साफगोई और सीधे सपाट लहजे में अपनी बात रखने वाले द्वारिका प्रसाद अग्रवाल खूब लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं..। जिस सोशल मीडिया को लोग “कट-पेस्ट का हुनर” पेश करने वाली दीवार मानते हैं, वहां अपनी मौलिकता की वजह से द्वारिका जी ने अपनी अलग पहचान बनाई है..।शहर और शहर की जीवंतता का अहसास उनकी कलम की खासियत तो है, वे शब्दों को कुछ इस ढंग से पिरोते हैं कि पढ़ने वाला जिंदा शब्दों के साथ गलबहिंयां डालकर सच के इतना करीब पहुंच जाता है कि कोई उसे अपने हाथों से छूकर महसूस भी कर ले..।बिलासपुर शहर पर उनकी एक ऐसी ही रचना “मंतव्य” पत्रिका में छपी है। जिसे हम यहां पर साभार किस्तों में पेश कर रहे हैं..।पेश है दूसरी किस्त –
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल का लिखा
योरप की औद्योगिक क्रांति एवं पुनर्जागरण का प्रभाव पूरे विश्व में पड़ने लगा था। अंग्रेजों ने अपने शासित देशों में शिक्षा का प्रसार करना प्रारंभ कर दिया था। फलस्वरूप, बिलासपुर में कई स्कूल खुले जिसमें नगर और आसपास के बच्चे आकर पढ़ने लगे। कुछ समर्थ परिवारों के बच्चे कलकत्ता, नागपुर, इलाहाबाद और बनारस जैसी जगहों में पढ़ने के लिए भेजे गए। हमारे नगर के ई.राघवेन्द्र राव एवं ठाकुर छेदीलाल ‘बार-एट-लॉ’ की पढाई करने के लिए लन्दन गए और बैरिस्टर बनकर आये।
राष्ट्र के राजनीतिक क्षितिज में महात्मा गाँधी का उदय हो चुका था, उनकी प्रेरणा से देश की आजादी का आन्दोलन दिनोंदिन जोर पकड़ रहा था। असहयोग आन्दोलन के दौरान राष्ट्रप्रेम की लहर बिलासपुर में भी दौड़ने लगी और कुछ लोग खुलकर सामने आने लगे। यदुनंदनप्रसाद श्रीवास्तव ने शासकीय विद्यालय की शिक्षा त्याग दी, ई. राघवेन्द्र राव, ठाकुर छेदीलाल एवं हनुमन्तराव खानखोजे ने अदालतों का बहिष्कार किया। हिंदी के प्रख्यात कवि माखनलाल चतुर्वेदी ने बिलासपुर आकर देश की आजादी के लिए 12 मार्च 1921 को एक क्रांतिकारी भाषण दिया। उन्हें अंग्रेजों ने गिरफ्तार कर बिलासपुर की केंद्रीय जेल में बंद कर दिया। इस जेल यात्रा के दौरान ही उन्होंने अपनी लोकप्रिय कविता ‘पुष्प की अभिलाषा’ का सृजन किया था।
25 नवम्बर 1933 को राष्ट्रपिता महात्मा गांधी बिलासपुर आये। उन्हें देखने और सुनने के लिए दूर-सुदूर से हजारों की संख्या में लोग पैदल और बैलगाडि़यों में भरकर सभास्थल में उमड़ पड़े। सभा समाप्त होने के बाद लोग उनकी स्मृति के रूप में मंच में लगी ईंट और मिट्टी तक अपने साथ उठाकर ले गए।
एक समय का गाँव बिलासपुर, अंग्रेजों के शासन काल में जिला बनने के बाद कस्बा बना फिर अर्धनगर, उसके बाद नगर और अब अर्ध-महानगर नगर बन गया। यहाँ तक की यात्रा लगभग डेढ़ सौ वर्ष में पूरी हुई। इस नगर की धरती को असंख्य लोगों ने अपने परिश्रम से सींचकर हरा-भरा किया, इसमें संस्कार के धागे बुने। बहुत से अनाम हैं जिन्हें कोई नहीं जानता लेकिन कुछ नामचीन भी हैं जिन्हें भारतवर्ष का साहित्यजगत जानता है जैसे रंगकर्मी पंडित सत्यदेव दुबे, नाट्यलेखन के सशक्त हस्ताक्षर डॉ.शंकर शेष और साहित्यकार श्रीकांत वर्मा जैसी मशहूर हस्तियाँ, इसी बिलासपुर की माटी की देन हैं।
बदलाव की बयार:
अंग्रेजों ने बंबई से कलकत्ता तक रेल्वे की लंबी लाइन बिछाई, बिलासपुर बीच में आ गया। सन 1889 में यहाँ रेल्वे स्टेशन बनाया गया। स्टेशन के आसपास का बहुत बड़ा भूखंड रेल्वे को आबंटित किया गया जिसे ‘रेल्वे कालोनी’ कहा जाने लगा। यहाँ दूर तक जाती रेल की पांतों के अलावा रेल कर्मियों के लिए आवासीय घर, खेल के मैदान और क्लब बने। शुरुआत में रेलकर्मियों के रूप में लाल रंग के चेहरे लिए कुछ अंग्रेज़ आए जो लाल रंग के वृहदाकार ‘बंगले’ में रहते थे। दूर-सुदूर बंगाल, आन्ध्रप्रदेश, तमिलनाडु, बिहार, उत्तरप्रदेश आदि राज्यों के भारतीय रेल्वे की नौकरी में यहाँ आए जो मध्यम और छोटे घरों में व्यवस्थित किए गए। इनकी दैनिक जरूरतों की आपूर्ति के लिए बुधवारी बाज़ार बनाया गया जहां अनाज, किराना, कपड़ा, सब्जी आदि उपलब्ध थे। रेल्वेकर्मियों के इस समूह ने बिलासपुर को गाँव से शहर में तब्दील करने की दिशा में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई। बिलासपुर के देहातीपन को इन प्रवासियों ने बदल दिया और यह बस्ती शहर बनाने की राह पर चल पड़ी।
तब बिलासपुर एक कस्बा था। कलेक्टोरेट था, कचहरी, बैंक, अस्पताल और सिनेमा थे। आसपास के डेढ़ सौ किलोमीटर तक के लोग बिलासपुर आते थे, ट्रेन में घुसकर, बस में लदकर, बैलगाड़ी में बैठकर या घोड़े पर चढ़कर। बिलासपुर आना और काम निपटाना उनके लिए परेशानी का सबब रहा होगा लेकिन काम पूरा होने के बाद का समय पिकनिक जैसा था। यहाँ के हलवाइयों की दूकानें और सिनेमाघर इन प्रवासियों के दिन भर का अर्जित सारा संताप हर लिया करते थे।
जारी है…