बिलासपुर(भास्कर मिश्र)। इस फोटो को देखने के बाद एक गीत बरबस ही होठों से फूट पड़ता हैं…गीत के बोल कुछ इस तरह हैं..अपने लिए जिएं तो क्या जिएं..आगे भी है..उसे बताने की जरूरत नहीं है।जब शहर रंग में सराबोर था..लोग ढोल,ताशे मांदर की धुन पर गुलाल उड़ा रहे थे..ठीक उसी समय चीका वाजपेयी..गरीब अनाथ बच्चों के साथ पिचकारी में रंग भरकर एक दूसरे पर रंग का निशाना साध रहे थे। आंखे भर आयीं..उसी समय मुंह से निकल पड़ा..अपने लिए जिए तो क्या जिए….चीका वाजपेयी की इस फोटों ने आज कुछ लिखने के लिेए मजबूर कर दिया…। काश हम भी ऐसी होली मनाते..किसी के होठों पर खुशियों की गुलाबी रंग दे पाते..लेकिन हमारे साथ ऐसा हुआ नहीं..क्योंकि चीका ने जमाने की खुशियों को पहले ही अनाथ और जरूरतमंद बच्चों के बीच बांट दिया था।
जब पूरा शहर जोगीरा..शरररररर…कह रहा था। जगह जगह फाग में ताने और व्यंग्य के बाण छोड़े जा रहे थे। ठीक उसी समय चीका ऊर्फ विवेक वाजपेयी नन्हें बच्चों के साथ जीवन का रंग भर रहे थे। ऐसा उन्होने क्यों किया..यह तो नहीं मालूम ..लेकिन कुछ किया..वह अनुकरणीय है। उन्होने बच्चों के साथ मीठाई,गुछिया का आनंद उठाया। हरे,गुलाबी, नीले,पीले रंगों से बच्चों को रंगा और खुद अपने को बच्चों की मासूम किलकारियों से सराबोर किया..शायद बच्चों की किलकारी को चुराना ही उनका स्वार्थ हो। बच्चों के हाथों की पिचकारी…चीका वाजपेयी को भी नहीं बख्शा…यद्पि चीका फोटो खिंचाने से बचते रहे..लेकिन बच्चों के आगे उनकी एक नहीं चली..अंत में उन्हे फोटो खिचाना पड़ा..इस फोटो ने त्योहार मानने का तथाकथित समाज को तरीका सीखा दिया..मजेदार बात है कि जब लोग दो हाथ से एक दूसरे से चार होकर गालों पर रंग मल रहे थे…आसमान में गुलाल के बादल गढ़ रहे थे..ठीक उसी समय चीका…उदासों आंखों में खुशियों का रंग भरने के साथ ही..सैकड़ों हाथ से खुशियों की होली खेल रहे थे…ऐसी होली और खुशी बहुत कम लोगों को ही नसीब होती है…
स्वामी विवेकानंद कहते हैं कि जब तक समाज के अंतिम व्यक्ति के आंसू को नहीं पोछा जाएगा..समाज चांद सितारों तक क्यों ना पहुंच जाए..लेकिन वह खुश नहीं रह सकता है। जब तक दुनिया वालों को इस बात का अहसास नहीं हो जाता है कि हम एक दूसरे के लिए हैं..तब तक इंसान..इंसान होने का दम्भ तो भर सकता है..लेकिन हो नहीं सकता है। चीका ने गरीब मासूम,अनाथ बच्चों के साथ ना केवल होली मनाया। बल्कि उनके साथ घंटो समय भी बिताया..उपहार दिये..खुशियों को समेटा…वह भी कैमरे के पीछे रहकर। पर्दे की पीछे रहना चीका की यह पुरानी आदतों में है। काश इस आदत में हर इंसान यथा शक्ति शुमार हो जाता। उस दिन मानिए दुनिया की रंगत ही बदल जाएगी।..ऐसा तभी होगा जब लोग अपने लिए ही नहीं बल्कि दूसरों के लिए जीना शुरू कर देंगे…