दिखने लगा सिन्दुरी रंग का असर

BHASKAR MISHRA
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IMG_0730 - Copy IMG_0729 - Copyबिलासपुर—पूर्व विधायक और अविभाज्य मध्यप्रदेश के नेता स्वर्गीय लल्लू सिंह की कविता फाल्गुन चढ़ने के साथ याद आ जाती है……। चनौतियों को ठेंगा दिखाने वाले ओ पलाश..तू धैर्य और जीवटता का पर्याय है..बज्र सी ऊसर ,  बंजर धरती की सीना फाड़कर तुझे किसने जीना सीखाया..कहां से पानी पीता है..हरा भरा कैसे रहता है..इतनी आग तुझमे कहां से आयी..तेरे फूल सुर्ख क्यों हैं..तेरे पत्तों में इतनी शीतलता कहां से आयी..जंगल निरवस्त्र हो..तू ठहाका कैसे लगा लेता है…क्या सूरज के प्रचंड कोप का तुझ पर असर नहीं होता..

             
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           धैर्य की परीक्षा किसके लिए देता है..तू स्वार्थी क्यों नही बना..क्या चिड़ियों का पेट और प्रकृति को सिन्दुरी बनाने के लिए तपता है….हे प्रकृति पुत्र तेरे रोम-रोम को प्रणाम।

               फाल्गुन में पलाश का जिक्र ना हो..ऐसा संभव नहीं है…सूरज से डरकर पत्तियां पत्तियां पेड़ों का दामन छोड़ देती हैं..जंगल निरवस्त्र हो जाता है…दूर-दूर तक केवल ठूंठ ही दिखाई देते हों..तब राहगीरों और चहचहाती पक्षियों को पलाश अपनी गोद में पनाह देता है। लल्लू सिंह जी ने ठीक ही कहा है कि पलाश बज्र का धैर्य रखता है। आग बरसाते चुनौतियों से दो-दो हाथ करता है..बज्र ऊसर धरती की सीना फाड़कर ऊचाइंयों को छूता है। क्रोध को पचाता है। सुर्ख टेशू के रंग से जंगल को सिन्दुरी बना देता है। वदन पर पड़ते ही सुर्ख रंग असीम सुख और नई ऊर्जा का संचार करता है।

               IMG_3030received_1700462766895851इस समय प्रकृति का रोम रोम होलियाना मूड में है..देर रात तक ढोल ताशे और नंगाड़े की थाप सुनाई देने लगी है। फाल्गुन की खुमारी सिर चढ़कर बोलने लगी है। मदमस्त होकर लोग प्रकृति का रसपान कर रहे हैं। दुख के पहाड़ को पीछे छोड़ पलाश की तरह टेशु के खुशनुमा रंग में लोग डूबे हुए नजर आ रहे हैं। टेशु के सिन्दूरी रंग से जंगल का जंगल लाल हो गया है। शाम होते ही चिड़ियां झांझ और मंजीरा बचा रही हैं। पीपल के पत्ते पलाश की जीवटता को देख मंत्रमुग्ध हैं..। टेशु के फूलों को देखकर जंगल स्तब्ध है और ऊर्जा से भरा भी।

                 फाल्गुन की मस्ती में केवल जंगल ही नहीं..पलाश की तरह बाधाओं को दरकिनार कर हर व्यक्ति मदमस्त है। टेशू के फूल की तरह रंग की खुमारी लोगों के सिर चढ़कर बोल रही है। जैसे प्रकृति अपना चोला बदल रहा है..उसी तरह इंसान भी दिखावे लबादा उतारकर मंजीरा, झांझ, मांदर, नंगाड़े से अपना नाता जोड़ लिया है। क्या राजा..क्या रंक..क्या नेता..क्या व्यापारी..क्या भिखारी और क्या पत्रकार सभी लोगों ने बाधाओं को धकिया कर फाल्गुन उत्सव में जंगल के पलाश की तरह माहौल को खुशनुमा बना दिया है। दूर से आती नंगाड़े के थाप को लोग महसूस कर होली गीत को गुनगुना रहे हैं। जिसे कोई सुने या ना सुने..लेकिन पलाश की तरह अन्य लोगों की तरह वे भी सिन्दुरी रंग में नहा रहे हैं।

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