(प्राण चड्ढा)।माँ गंगा हो या अरपा नदी, सभी बड़ी छोटी नदियां प्रदूषित हैं और प्रदूषण कम होता दिख नहीं रहा। इनकी उदगम् भूमि से किनारे की भूमि पर कब्जा हो रहा है। माँ माने जाने वाली नदी के नाम पर राजनीति तो होती है,और नदी की दशा बिगड़ती जा रही है। सारे शहर की गंदगी सूखी नदी में,कचरा गाड़ी है वह।अरपा सहित सभी छोटी नदियों के उदगम् स्रोतों को रिचार्ज करने के लिए वहां सरोवर बनाये जाने चाहिए।जैसा पण्डित राजेन्द्र प्रसाद शुक्ल और साधुजनों की अगुवाई में नर्मदाजी के उदगम् स्रोतों को बढ़ाने कें लिये अमरकंटक में, और सोन के लिए और तिपान की उदगम् स्थली को बचने किया गया है।अरपा के उदगम् इलाके में पेयजल सप्लाई के लिए पंप लगाये जाते रहे और पर्यावरण विभाग सोता रहा। ये दूसरी नदियों बचने और देश के लिए सबक है।
दुःख है हम कोई सबक नहीं लेते। अरपा को बचाने की गई यात्रा की खबरें समाचार पत्रों में प्रकाशित हो रहीं हैं, पर नदी सुखी है और कोनी सेंदरी में रेत जिस बेरहमी से खोदी गयी, उससे बीहड़ बन गया है। तपती रेत, प्रदूषण के कारण देश में सबसे अधिक तापमान 49.3 बिलासपुर में दर्ज किया गया है।अटलजी ने नदियो को जोड़ने का स्वप्न देखा था। पर छतीसगढ़ में इस कोई काम नहीं हुआ। यदि होता तो कुछ नदियां से ही भूजलस्रोतों उन्नत होते, बरसात के पानी का उपयोग होता, नदी कम सूखती।नदियों से रेत निकलने का काम शहरी इलाके से बहुत दूर हो पर रेत माफिया नदी की मिट्टी तक रेत निकलते जा रहे हैं। ये काम क्या अधिकारी और राज पुरुषों की मिलीभगत बिना हो सकता है?
कल पर्यावरण दिवस है। मरती नदियों को बचने कुछ् करें। हम सोचे ये विरासत जैसी हमें मिली थी क्या भावी पीढ़ी के लिए हम वैसी छोड़ के जा रहें हैं। अगर नहीं तो,आने वाले हमारे कृत्य और हमको कोसेगें।