(अख़िलेश कुमार तिवारी ) भाषा संस्कृति की संवाहक होती है। हर राष्ट्र की अपनी एक भाषा होती है और यही भाषा पूरे राष्ट्र को एक सूत्र में पिरोने का कार्य करती है। आज हिंदी हमारे देश में सर्व स्वीकार्य भाषा है। चाहे तमिलनाडु, केरल, कर्नाटक आदि दक्षिण भारत के राज्य हों या फिर उत्तर पूर्वी प्रदेश, सभी जगह हिंदी बोली और समझी जाती है। यह बात अलग है कि हिंदी अब तक राष्ट्रभाषा के तौर पर स्थापित नहीं हो पाई। 14 सितम्बर, 1949 को हिंदी को राजभाषा का दर्जा दिया गया, जिसे हम हिंदी दिवस के रूप में मनाते हैं। हिंदी की लोकप्रियता एवं स्वीकार्यता लगातार बढ़ रही है, न केवल हमारे देश में, बल्कि विदेशों में भी। आंकड़ें बताते हैं कि हिंदी को सरकार की भाषा (राजभाषा) का दर्जा तो दे दिया गया है। यह व्यापार की भाषा भी बन गई है। हिंदी माध्यम के छात्र-छात्राओं का प्रतियोगी परीक्षाओं में सफलता का प्रतिशत लगातार बढ़ रहा है। तमाम लोकप्रियता और समृद्धता के बावजूद हिंदी आज भी विमर्श के केंद्र में है।
नई शिक्षा नीति का प्रारूप सार्वजनिक होते ही एक बार फिर देश में भाषा को लेकर बहस छिड़ गई है। इस शिक्षा नीति में मातृभाषा में प्राथमिक शिक्षा देने पर जोर दिया गया है। पहले भी महात्मा गांधी, रवीन्द्रनाथ टैगोर जैसे अनेक शिक्षाविदों ने मातृभाषा में ही पढ़ाई कराये जाने पर बल दिया था। मातृभाषा का अर्थ है, बच्चा जो अपनी माँ और घर-परिवार से सीखता है। मौजूदा समय में बच्चा स्कूल में अंग्रेजी माध्यम में पढ़ता है और घर की भाषा हिंदी और कोई अन्य होती है। इससे बच्चों में मौलिक सोच का अभाव देखा जा रहा है। बच्चे पढ़ते अलग भाषा में है और सोचते किसी दूसरी भाषा में हैं। इससे उनमें रटने की क्षमता ही विकसित होती है। मैं जिस विश्वविद्यालय में कार्यरत हूँ, वहां के विद्यार्थियों की भाषा मुझे हैरान कर देती है। कुछ अंक प्राप्त करने वाले प्रावीण्य सूची के विद्यार्थियों को हिंदी में आवेदन लिखने में पसीना छूट जाता है। अंग्रेजी माध्यम के उन छात्रों की अंग्रेजी सुधर नहीं पाती, हिंदी जरूर बिगड़ जाती है। किसी तरह रटकर ज्यादा नंबर लाने वाले ये छात्र ‘भाषा’ के मामले में कमजोर हो जाते हैं।
वैसे तो हिंदी काफी समृद्ध एवं वैज्ञानिक भाषा है। लेकिन अंग्रेजी माध्यम में पढ़ाई ने हिंदी की दुर्गति कर दी है। बची-खुची कसर समाचार पत्रों ने पूरी कर दी है जो हिंदी और अंग्रेजी की मिश्रित भाषा हिंग्लिश का प्रयोग डंके की चोट पर कर रहे हैं। वैसे तो हिंदी आदिकाल से ही समुद्र की तरह रही है। हिंदी के सागर में कई देशी-विदेशी भाषाओं के शब्द समाहित हो चुके हैं। होम क्वारेंटाईन, आइसोलेशन, लॉकडाउन जैसे शब्दों को अपने में समेटने वाली हिंदी का स्वरूप अब भी कायम है। लेकिन गलाकाट प्रतिस्पर्द्धा के इस युग में हिंदी भाषा, अंग्रेजी अभी भी हिंदी को चारों खाने चित कर रही है। ऐसे में मातृभाषा में शिक्षा देने वाली नीति कितनी कारगर होगी, यह भविष्य के गर्भ में है।
दुर्भाग्य इस बात का है कि आज किसी भी साक्षात्कार में अंग्रेजी न बोल पाने वालों को अयोग्य करार दे दिया जाता है। जबकि भाषा का ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं है। धाराप्रवाह अंग्रेजी बोलने वाले का विषय ज्ञान शून्य भी हो सकता है। विषय पर अच्छी पकड़ रखने वाले अभ्यर्थी का ज्ञान भले ही चयन का आधार न बने, अंग्रेजी न बोल पाना ‘अयोग्य’ होने का कारण जरूर बन जाता है। हमारा समाज आज भी लार्ड मैकाले की मानसिकता से उबर नहीं पाया है। इन परिस्थितियों में हर साल 14 सितम्बर को हिंदी दिवस समारोह आयोजित करना औचित्यहीन प्रतीत होने लगा है। क्या ऐसे समारोहों से समाज की मानसिकता बदलेगी? कब तक हम अपनी ही भाषा का दिवस मनाते रहेंगे? भारत के अलावा विश्व का ऐसा कोई देश नहीं है, जहां उसकी भाषा का दिवस मनाया जाता है। सभी विकसित देश अपनी भाषा में काम करते हुए प्रगति के पथ पर अग्रसर हैं। वहीं भारत में हिंदी माध्यम स्कूल बंद हो रहे हैं, विश्वविद्यालयों में हिंदी पढ़ने वाले छात्र नहीं मिल रहे और हम हर साल हिंदी दिवस मनाकर खुश हो रहे हैं। हिंदी के प्रचार-प्रसार के लिए किसी समारोह, संगोष्ठी या कार्यशाला की जरूरत नहीं है। सबसे पहले हिंदी को रोजगार से जोड़ना होगा। यह सुनिश्चित करना होगा कि अंग्रेजी न बोल पाना रोजगार में बाधा न बने। हिंदी में उत्कृष्ट पाठ्य सामग्री उपलब्ध कराना भी हमारी जिम्मेदारी है। वैज्ञानिक एवं तकनीकी शब्दावली आयोग एवं केंद्रीय हिंदी निदेशालय हर साल हिंदी के विकास पर लाखों रूपए खर्च कर रहे हैं। भारत के संविधान में राजभाषा नीति भी है। लेकिन सिर्फ नीति बनाने से काम नहीं चलेगा। हिंदी माध्यम स्कूलों एवं हिंदी में पढ़ाई को प्रोत्साहित करने की आवश्यकता है। गुरुदेव रवींद्रनाथ टैगोर ने कहा है- ‘‘भारतीय भाषाएं नदियां है और हिंदी महानदी’’। इस महानदी को सूखने से बचाना हम सब की जिम्मेदारी है। यह सिर्फ हिंदी दिवस मनाने से नहीं होगा। इसके लिए ठोस उपाय करने होंगे।
लेखक हिंदी अधिकारी, गुरु घासीदास केंद्रीय विश्वविद्यालय, बिलासपुर (छत्तीसगढ) )
संपर्क मो.न.- 7587172871