विभाग कंगाल..अधिकारी मालामाल..(चार)

BHASKAR MISHRA

IMG_20160224_130437 बिलासपुर– विभाग कंगाल..अधिकारी मालामाल की कड़ी  में हम उप निरीक्षक की जाती सर्टिफिकेट और बारों के रिनुअल की कहानी आपके सामने रखें..इसके पहले कुछ अन्य जानकारी भी देना जरूरी है। सरकारी शराब दुकानों में केवल ओव्हर रेट से ही नहीं बल्कि चखना सेंटरों से भी लाखों की कमाई होती है। यह कमाई सीधे उप निरीक्षकों की जेब में जाती है। सरकार को इससे लाखों रूपए का नुकसान होता है।

                      शासकीय शराब दुकान की आड़ में अधिकारी लोग कई स्रोत से सरकार को लाखों रूपए का नुकसान पहुंचा रहे हैं। इनमें से चखना दुकान भी एक है।  इसका आकलन अभी तक नहीं किया गया है। बार लायसेंस रिनुअल की प्रक्रिया और उप निरीक्षक की जाति सर्टिफिकेट के बारे में आपकों बताएं। इसके पहले शासकीय मदिरा दुकान से होने वाली कमाई और सरकार को आर्थिक नुकसान की जानकारी से रूबरू हों।

                                      विभाग के एक आरक्षक ने बताया कि शराब दुकान परिसर में खाने की सामग्री बेची जाती है। इसे सामान्य भाषा में चखना सेंटर कहा जाता है। इसकी कमाई उप निरीक्षक और आबकारी अधिकारी की जेब में जाती है। दुकान का किराया प्रतिदिन न्यूनतम 1000 और अधिकतम 3000 या इससे अधिक हो सकता है। प्रतिदिन का किराया सम्बंधित शासकीय दुकान का उपनिरीक्षक वसूलता है।

                     दुकान यानि चखना सेंटर का किराया शराब बिक्री के हिसाब से निर्धारित होती है। नवागांव-रतनपुर की दुकान का किराया 1500 रपए प्रतिदिन है। बोदरी और बिल्हा जैसी शासकीय शराब दुकानों में चखना सेंटर का किराया दो से तीन हजार रूपए प्रतिदिन है। बिल्हा और बोदरी का किराया वहां का निरीक्षक वसूलता है। जिस पर आबकारी अधिकारी पीसी अग्रवाल की विशेष कृपा है। अकेले बिल्हा शासकीय दुकान चखना सेंटर का किराया प्रतिदिन तीन हजार रूपए के हिसाब से महीने में नब्बे हजार रूपए मिलते हैं। बोदरी शराब दुकान से भी उप निरीक्षक की जेब में महीने में साठ हजार रूपए चखना सेंटर से मिलते हैं। लेकिन यह राशि शासन के खाते में नहीं जाती है। 2

                             जिले में शासकीय संचालित शराब दुकान की संख्या 18 हैं। औसत प्रत्येक दुकान से दो हजार रूपए प्रतिदिन का किराया यदि मान लिया जाए तो  अंक लाखों को पार कर जाता है। यह राशि जाती कहां है…किसी ने इस ओर ध्यान नहीं दिया। लेकिन इतना तय है कि यह राशि सरकार के खजाने में नहीं जाती है।

                  शासकीय शराब दुकान में कौन सी ब्रांड की शराब बिकेगी और कौन सी नहीं..?  यह भी एक सुनियोजित रणनीति का हिस्सा है। जिस ब्रांड कंपनी का एजेंट प्रति पेटी कमीशन ज्यादा देता हैं उसकी ही शराब सरकारी दुकान से बेची जाती है। यानी ग्राहक कोई भी मदिरा की मांग क्यों ना करे… शासकीय दुकानों के काउंटर से उसी ब्रांड की मदिरा का विक्रय किया जाता है जिसके एजेंट ने भरपूर कमीशन दिया होता है। बोदरी और बिल्हा में यह गोलमाल कुछ ज्यादा ही है।

                     एजेंटो से बात करने पर मालूम हुआ कि प्रत्येक पेटी पर 100 से 200 रुपए बतौर कमीशन अधिकारी पर खर्च होता है। ब्रांड की मांग या खपत के अनुसार कमीशन कम या ज्यादा भी हो सकता है। यह राशि भी एक माह में लाखों में होती है। जाहिर सी बात है कि व्यक्तिगत प्रयास से हासिल हुआ रकम होता है इसलिए सरकार के खजाने में जाने का औचित्य ही नहीं है। इसलिए कहते हैं कि विभाग कंगाल..अधिकारी मालामाल

                                                                  जारी है….

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