“सदा तरइया न बन खिले ,सदा न सावन होय….

Chief Editor
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rawat kesh3बिलासपुर।शहर ही नहीं बल्कि पूरे छत्तीसगढ़  में धर्म-कला-संस्कृति की रिपोर्टिंग की विधा में अपनी अलग ही पहचान रखने वाले वरिष्ठ पत्रकार केशव शुक्ला जी ने छत्तीसगढ़ की लोकविधाओँ पर बहुत लिखा है। इस मामले में उनकी लेखनी बेमिसाल  है। इन दिनों चल रहे रावत – नाच उत्सव पर उन्होने अपनी भावनाओँ को सोशल-मीडिया पर साझा किया है। जिसे हम यहां पेश कर रहे हैः-

             
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केशव शुक्ला का लिखा….  

ग्रामीण अंचलों में इन दिनों राउत नाच की धूम मची हुई है।दल में नाचते राउतों के हुंकार और गंड़वा बाजा की धमक दूर-दूर तक सुनी जा रही है।ये दल बाज़ार ‘ बिहाने ‘5 दिसंबर को शहर आएंगे और महोत्सव में भाग लेंगे।हजारों नर्तकों का मेला यहां लगेगा।इस महोत्सव को कव्हर करने का मौका मुझे सन् 2008 तक मिला।

छत्तीसगढ़ की लोकसंस्कृति अत्यंत समृध्द है। लोककलाएं इस प्रदेश की सम्पन्नता का जीवन्त प्रतीक हैँ। राउत नाच भी लोकजीवन में रची-बसी एक अद्भुत कलारूप है। यह एक ऐसा समूह नृत्य है जिसमें लोक की व्यापकता और कृषि संस्कृति की स्वाभाविक ऊर्जा समाहित है।राउत नाच यहां के ग्राम्य जीवन की विशिष्ट पहचान है।

राउत नाच महोत्सव समिति के संयोजक डॉ.कालीचरण यादव बताते हैं, यदुवंशियों का यह समूह नृत्य है। नृत्य का यह पर्व प्रतिवर्ष धान की फसल कटने के साथ मनाया जाता है।अन्य ग्रामीणों की तरह यादवों के भी जीवन का मुख्य आर्थिक आधार कृषि और पशुपालन ही है।

यह नृत्य पर्व छत्तीसगढ़ के रायपुर अंचल में दीपावली के अवसर पर मनाया जाता है पर बिलासपुर अंचल में कार्तिक की प्रबोधनी एकादशी से आरंभ होकर पन्द्रह दिनों तक चलता रहता है। इस नृत्य में जहां एक ओर श्रृंगार का लालित्य है तो दूसरी ओर शौर्य और वीरता की चमक भी।इसमें नर्तक लय और ताल से नाचते हैं वहीं पूरी तन्मयता और दक्षता से अस्त्र-शस्त्र का संचालन भी करते हैं।

राउत नर्तक पारम्परिक वेशभूषा धारण कर प्रकृति प्रदत्त वस्तुओं से श्रृंगार करता है।
वह सिर पर कपड़े की पगड़ी बंधता है जिसे ‘ पागा ‘ कहा जाता है।इसके ऊपर कागज के फूलों की लम्बी माला गोल कसी होती है।इस पगड़ी के ऊपर मोर पंख की कलगी लगी रहती है।चेहरे पर वृन्दावन की पीली मिट्टी लगी होती है जिसे ‘रामरज ‘कहा जाता है। इसके साथ आँखों में काजल , दोनों गालों में एवं ठोढ़ी में काली बिंदियां ,भौंहों के बीच माथे पर चंदन का टीका लगाया जाता है।

शर्ट की जगह वे रंगीन कपड़े का सलूखा पहनते हैं जो पूरी आस्तीन का होता है।सलूखे के ऊपर सलमें -सितारे जड़े जाकिट पहनते हैँ जिसे वे ‘ बास्किट ‘ कहते हैं।सीने में कौड़ियों की एक पेटी बंधी होती है। दोनों बाँहों में कौड़ियों से ही बना बाजूबंद होता है जो ‘ बंहकर ‘ कहा जाता है।कमर के नीचे घुटने तक कसा बरमुड़ा की तरह का वस्त्र होता है जिसे ‘चोलना ‘ कहा जाता है।यह छींटदार कपड़े से बना होता है।इसके सिरे पर फुंदने भी लगे रहते हैं।चोलना की जगह कुछ लोग सफेद रंग की चुस्त बटे कोर की धोती भी पहनते हैं।

