हिंदी पत्रकारिता की दुनिया में जो नाम अमर हैं, उनमें श्रद्धेय प्रभाष जोशी जी का भी नाम है। उनका जन्मदिवस 15 जुलाई को है। सहजता – सरलता तो किसी का भी व्यक्तित्व निखार देती है। लेकिन यही सहजता – सरलता लेखन में उतर जाए तब तो निश्चित ही वह लेखन अमर हो जाता है…. ऐसे महान पत्रकार के जन्मदिन पर उनकी बिलासपुर यात्रा को याद करते हुए द्वारिका प्रसाद अग्रवाल ने अपने फेसबुक वॉल पर जो लिखा है, उसे हम अपने पाठकों के लिए साझा कर रहे हैं।साथ में बिलासपुर के उस कार्यक्रम की तस्वीर भी है, जिस कार्यक्रम का जिक्र इस पोस्ट में किया गया है।
द्वारिका प्रसाद अग्रवाल का लिखाः-
जिस व्यक्ति के लेखों को पढ़कर उससे आशिक़ी हो जाए, वह अगर सामने आ जाए तो कितनी खुशी होती है ! ‘जनसत्ता’ वाले प्रभाष जोशी कई वर्ष पूर्व बिलासपुर आए थे, ‘प्रेस क्लब’ में उनका भाषण आयोजित था। मैं बिन-बुलाए घुस गया, पीछे की कुर्सी में बैठ गया। स्वागत-सत्कार की औपचारिकता के बाद प्रभाष जी कुर्सी छोडकर नीचे चबूतरे में बैठ गए और पत्रकारों से बतियाने लगे।
मेरे सामने बैठे दो युवा पत्रकार आपस में बातचीत करने लगे, मुझे सुनने में व्यवधान हो रहा था। मैंने उन दोनों को शांत रहने का अनुरोध किया लेकिन वे कहाँ मानने वाले थे, बल्कि मुझे घूर कर इस तरह देखा- ‘ये हमारी महफिल में कौन घुस आया ?’ दस मिनट बीत गए, मेरा धैर्य समाप्त हो गया , मैं अपनी कुर्सी से उठा और प्रभाष जी के ठीक सामने जमीन पर पालथी मारकर बैठ गया। मुझे देख उन्होंने अपना भाषण रोका और मुझसे पूछा- ‘आप नीचे क्यों बैठे हैं ?’
‘पीछे बैठे लोग बतिया रहे हैं, मैं आपको ठीक से नहीं सुन पा रहा था इसलिए यहाँ आकर बैठ गया।’ मैंने बताया।आप वहाँ मत बैठिए, मेरे बगल में आकर बैठिए।’ उन्होंने संकेत करके मुझे अपने पास बैठा लिया और उनका भाषण पुनः चालू हो गया।
१५ जुलाई १९३७ को खंडवा जिले के बड़वाह (पूर्वी निमाड़) में जन्मे प्रभाष जोशी की लेखन शैली अप्रतिम थी। वे जब क्रिकेट पर लिखते तो उसे पढ़कर ऐसा लगता कि ‘खेल हो तो क्रिकेट जैसा।’ राजनीति पर लिखते तो ऐसा लगता कि कोई योद्धा दोधारी तलवार लेकर निडरता के साथ अपनी कलाबाज़ियाँ दिखा रहा हो। अपने देश में जब ‘इमरजेंसी’ लगी, उस रात उन्होंने लिखा- ‘छब्बीस जून की सुबह इन्डियन एक्सप्रेस के अपने केबिन में बैठे हुए मुझे लगा था कि एक अँधेरी सुरंग में खड़ा हूँ और आँखें खोलूँ या बन्द कर लूं इससे अँधेरे के दिखने में कोई फर्क नहीं पड़ेगा। सुरंग में चलता चला जाऊं, कहाँ जाकर निकलूंगा इसका कोई अंदाज नहीं था। कहीं निकलूंगा भी या नहीं, इसका भी कोई भरोसा नहीं था। सुरंग है, अँधेरा है और जब तक कुछ दिखता नहीं तब तक यहीं ठिठके खड़े रहना है। खड़े रहो।’
एक पुस्तक मेले में उनके लेखों के संग्रह की तीन किताबें मिल गई। उन्हें पढ़ने में मुझे लगभग एक माह लग गया। जिस रात तीसरी पुस्तक समाप्त हुई, उस समय रात का दो बजा था और मैं अपने बिस्तर पर बैठा खुद पर अफसोस करते हुए रो रहा था, मेरे आँसू बह रहे थे। काश, प्रभाष जोशी मुझे मेरे जवानी के दिनों में मिल जाते तो मैं निश्चयतः अपने घर से भाग कर उनके साथ हो लिया होता और पत्रकारिता को अपने जीवन का कर्मक्षेत्र बनाता, उसके लिए चाहे कई रातों तक मुझे भूखा क्यों न सोना पड़ता !
ऐसे सहृदय मनुष्य और प्रखर पत्रकार का ५ नवम्बर २००९ को दुखद अवसान हो गया।