यही है बिलासपुर (3)

Shri Mi
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साफगोई और सीधे सपाट लहजे में अपनी बात रखने वाले द्वारिका प्रसाद अग्रवाल खूब लिख रहे हैं और अच्छा लिख रहे हैं..। जिस सोशल मीडिया को लोग “कट-पेस्ट का हुनर” पेश करने वाली दीवार मानते हैं, वहां अपनी मौलिकता की वजह से द्वारिका जी ने अपनी अलग पहचान बनाई है..।शहर और शहर की जीवंतता का अहसास उनकी कलम की खासियत तो है, वे शब्दों को कुछ इस ढंग से पिरोते हैं कि पढ़ने वाला जिंदा शब्दों के साथ गलबहिंयां डालकर  सच के इतना करीब पहुंच जाता है कि कोई उसे अपने हाथों से छूकर महसूस भी कर ले..।बिलासपुर शहर पर उनकी एक ऐसी ही रचना “मंतव्य” पत्रिका में छपी है। जिसे हम यहां पर साभार किस्तों में पेश कर रहे हैं..।पेश है तीसरी किस्त –

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dwarika

                                                        द्वारिका प्रसाद अग्रवाल का लिखा

                              सबसे बड़ा परिवर्तन तब आया जब बिलासपुर के हृदयस्थल पर गोलबाज़ार का निर्माण हुआ। सन 1937 में दिल्ली के कनाटप्लेस की शैली में नगरपालिका ने इसका निर्माण कराया। बड़ी और पक्की दूकानों का सिलसिला यहीं से शुरू हुआ जो पूरी बस्ती के लिए आकर्षण का केंद्र बन गया। गोलबाज़ार केवल बाज़ार नहीं, बिलासपुर का वैभव था, शहर का रक्त इसी धमनी से होकर गुजरता था। मिठाई और दूध-दही, साइकिल और सिलाई मशीन, सब्जी और फल, कपड़े और मनिहारी, कापी-किताब और खाता-बही, बीड़ी-सिगरेट और पान याने वह सब-कुछ जो नगरवासियों को चाहिए होता था, अच्छे से अच्छा, वह गोलबाजार की दूकानों में मिलता था। गोलबाजार के पाँच किलोमीटर के वृत्त के लोग साइकल पर हाँफते हुए यहाँ अपना झोला लटकाए आते और झोला भरकर खुशी-खुशी वापस जाते।

                             गोलबाजार की मिठाई और चाट की दूकानें सबको रोज आने के लिए मजबूर करती। यहाँ एक मिठाई की दूकान थी- गयाप्रसाद पान्डे महराज की। किसी जमाने में उस होटल में सुबह छः बजे से रात दस बजे तक ग्राहकों की भीड़ लगी रहती थी। अल-सुबह जलेबी की तई भट्ठी पर चढ़ती तो रात तक अनवरत मीठी-रसीली जलेबी उगलती रहती जिसे निगलने के लिए पूरे होटल में पसरी गंदगी और बदबू को दुर्लक्ष्य कर ग्राहकों की भीड़ लगी रहती। जलेबी के साथ स्वादवृद्धि के लिए दो नमकीन भी थे। एक- आलू और प्याज को भूंज कर बनाए गए मसाले के ऊपर बेसन लपेट कर तला गया ‘आलूबड़ा’ और दूसरा- पिछली रात बच गए नमकीन को मसल कर, उसमें बेसन और मिर्च मसाला मिला कर तेज लहसुन की छौंक से तैयार किया गया ‘प्याज बड़ा’। जलेबी के साथ इनका ‘काम्बिनेशन’ इस कदर जायकेदार होता था कि मजा आ जाता। नाश्ते की ये तीनों वस्तुएं जब तैयार होती तो इनकी खुशबू इतनी फैलती कि सड़क चलता इन्सान सम्मोहित सा होटल में खिंचा चला आता।

                            एक चलती-फ़िरती दूकान भी थी, रबड़ी वाले बाबा की. उनका असली नाम किसी को मालूम न था, बस यही नाम था उनका। गोंडपारा वाले अपने घर से निकलकर वे गोलबाज़ार तक शाम को पांच बजे रबड़ी बनाकर सड़क पर आवाज़ देते निकलते- ‘ताज़ी रबड़ी…..’और एक नगरपालिका द्वारा निर्मित एक खाली पड़ी दूकान पर बैठ जाते। उनकी रबड़ी के दीवाने आते, पत्ते के दोने में रबड़ी लेते और अपनी उंगलियों से उठाकर खाते या दोने को मुंह से लगापर रबड़ी को पी लेते। बाबा की रबड़ी का सोंधापन जितना अनोखा था, बाबा भी उतने ही अनोखे थे। उनको यदि किसी की म्रुत्यु का समाचार मिल जाता तो वे अपना काम छोड़्कर उसके अंतिम संस्कार में पहुंच जाते, रबड़ी बने या न बने।

