(गिरिजेय)पूरे देश के साथ बिलासपुर में भी आजादी का पर्व बहुत उल्लास के साथ मनाया गया । इस मौके पर पूरे देश ने उन शहीदों को सम्मान के साथ याद किया जिन्होने देश के लिए अपनी कुर्बानी दी। बिलासपुर के पुलिस ग्राउन्ड में भी जलसे के दौरान शहीदों को नमन् किया गया। इसी दौरान शहीद विवेक शुक्ला भी याद किए गए। विवेक शुक्ला बस्तर इलाके के कुआकोंडा थाने के प्रभारी थे और नक्सली हमले में शहीद हो गए थे। उन्हे याद करते हुए उनकी धर्मपत्नी को मंच पर बुलाया गया और उन्हे स्थानांतरण आदेश मुख्य अतिथि गृह मंत्री ताम्रध्वज साहू के हाथों सौंपा गया ।
बाद में सरकार के जनसंपर्क विभाग की ओर से जारी समाचार में ब्यौरा दिया गया कि शहीद विवेक शुक्ला दंतेवाड़ा में सबइंस्पेक्टर के पद पर पदस्थ थे। कुंआकोंडा के थाना प्रभारी रहने के दौरान वे नक्सली हमले में शहीद हो गए थे। शहीद की पत्नी पूर्व में शासकीय प्राथमिक शाला गोबरीपाट में शिक्षिका के पद पर पदस्थ थीं। शहीद के दो छोटे बच्चे हैं और उनका परिवार बिलासपुर में निवास करता है । उनकी परेशानी को देखते हुए प्रशासन ने उनका स्थानांतरण बिलासपुर में कराने का प्रयास किया और उनका स्थानांतरण चिंगराजपारा बिलासपुर के प्राथमिक स्कूल में किया गया । आज कार्यक्रम के दौरान गृहमंत्री के हाथों उन्हे स्थानांतरण आदेश सौंपा गया ।
समाचार पढ़ने के बाद से जेहन में सवाल उठ रहा है कि क्या यह शहीद का सम्मान है या अपमान …… ? कि उनके परिजन को मंच पर बुलाकर स्थानांतरण आदेश दिया गया । हो सकता है मैं गलत हूं। लेकिन यह सवाल इसलिए उठ रहा है कि पिछले करीब तीन दशक से अधिक समय से पत्रकारिता में रहते हुए कभी ऐसा मौका नहीं आया , जब किसी को भी सार्वजनिक मंच से स्थानांतरण का आदेश दिया गया हो। प्रशस्ति पत्र – प्रशंसा पत्र तो दिए जाते रहे हैं। लेकिन मेरे देखे यह पहला मौका है जब स्थानांतरण आदेश सार्वजनिक मंच से प्रदान किया गया है …. और वह भी यह कहकर कि स्थानंतरण आदेश सौंपकर शहीद के प्रति श्रद्धांजलि व्यक्त की जा रही है।
[wds id=”13″]
मुझे लगता है कि यह तो प्रशासन की तथाकथित संवेदनशीलता के महिमामंडन के अलावा और कुछ नहीं हैं। जिसके चक्कर में वे इस बात का भी ध्यान नहीं रख सके कि वे ऐसा करते हुए किस ओर आगे बढ़ रहें हैं । कोई भी इनसे पूछ सकता है कि क्या किसी सरकारी कर्मचारी …. और वह भी एक शहीद की पत्नी का तबादला इतना बड़ा काम है , जिसके लिए उन्हे मंच पर बुलाकर आदेश दिया जाए । मेरी समझ में तो यह किसी भी कर्मचारी का अधिकार है। और कोई आला प्रशासनिक अफसर ऐसे सरकारी कर्मचारी का आवेदन मिलने के बाद यह काम इतनी आसानी से कर सकता है कि दफ्तर के बाहर बैठे चपरासी को भी इसकी भनक न लगे। वही आदेश इस तरह से सार्वजनिक मंच पर दिया जाना तथाकथित संवेदनशीलता का महिमामंडन नहीं तो और क्या है….? अब क्या कोई यह भी नहीं पूछ सकता कि क्या प्रशासन के पास अब ऐसा कोई काम नहीं बचा है ….? जिसके सहारे वह अपनी संवेदनशीलता का सार्वजनिक रूप से इजहार कर सके।क्या संवेदनशीलता के नाम पर ऐसे कामों का ही सहारा लेना पड़ रहा है…..? होना तो यह चाहिए था कि उन्हे घर जाकर यह आदेश दिया जाता । वैसे भी यह कोई नियुक्ति या प्रमोशन को तो आदेश नहीं था , जिस पर श्रेय लिया जा सके या फिर यह अहसास कराया जा सके कि कोई बहुत मुश्किल या असंभव से काम पर मुहर लगाई गई है …..। प्रशासन ने हाल ही में संवेदनशीलता के कई अच्छे उदाहरण भी पेश किए हैं और हम सब लोगों ने खुले दिल से उसकी तारीफ भी की है। जो काम सामान्य सरकारी प्रक्रिया से अलग हटकर किए जाते हैं उनकी तारीफ की जाती है और आगे भी होती रहेगी ।
मैं फिर दोहरा रहा हूं कि हो सकता है मेरी यह सोच और टिप्पणी गलत हो। लेकिन अब तक के अनुभव और परंपरा को देखते हुए प्रशासन की इस गतिविधि को लेकर मन में सवाल पैदा हुआ। उन सवालों को सामने रखकर , जवाब की उम्मीद में व्यवस्था के जिम्मेदार लोगों तक पहुंचाने की कोशिश कर रहा हूं। अगर जवाब मिल जाए तो तसल्ली होगी ..