आबिलासपुर— सरकारी क्षेत्र के बैंक अधिकारियों ने आरबीआई के तुरंत सुधारात्मक कार्यवाही के कदम का विरोध किया है। बैंकरों ने इलाहाबाद बैंक को निगरानी सूची में डाले जाने से आरबीआई की कार्यवाही पर नाराजगी जाहिर की है। सरकारी बैंकों के अधिकारियों के सबसे ब़ड़े संगठन आईबोक ने प्रेस नोट जारी कर बताया कि रिजर्व बैंक का निर्णय ना तो आमजनों के हित में है…ना ही अधिकारियों और कर्मचारियों के पक्ष में।
सरकारी बैंकों के अधिकारियों के सबसे बड़े संगठन आईबोक ने रिजर्व बैंक ऑफ इंडिया के तुरंत सुधारात्मक कार्यवाही के तहत इलाहबाद बैंक को निगरानी सूची में डाले जाने का विरोध किया है। आईबोक के उप महासचिव और यूएफबीयू के स्थानीय संयोजक ललित अग्रवाल ने बताया कि रिजर्व बैंक ने इलाहाबाद बैंक की जिन विसंगतियों का जिक्र किया है। निश्चित रूप से आमजनों के साथ अधिकारियों और कर्मचारियों के हित में नही है।
ललित अग्रवाल ने बताया कि इलाहाबाद बैंक को मिलाकर रिजर्व बैंक आफ इंडिया ने अब तक निगरानी सूची में नौं बैंकों को रखा है। इससे पहले आईडीबीआई, इंडियन ओवरसीज बैंक, सेन्ट्रल बैंक आफ इंडिया, ओरियंटल बैंक आफ कामर्स, यूको बैंक को भी सूची में डाला है। इन बैंको को नयी जमा राशियां प्राप्त करने और नये ॠण वितरण के लिए प्रतिबंध लगा दिया है।
पिछले साल अप्रैल महीने में रिजर्व बैंक आफ इंडिया ने तुरत सुधारात्क उपायों को लेकर कुछ नियम बनाये थे। ऐसा करने की मुख्य वजह बैंको के बढते एनपीए को नियंत्रित करना था । लेकिन अब ऐसा लगने लगा है कि केन्द्रीय बैंक का नियम बैंकों को मजबूती प्रदान करने की बजाय सरकारी बैंको को विलयीकरण और निजीकरण की तरफ ले जा रहा है।
ललित अग्रवाल ने बताया कि आईडीबीआई बैंक देश का पहला बैंक है जिसे निगरानी सूची में डाला गया। जून 2017 और मार्च 2017 निगरानी सूची में डालने से पहले और बाद के आंकडो का अध्ययन करें तो आईडीबीआई बैंक की कुल जमा में 9 से 4 प्रतिशत की कमी देखी गयी। इसी प्रकार देना बैंक की कुल जमा में 6 से 3 प्रतिशत और यूको बैंक की जमा राशि में 3 प्रतिशत की कमी देखी गयी है।
आईबोक के उपमहासचिव ने बताया कि बैंको के जो ॠण डूब रहे हैं उसके पीछे बडे व्यवसायिक घरानों का योगदान है। इन ॠणों को बैंक के बोर्ड स्वीकृत करता है। बैंकों के बोर्ड में रिजर्व बैंक के प्रतिनिधि को सरकार नामांकित करती है। सभी की सहमति से ॠणों की स्वीकृति और वितरण होता है । अंदाजा लगाया जा सकता है कि डूबते ॠणों की स्वीकृति में किसका हाथ है। ॠणों को स्वीकृत करने में कोई व्यधान ना पडे इसलिए बैंको के बोर्ड में कर्मचारी और अधिकारी डायरेक्टरों को नियुक्त पर सरकार ने कई सालों से रोक लगा दिया है।
ललित ने बताया कि सरकार ना तो कर्मचारियों को और ना ही अधिकारियों के प्रतिनिधियों को बोर्ड में प्रतिनिधित्व दे रही है। भविष्य में ऐसा करने का इरादा भी नहीं दिखाई दे रहा है। दुर्भाग्य है कि ॠणों के लिये छोटे कर्मचारियों और अधिकारियों को दोषी ठहराया जा रहा है। सरकारी बैंको से ॠणों का वितरण कर किसानों, लघु उद्योगों , बेरोजगारों और महिलाओं को आर्थिक रूप से स्वावलंबी बनाया किया जा रहा है। यदि आरबीआई का यही रवैया रहा तो प्राथमिक क्षेत्रों के उत्साह में कमी आएगी।
ललित के अनुसार देश के निजी बैंकों के मुकाबले सरकारी बैंको का विकास कार्यों में कई गुना ज्यादा योगदान है। सरकार बैंको पर जमा प्राप्त करने और नये ॠण वितरण में रोक लगाकर प्राथमिक अधिकारों से दूर करना चाहती है। हास्यपद स्थिति बनती है कि सरकार एक तरफ बैंको के कायाकल्प करने का दावा करती है। दूसरी तरफ प्रतिबंध लगा रही है।
सरकारी बैंको की रोजगार देने में अहम भूमिका है । प्रतिबंधों के चलते बैंकों में नई भर्ती पर रोक लगा दी गयी है । विकासशील अर्थव्यवस्था में इस तरह का प्रतिबंध बेरोजगार युवको को हतोत्साहित करने वाला है।
बडे ॠणों के संबध में देश की संसदीय समिति की सिफारिशों को अनदेखी की जा रही है। ॠण वसूली के लिए नियम और मानदंड बदले जा रहे हैं। चहेते व्यावसायिक घरों से ॠण वसूली का अलग नियम और सामान्य लोगों के लिए अलग। रिलायंस समूह को रियायत दी जा रही है। सरकार की मंशा पर शक होने लगा है।
यूएफबीयू संयोजक ललित ने बताया कि देश के कमाबेश सभी सरकारी बैंक एनपीए की समस्या से जूझ रहें हैं। सरकार को डूबते ॠणों की वसूली के लिये प्रभावकारी कानून बनाने की जरूरत है। ना कि बैंको के क्रियाकलापों पर प्रतिबंध लगाने की। सरकार और रिजर्व बैंक देश के सरकारी बैंको को समाप्त कर देना चाहते हेैं। ताकि निजीकरण के ऐजेडे को आसानी से लागू किया जा सके। यदि सरकार और रिजर्व बैंक अपनी नीति को नहीं बदलती है तो हर हाल में इसका विरोध किया जायेगा।