PHOTO-“कछुआ” कहीं फिर न जीत जाए…एक बार व्यापार विहार रोड घूम आइए…वोट देने से पहले

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(रुद्र अवस्थी )हम सब बचपन से ही कछुआ की कहानी पढ़ते – सुनते आ रहे हैं। खरगोश और कछुआ की कहानी….। बड़ी सुंदर कहानी है। जो ज़िंदगी में कामयाबी  के लिए प्रेरणा देती है। । इस कहानी की सबसे बड़ी प्रेरणा य़ही है कि अपनी धीमी रफ़्तार के बाद भी कछुआ रेस में ख़रगोश से ज़ीत जाता है। आज़ के बिलासपुर में खड़े होकर कोई इस क़हानी के बारे में सोचे तो लगता है कि ज़िन लोगों पर अब तक शहर की तरक़्की की ज़िम्मेदारी रही है, उन लोगों ने इस कहानी से ख़ूब प्रेरणा ली है और इसके अलावा किसी भी प्रेरक – नीति कथा को पढ़ने की ज़रूरत महसूस नहीं की। इतना ही नहीं….. इस कहानी में उन्होने दो बातों पर सबसे अधिक ग़ौर किया है। एक तो कछुआ की धीमी चाल और रेस में उसकी ज़ीत। तभी तो शहर की तरक़्क़ी की रफ़्तार कछुआ चाल से चल रही है और इसे चलाने वाले हर बार जीत ही जाते हैं। वो तो ज़ीतकर अपना मुक़ाम हासिल कर लेते हैं। लेकिन बरसों से इस रेस का तमाशब़ीन बना हुआ यह शहर आज़ कहां पहुंच गया है……? यह सवाल भी माक़ूल ज़वाब की तलाश कर रहा

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कछुआ – खरगोश दौड़ की बोधकथा हर समय की तरह आज़ भी प्रेरणास्पद है। लेकिन हमारे यहां इसके मायने बदल गए हैं।हमारे रहनुमाओँ की इस प्रेरणा को समझने के लिए बहुत अधिक रिसर्च की ज़रूरत नहीं पड़ेगी । कोई भी अपने मोहल्ले में अपने आस-पास ही इसे कभी भी देख सकता है। और पिछले कई बरसों से देखता आ रहा है कि तरक़्क़ी की रफ़्तार कैसी है और ज़ीत किसे हासिल हो रही है। शहर की तरक़्क़ी के लिए रुपया खरगोश की स्पीड से आता है और काम कछुआ की चाल से होता रहता है। जो कई बार तो अपने मुक़ाम तक भी नहीं पहुंचता और कभी मुक़ाम तक पहुंचते – पहुंचते इतनी देर हो जाती है कि काम पूरा होने या न होने का कोई मतलब ही नहीं रह ज़ाता………।

लगता तो यह भी है कि कछुए की यह क़हानी हमारे नुमाइंदों के मन में इतने भीतर तक समा गई है कि चाहे आप पार्टी बदलकर देख लीज़िए या चेहरा बदल दीज़िए….. काम की रफ़्तार में कोई बदलाव नज़र नहीं आएगा। थोड़े –मोड़े दिन की बात नहीं है….. पूरे एक साल का वक्त गुज़र गया है….. इस शहर ने जिस सिवरेज़ को देखकर चेहरा और पार्टी दोनों बदल दिया था, आज उस सिवरेज़ में आखिर कितना बदलाव आया है…। सब देख रहे हैं। लगता है अब तो लोग भी इस कछुए को ही अपना आदर्श मानने लगे हैं। तभी तो यह सब देखकर भी मन में उठने वाला गुस्सा भी कछुए की तरह सुप्त सा हो ज़ाता है…… कछुए की तरह अपने आप को खोल के भीतर समेट लेता है …. और धीरे से ग़ुम भी हो ज़ाता है।

याद कर लीज़िए कि एक अगरबत्ती बहुत अधिक चलन में रही है…..। लोग मच्छर भगाने के लिए इसे ज़लाते रहे हैं। इत्तफ़ाक से इस अगरबत्ती में भी वही छाप है और इसकी भी वही ख़ासियत़ है कि यह दूसरी अगरबत्तियों की माफ़िक थोड़ी देर में बुझती नहीं है।गोल –गोल रात भर ज़लती रहती है….। इससे मच्छर भागे या ना भागे …. मगर धुआँ ज़रूर निकलता रहता है। बस ऐसे ही कछुआ छाप का धुआँ आँखों में चुभता रहता है…..। हम सब भी इसके आद़ी हो गए हैं। जब से हमारे नुमाइंदों ने कछुए को अपना आदर्श माना है और इस आदर्श को अपनाकर जीतते भी चले गए हैं, तब से यह शहर ख़रगोश की रफ़्तार से पीछे होता चला गया है। दूर बैठे लोग भी हम हँस सकते हैं कि अविभाज़ित मध्यप्रदेश के ज़माने में हम कहाँ थे और आज़ कहां पर हैं….।