रबड़ी वाले बाबा का कोई घर भी न था, एक मंदिर के बरामदे में सोते। उन्होने कोने में एक छोटी-सी भट्ठी बना ली थी जिसमें प्रतिदिन वे रबड़ी तैयार करते। ये काम वे इसलिए करते ताकि किसी के सामने हाथ न फ़ैलाना पड़े और स्वाभिमानपूर्वक जिया जा सके। झुकी हुई कमर और छोटी कद-काठी के रबड़ी वाले बाबा एक दिन गरिमा के साथ इस संसार से विदा हो गए। देवकीनन्दन श्मशान गृह में उनके अंतिम संस्कार के समय मोहल्ले का हर व्यक्ति उनकी पार्थिव देह के सामने ग़मगीन खड़ा था।

जगदीशनारायण की दूकान ‘पेंड्रावाला’ में सभी वस्तुएँ देशी घी से बनाई जाती थी, मिठाई, नमकीन और पूरी- सब्जी। पूरी-सब्जी की लोकप्रियता का आलम ऐसा था कि बिलासपुर के आसपास सौ-पचास मील दूर बैठे किसी व्यक्ति को अगर पूरी-सब्जी की याद आ गई तो वह अगले दिन बिलासपुर जाने के लिए कोई न कोई बहाना अवश्य खोजता, जैसे, कचहरी में पेशी है, कलेक्टर आफिस जाना है, आर॰टी॰ओ॰ का काम है, डाक्टर को दिखाना है, खरीदी करना है, बैंक में काम है आदि कुछ भी काम ‘खोजा’ जाएगा और उसे बिलासपुर जाने वाली अगली ट्रेन या बस में बैठकर रवाना होना ही है। बिलासपुर पहुँच कर खोजा गया काम बाद में होगा, पहले  ‘पेंड्रावाला’ में पूरी-सब्जी का आस्वादन होगा क्योंकि घर से निकल-भागने का असली मकसद पहले पूरा होना चाहिए।

                   स्थानीय निवासियों को इतनी मशक्कत नहीं करनी पड़ती थी, घर से पैदल निकले, गोलबाजार पहुंचे और सीधे ‘पेंड्रावाला’ में घुस जाते और आदेश देते- ‘आधा पाव पूरी देना।’ पलाश के पत्तों से बने दोने में आधा पाव में तीन फूली हुई खरी पूरियाँ परोसी जाती और साथ में आलू की छिलके वाली रसीली सब्जी। बस, साथ में आचार-चटनी कुछ नहीं। मर्जी हो तो आधा पाव दही मँगवा लो या आधा पाव रबड़ी और फिर परमानंद।

यही हाल मौसाजी, इलाहाबादी, दामू, होरीलाल की चाट का था। इनकी चाट ऐसी थी कि शहर भर को लुभाती थी और अपने पास बुलाती थी। अब चाट के स्वाद की वह विविधता कहीं भटक गई। ठेलों में मिलने वाली चाट के विभिन्न स्वाद उसी तरह खो गए हैं जिस प्रकार सामूहिक भोज में ‘बफे’ शैली में परोसा जाने वाला भोजन, कुछ भी खाओ, सबका स्वाद एक जैसा !

गोलबाजार की तरह सदरबाजार बर्तन, आभूषण और कपड़े की दूकानों का केंद्र बन गया। धीरे-धीरे हर गली-मोहल्ले में दूकानें खुलने लगी और आज पूरा शहर विभिन्न वस्तुओं की दूकानों से पट गया है। बाजार बदल गए हैं, बाजार में मिलने वाली वस्तुएँ भी बदल गई हैं। पहले दूकानों में गरम दूध बिकता था अब आइसक्रीम पार्लर खुल गए, परचून की दूकानें थी अब माल खुल गए, आयुर्वेदिक दवाओं की दो-एक दूकानें थी अब एलोपेथिक दवाओं की असंख्य मेडिकल स्टोर खुल गए। दो अस्पताल थे अब पचास हो गए, दस-पाँच डाक्टर थे अब हजार हो गए। अधिकतर लोग मनुष्य थे अब धन-उत्पादक-यंत्र हो गए।

जारी है

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By Shri Mi
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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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