राउत नर्तकों की कमर में बड़े -बड़े घुंघरूओं की एक बेल्ट बंधी होती है जिसे वे ‘जलाजल ‘ कहते हैं ।दोनों पैरों में भी छोटे आकर के घुंघरू बंधे होते हैं जो नृत्य के दौरान रुनझुन का संगीत छेड़ते हैं।अस्त्र-शस्त्र लोकजीवन से जुड़े और पारम्परिक होते हैं।एक हाथ में तेंदू की लाठी और दूसरे हाथ में ढालनुमा लोहे या पीतल से बनी ‘ फरी’ होती है।ये फरी हिरण के सींगों की बनी हुई भी होती है जिसे वे ‘बगडिंडोल ‘ कहते हैं।

किसी -किसी नर्तक दल में ‘ गुरूद ‘ नामक मारक अस्त्र होता है। यह एक फीट लंबे लोहे की छड़ का बना होता है।इसके नीचले सिरे पर रिंग बनी होती है।रिंग के नीचे दो-तीन चेन क़रीब एक एक फीट की होती है जिसमें लोहे के गुटके लटके रहते हैं।इस शस्त्र को निपुण लोग ही चला पाते हैं।

गंड़वा बाजा इनका वादक दल होता है जो गंधर्व जाति के माने जाते हैँ।इनके पास लोकवाद्य ही होते हैं जिनका निर्माण वादक स्वयं करता है। ये वाद्य -निशान , टिमकी , डफरा ,गुदरुम और मोहरी कहलाते हैँ।इनकी धुन पर नर्तक दल लय और ताल के साथ अपना उन्मुक्त -उल्लास से भरा नृत्य करता है।

ये आशुकवि भी होते हैं और नाच को कुछ पल का विराम देकर दोहे व्यक्त करते हैं। सूर, तुलसी, कबीर जैसे संत कवियों के दोहों के साथ स्वरचित दोहों का अपना एक अलग संसार इनमें सजीव होता है।इसे वे ‘ दोहा पारना ‘ कहते हैं।दोहे की बानगी कुछ इस प्रकार होती है~

“सदा तरइया न बन खिले ,सदा न सावन होय हो।
सदा न माता गोद रखय ,सदा न जीवय कोय हो ।।”

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इस समूह लोकनृत्य का समापन ‘ ‘बाज़ार -बिहाने ‘ की परम्परा से होता है । यह परम्परा विशेषकर बिलासपुर अंचल में दिखाई पड़ती है ।संभागीय मुख्यालय बिलासपुर में पहले सप्ताह का बड़ा बाज़ार शनिवार को लगता था जिसकी परिक्रमा करना बाज़ार बिहाने की रस्म कहलाती है। इसके पीछे उनकी मान्यता है कि वे बाज़ार को जीत रहे हैं।

राउत नाच में ‘ मड़ई ‘ का बहुत पवित्र स्थान है जिसका निर्माण केंवट या गोंड़ जाति के लोग करते हैं।यह एक ऊँचे बांस पर ‘ गोंदिला ‘ नामक फूल से बना होता है।यह विजय ध्वज का प्रतीक होता है।इस ” मड़ई “के नाम से महोत्सव आयोजन समिति प्रतिवर्ष पत्रिका भी प्रकाशित करती है जो राष्ट्रीय स्तर की शोध पत्रिका के रूप में पहचानी जा रही है।

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राउत नाच महोत्सव समिति के संयोजक डॉ .कालीचरण यादव बताते हैं कि देश में या विदेश में कहीं भी इतना विशाल ,स्वतःस्फूर्त लोक नृत्य नहीं होता जो शनिवार 5 दिसंबर को यहां राउत नाच महोत्सव में देखा जा सकेगा।इस लोकनृत्य के गहन अध्ययन की आवश्यकता है जिससे लोकजीवन की नैसर्गिक शक्ति को सामने लाने में मदद मिलेगी।

इस महोत्सव को आरंभ से लेकर सन् 2008 तक मुझे तीन अख़बार बिलासपुर टाइम्स, दैनिक भास्कर एवं हरिभूमि में कव्हर करने का मौका मिला ।राउत नाच का आकर्षण मुझ में बचपन से था।इस पर लेख भी बहुत लिखा।

संलग्न चित्रों में राउत नाच की वेशभूषा में अविभाजित मध्यप्रदेश शासन में वन, राजस्व कृषि आदि महत्वपूर्ण विभागों के मंत्री रहे स्व.बी. आर. यादव जी दिखाई दे रहे हैं वे इस महोत्सव के संरक्षक थे।आज भी समिति -समाज उनका सूक्ष्म संरक्षण मानता है ।उनके संरक्षण में राउत नाच ने अनेक आयाम स्थापित किये।दूसरा चित्र वर्तमान मंत्री नगरीय निकाय छग शासन श्री अमर अग्रवाल का है।तीसरा चित्र राउत नाच दल का है जिसमें दो बच्चे भी नर्तक के रूप में सजे-धजे दिखाई दे रहे हैं जिसे भाई जितेंद्र सिंह ठाकुर ने खींचा है।

 

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