“ये सोचकर कि दरख़्तों में छाँव होती है,
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यहां बबूल के साये में आके बैठ गए। “
(सत्यप्रकाश पाण्डेय)अफ़सोस यहां ना दरख़्त बचे, न छाँव नजर आती है। कल तक सब के सब कतार में खड़े अपनी जवानी पर इठला रहे थे। अब केवल ठूंठ दिखाई पड़ते हैं। ये ठूंठ भी कुछ घंटों या फिर चन्द दिनों के मेहमान हैं। जिन्होंने दरख्तों का बड़ी बेरहमी से कत्लेआम किया वो इनके नामों- निशाँ तक मिटा देंगे। उन्हें विकास के पथ पर ऐसे कोई अवरोध नहीं चाहिए जो राहगीर को राहत देते हों, पर्यावरण का संतुलन बनाते हों । दरख़्त, जिनका पता अब खोजे नहीं मिलेगा। छाँव तलाशते-तलाशते आँखें थक जाएँगी, बेचैन और थका राहगीर इस राह पर सिर्फ बढ़ता चला जाएगा क्यूंकि इलाकें में जिस हरियाली का खुलेआम क़त्ल हुआ है वो अब फैलने [चौड़ीकरण] वाली है। विकास की किताब में एक और इबारत लिखी जाएगी जिसका कुछ ना कुछ नाम होगा। नहीं होगा तो बस इन दरख्तों का जिक्र, होना भी नहीं चाहिए। आखिर विकास किसे पसंद नहीं है ?
बिलासपुर के विकास और उसकी तरक्की के कई अध्याय मैंने ध्यान से पढ़े है। अगर इम्तहान हों तो शायद पास भी हो जाऊं। ऊँची-ऊँची इमारते, कई ओवरब्रिज। सकरी सड़कों का चौड़ा होना फिर सकरा होना। डिवाइडरों के आये दिन बदलते डिजाइन और उन पर चढ़े आर्टिफिशियल पेड़ शाम होते ही विकास की चकाचौंध को आँखों तक पहुंचाते हैं। मैंने अपने घर से लगे गौरव पथ का ‘गौरव’ भी निहारा है। पुराने पन्नों की गर्द ना भी हटाऊँ तो पिछले १५ साल से लिखी जा रही विकास गाथा आम जनमानस के दर्द को कुरेदती तो है मगर लोकतान्त्रिक व्यवस्था में चेहरे बदतले हैं, नियत नहीं। ऊपर जिन तस्वीरों को मैंने सजा रखा है वो होने वाले विकास के पहले का सबूत मात्र हैं। अब जब भी कोटा से रतनपुर की ओर बढूंगा सिर्फ और सिर्फ राह की शक्ल में फलता-फूलता विकास नज़र आएगा। सोचता हूँ तो कोफ़्त होती है, मगर क्या करूँ। मेरे शहर में सैकड़ों ऐसे चेहरे हैं जो अक्सर पर्यावरण की वकालत करते हैं। साल में कुछ ऐसे भी अवसर आते हैं जब पर्यावरण के रहनुमाओं के गले से धरती को हरा-भरा रखने का शोर फिजां में ध्वनि प्रदुषण फैलाता है। विकास की आड़ में जिस रफ़्तार से पेड़ों की बलि ली जा रही है वो भविष्य के लिए किसी त्रासदी से कम नहीं होगी। मुझे सियासत और सियासी चेहरों के अलावा नौकरशाहों से कोई शिकायत नहीं, होनी भी नहीं चाहिए । जब हम ही ज़िंदा होने के सबूत नहीं दे रहे तो ये दरख्त कभी विकास की आड़ में तो कभी किसी और कारण से कटते रहेंगे।
हर बरस बारिश में हमको इंतज़ार होता है अरपा की गोद भराई का। मगर सालों बीत गए, प्यासी अरपा का आँचल सूना है। जिम्मेवार कौन है ? वो लोग जो रेत से तेल निकालते-निकालते आज तलक नहीं थके ? या वो लोग जो अक्सर अरपा को बचाने का शोर मचाते हैं ? शायद हमारी खामोशियाँ भी उतनी ही जिम्मेवार हैं। सब कुछ विकास के लिए या विकास की आड़ में हो रहा है। फर्क उन खिदमतगारों को नहीं पड़ने वाला जो आपके, मेरे और हम सबके नाम पर अपनी अगली पौध के बेहतर इंतज़ाम के इंतजामात कर चुके हैं। हम विकास के नाम पर कहाँ धकियाए जा रहें हैं ? ठन्डे दिमाग से सोचेंगें तो यक़ीनन सामने सिर्फ सीवरेज का गढ्ढा दिखाई पडेगा। मैं घुमक्कड़ हूँ, जंगल और जंगली जानवरों की फोटोग्राफी के लिए यहां-वहां घूमता रहता हूँ। इस घुमाई में अब मुझे शहर से गाँव तक सिर्फ अकल्पनीय विकास नज़र आता है ….. और कुछ नहीं।