सिवरेज़ प्रोजेक्ट तो कछुए की परंपरा वालों का सबसे शानदार आदर्श है। यह कब शुरू हुआ था …. हम लोग तो इसे भी भूल चुके हैं …. और कब पूरा होगा यह कोई बता नहीं सकता…। दावा है…. वो लोग भी नहीं बता सकते , जो इसका काम कर रहे हैं। कछुआ परंपरा को मानने वालों का सम्मान होना चाहिए कि उन्होने इस परंपरा को कभी टूटने नहीं दिया औऱ इसे हर बार पहले से अधिक मज़बूत करते गए । इस शहर ने लम्बे समय तक भोगा  है कि तिफ़रा रेल्वे ओव्हरब्रिज़ घुट-घुटकर बरसों बाद बन पाया । वह भी इतना संकरा है कि यह पुल ज़िम्मेदार लोगों की संकीर्णता का इश्तहार आज़ भी कर रहा है। उस्लापुर ओव्हरब्रिज़ भी गिरते – हपटते बन पाया…..। इसी तरह की हालत लालखदान आव्हरब्रिज़ की भी है। शहर में इस तरह अधूरी आशाओँ औऱ अधूरी उम्मीदों के पता नहीं कितने स्मारक हैं।जिन्हे देखक़र यह पूछने का मन करता है कि क्या आज की टेक्नालॉजी के दौर में भी हम संसाधनों में इतने पिछड़े हैं कि कोई भी एक काम मुकर्रर वक़्त पर पूरा नहीं कर सकते । और काम पूरा करते – करते लोगों को इतनी सज़ा रोज़ – रोज़ दे देते हैं कि फ़िर उस काम के पूरे होने का मज़ा ही ख़तम हो जाता है।

इस परंपरा का निर्बाध निर्वहन देखना है तो कोई भी अभी व्यापार विहार रोड को ज़ाकर देख सकता है। जो…. नौ दिन चले अढ़ई कोस …… वाली पुरानी कहावत़ को भी झुटलाता दिखाई देता है। और थोड़ा आगे बढ़ जाइए…. तिफरा फ्लाई ओव्हर के काम की रफ़्तार देखकर समझ सकते हैं कि कछुआ अभी किस मुक़ाम पर है और अभी यह अधूरा विकास आगे और कब तक वहां से गुज़रने वालों को रुलाता रहेगा …….? हद है…. हमारी व्यवस्था के ज़िम्मेदार लोग इसी तिफ़रा के रास्ते राजधानी का सफ़र करते हैं। लेकिन लगता है उनकी कार के सीसे से यह भी नहीं दिखता कि इस शहर के आम लोग कैसे आते – ज़ाते होंगे…। अमृत मिशन योज़ना के नाम पर भी  इस कड़ी में एक नया मील का पत्थर गड़ गया है। जहां पाए वहां सड़क  खोद दिए … और फिर जैसा का तैसा छोड़ दिए ….। सड़क से गुज़रने वाले लोग भी इसके आद़ी हो चुके हैं….और यह हुनर सीख गए हैं कि जहां से पतली गली मिले … चुपचाप निकल लो….। कोई रुककर यह भी नहीं पूछता कि …. भाई शहर को कब तक खोदते रहोगे…..। अब तो यह सवाल भी गुम हो गया है। व्यवस्था बदली…. निज़ाम बदले….. नेता बदले …. अफ़सर बदले…नीचे से ऊपर तक सब बदल गया ….। लेकिन तस्वीर के साथ तक़दीर नहीं बदली….। कछुआ अपनी जगह कायम है और  वह अपनी ज़गह शायद नहीं बदलेगा ….। चूँकि उसकी ज़ीत का सिलसिला ज़ारी है।

इस सूरते- हाल को शहर पिछले कई बरसों से देख रहा है और शहर के लोग इसे भोग रहे हैं….। इस बारे में सोचते भी रहे हैं। लेकिन इन दिनों जब गली – मोहल्लों – चौक – चौराहों में एक औऱ चुनाव …. और उसमें ज़ीत – हार पर ब़हस चल रही है…..। लाख टके का सवाल है कि कौन जीतेगा … और कौन हारेगा…? किस पार्टी से कितने जीतकर आएंगे औऱ कौन इस शहर का नया महापौर बनेगा ….? क्या इस सवाल का भी ज़वाब नहीं खोज़ा जाना चाहिए कि अपना शहर किस ओर जा रहा है ….. और इसे किस ओर जाना चाहिए….? कथित स्मार्ट सिटी का स्मार्ट नुमाइंदा कौन हो सकता है…? क्या हमारी अधूरी ख्वाहिशों को चुनाव का मुद्दा नहीं बनाना चाहिए….?  और क्या वोट दने से पहले एक बार व्यापार विहार रोड सहित उन हिस्सों तक घूमकर नहीं आना चाहिए ? , जहां हमारी उम्मीदों को बरसों से धूल में उड़ाया जा रहा है…। शायद सवालों का जवाब मिल ज़ाए……। लेकिन इस मुक़ाम पर खड़े होकर डर के साथ दिलो -दिमाग़ में यह सवाल भी उठता है कि क्या इस शहर के साथ यह सच भी जुड़ गया है कि जीतेगा तो कछुआ ही……।

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