मेरी अरपा क्यूं मैली हो गई…..?

Chief Editor

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बिलासपुर । अरपा नदी अपने बिलासपुर शहर की पहचान है…..। भीतर-भीतर खामोशी से बहते रहना इसकी खासियत है…. तभी तो इसे अंतः-सलिला  नाम दिया गया । जिस तरह देश –दुनिया की नदियों को लेकर कलमकारों ने अपनी लेखनी चलाई है, उसी तरह अपने केशव शुक्ला जी (पुत्तन भैया) ने भी लिखा है…..।  अपनी अरपा की मानिंद खामोशी से अपने लेखन को भी सतत् प्रवाहमान बनाए केशव शुक्लाजी ने अपनी कहानी में भी इसकी धाराओँ को समाहित किया है और अरपा के मौजूदा हालात को लेकर एक दर्द उनके शब्दों में झलकता है ।  इस सिलसिले में अपनी पुरानी यादों को उन्होने सोशल मीडिया पर साझा किया है। जिसे हम यहां जैसा-का तैसा पेश कर रहे हैं-

             
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केशव शुक्ला का लिखा   ……….

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अन्तःसलिला अरपा की रेत पर कभी ‘ अरपा महोत्सव ‘का आयोजन हुआ करता था।इस महोत्सव की धूम अविभाजित मध्यप्रदेश में जमकर मची थी।इस आयोजन में राष्ट्रीय स्तर के लोक कलाकारों ने आकर अपनी प्रस्तुतियां दीं।इसे देखने रात को जन सैलाब रेत पर उमड़ पड़ता था।

स्व.श्रीकांत वर्मा न्यास समिति के प्रयासों से यह महोत्सव सन् 1996 में आरंभ हुआ।सरकंडा के पुराने पुल के निकट अरपा के मध्य रेत पर इसकी शुरुआत हुई थी।तत्कालीन सांसद श्रीमती वीणा वर्मा के संरक्षण में इस आयोजन ने न केवल जिले/संभाग में वरन् राष्ट्रीय स्तर पर शहर को पहचान दी ।किसी नदी की रेत पर होने वाला यह देश में अनूठा आयोजन था जिसकी रिपोर्टिंग दैनिक भास्कर में करने का मौका मुझे प्राप्त हुआ।

जनवरी माह में जब ठंड कम होने लगती है , तब अरपा महोत्सव का आयोजन किया जाता था। इस आयोजन के सूत्रधारों में तत्कालीन नगर विधायक और मंत्री म.प्र.शासन स्व.बी.आर.यादव जी और दैनिक भास्कर के महाप्रबन्धक स्व. रामबाबू सोंथलिया जी शामिल थे।श्री सोंथलिया जी बहुत सामाजिक और ‘क्रियेटिव पर्सन ‘ थे।यही वज़ह थी कि उन्हें नगर शिल्पी माना जाता रहा है।

महोत्सव के लिए रेत पर मंच और रेत पर ही सौ से अधिक स्टॉल , सुंदर विद्युत सज्जा और प्रकाश व्यवस्था होती थी ।स्टॉलों में खाने पीने के सामान एवं अन्य आकर्षण की चीजें होती थीं । महोत्सव में शाम से मध्यरात्रि तक विशाल मेला रेत में पसर जाता था।

सन् 98 के बाद इस महोत्सव का सार्वजनिक स्वरूप बदलने लगा और उसका सरकारीकरण होने लग गया।सांस्कृतिक कार्यक्रमों का स्तर भी कम हो गया ।स्टॉल व्यापार का जरिया बन गए।कला -संस्कृति के मंच से कूपन की बिक्री होने लगी।एक वर्ष आयोजन के मौक़े पर जनवरी महीने कड़ाके की ठंड पड़ रही थी ,नदी का पानी भी अन्य वर्षों की तुलना में कम नहीं हुआ था। मंच और स्टॉल बनाने के लिए रेत खींची गई थी जिससे रेत के नीचे का पानी भी ‘ ओगर ‘ (बाहर ) आया था।

इन सारी बातों की वज़ह से मुझे अरपा महोत्सव के विरुद्ध क़लम चलानी पड़ी। अव्यवस्थाओं के लेकर सिर्फ एक डिस्पैच मैंने लिखा और फिर अगला आयोजन ही नहीं हुआ ।आयोजन बंद होने के बाद मुझे बहुत अफ़सोस हुआ।आज तक मैं उस अफ़सोस से मुक्त नहीं हो सका हूं। सोचता रहता हूं कि यदि वह महोत्सव चलता रहता तो मेरी अरपा इतनी मैली तो न हुई होती ।नागरिक भी अपनी इस जीवन रेखा के प्रति जागरूक रहते।सरकंडा के पुराने पुल और अरपा की यह तस्वीर भाई जितेंद्र सिंह ठाकुर ने खींची है।

 

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