजू की जमीन पर स्मृति वाटिका की हरियाली को कोई आज भी देखकर उस समय की मुहिम को याद कर सकता है। आज तो प्रशासन में ऐसे लोग बैठे हैं, जो सोचते हैं कि कविता – कहानी के जरिए अरपा में पानी ले आएंगे और शहर को हरा-भरा कर देंगे।जबकि इस शहर को ऐसे रहनुमा की तलाश है, जो सच में कुछ करने के लिए खुद आगे आए। उसका साथ देने के लिए शहर का आम आदमी आज भी तन – मन से तैयार है।

लेकिन बिलासपुर में जनआंदोलनों के इतिहास को अपनी यादों में समेटकर आज के दौर की सियासत पर ऐसे तल्ख़ कमेंट करने वालों को समझाना चाहिए कि अपने शहर की इस हालत को पॉजिटीव्ह नज़रिए से देखें। समझने की कोशिश करें कि आज भी आंदोलन का ज़ज़्बा जिंदा है और उसकी ताक़त भी बनी हुई है। शहर की रहनुमाई करने वालों को आज जो समस्या नज़र आएगी उसका हल निकालने के लिए वे भी आंदोलन का ही रास्ता अख़्तियार करेंगे और एक मिसाल पेश करेंगे। बदले हुए वक्त में यह भी मान लेना चाहिए कि शहर में कोई समस्या नहीं है। जो समस्या थी , उसका समाधान एक आंदोलन के जरिए निकल आया है। ऐसे आंदोलनों पर हमें गर्व करना चाहिए और इसके जरिए जिन्हे सम्मान मिल गया है, उनके सम्मान में अपने सम्मान की तलाश करते रहना चाहिए ।

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