कैसे बन गया बैल का डील-बैलाडीला..सदियों पहले अयस्क से आदिवासी कैसे बनाते थे हथियार…पढ़ें विशेष रिपोर्ट

BHASKAR MISHRA
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बिलासपुर/ दंतेवाड़ा….छत्तीसगढ़ का नाम ना केवल पौराणिक महत्व में शामिल है..बल्कि राज्य का ऐतिहासिक महत्व भी है। यहां राम का ननिहाल है तो भगवान राम के परमभक्त माता शबरी का भी घर है। दन्तेवा़ड़ा का नामकरण तो माता दन्तेश्वरी के नाम पर ही हुआ है। इसी तरह जिले का एक क्षेत्र बैलाडिला नाम से मशहूर है। बहुत कम लोगों को मालूम है कि बैलाडिला नामकरण के पीछे का कारण क्या है। जबकि जिले में बैलाडिला नाम से ना तो कोई गांव है और ना ही कोई शहर ही है। लेकिन इतना सब लोग जानते हैं कि बैलाडिला क्षेत्र में दुनिया दूसरा सबसे बड़ा लौह अयस्क भण्डार है।
                             भांसी, बचेली और किरंदुल कस्बों को मिलाकर ही क्षेत्र का नाम बैलाडीला रखा गया है। बैलाडिला नामकरण के पीछे प्राकृतिक कारण है। दरअसल भांसी बचेली और किरंदुल क्षेत्र के पहाड़ों को ध्यान से देखा जाए तो ऐसा लगता है कि कोई बैल बैठा  है। बैल के पीठ पर डील जैसा ऊभार है। यहीं से इस पहाड़ी क्षेत्र का नाम बैलाडिला हो गया। तस्वीर में बैल की डील का आकार आसानी से देखा जा सकता है।
                        इतिहास में बैलाडीला नाम लगभग 100 साल पहले प्रचलित हुआ। पहाड़ में दुनिया का दूसरा सबसे बड़ा लौह अयस्क भंडार है। यहां के अयस्क में 58 प्रतिशत हेमेटाइट। हेमेटाइट को दुनिया का सबसे उत्तम लौह खनिज माना जाता है। एक अनुमान के अनुसार जिस गति से बैलाडिला क्षेत्र में लौह अयस्क का उत्खनन चल रहा, कम से कम 200 सालों तक खत्म नहीं होगा।
                                              ग्यारहवीं सदी में दक्षिण के चोल वंशीय राजाओं ने बैलाडीला पहाड़ियों से लोहे का दोहन कर अस्त्र शस्त्र बनाने का कारखाना खोला। बस्तर आदिवासियों ने सभी औजार बैलाडिला के लौह अयस्क से ही बनाए। बैलाडिला पहाड़ की ऊंचाई समुद्र से 4133 फीट ऊँचा है। पहाड़ के ऊपर दो रेंज बराबर मिली हुई चली गयी हैं। दोनों रेंज के बीच कुदरती मैदान है। यहाँ से तीन नदियाँ निकलती हैं। यह जगह कभी चोलवंशीय रियासत की ग्रीष्मकालीन राजधानी हुआ करती थी.
                          19 वीं सदी के अंत में भूगर्भशास्त्री पी एन. बोस ने बैलाडिला में लोहे की खोज की। 1934-35 में जियोलॉजिकल सर्वे ऑफ इंडिया के क्रूकशॅंक  ने इलाक़े का सर्वेक्षण कर भूगर्भीय मान चित्र तैयार किया। 14 पहाड़ी क्षेत्रों लौह अयस्क भंडारों को क्रमवार चिन्हित किया। टोक्यो विश्वविद्यालय के प्रोफेसर एउमेऊरा ने जापान के इस्पात उद्योग को परिचित कराया। 1957 में जापान का एक प्रतिनिधि मंडल असादा की अगुवाई में भारत आया। मार्च 1960 में भारत सरकार और जापानी इस्पात मिलों के बीच अनुबंध के तहत बैलाडीला से 40 लाख टन कच्चे लोहे का निर्यात जापान को किया जाना तय हुआ। जापान ने धन और तकनीक दिया। जना का क्रियान्वयन राष्ट्रीय खनिज विकास निगम (NMDC) के हाथों दिया गया। जून 1963 में वहाँ कार्य प्रारंभ किया गया और 7 अप्रेल 1968 को सभी काम पूरा होने के बाद लौह अयस्क का निर्यात  प्रारंभ हुआ।
                                    बैलाडिला क्षेत्र में पाया जाने वाला लौह अयस्क “फ्लोट ओर” कहलाता है। अयस्क को जापान तक पहुंचाने के लिए बैलाडीला से विशाखापट्नम तक 448 किमी लंबे रेलमार्ग के निर्माण किया गया। भारत के सबसे पुरानी पूर्वी घाट पर्वत श्रृंखला को भेदते हुए लाइन बिछायी गयी। इंजीनियरों के अथक प्रयास से DBK रेलवे प्रोजेक्ट (दंडकारण्य बोलंगीर किरिबुरू रेलवे प्रॉजेक्ट) के तहत 448 किलोमीटर लंबी लाइन बिछायी गयी। लौह अयस्क की ढुलाई 1967 में प्रारंभ हुई।
                         विशाखापट्नम से बैलाडीला (किरंदुल) रेल मार्ग को  KK (कोत्तवलसा – किरंदुल) लाइन कहा गया। आजकल विशाखापट्नम से एक्सप्रेस रेलगाडी चलती है। सितम्बर 1980 से यह रेल मार्ग विद्युतिकृत है। ऊंचे पहाडियों पर से गुजरने के कारण बहुत ही सुन्दर नजारा देखने को मिलता है। गाडी अरकू घाटी (फूलों की घाटी) से जब गुजरती है तो धरती का सौंदर्य देखते ही बनता है।
                              . किरंदुल से लौह अयस्क रेलगाडी में पहुँचता और सीधे जहाज के गोदी में डिब्बे उलट दिए जाते हैं। एक बार में पूरे आठ रेलगाडियों को जोड़कर लौह अयस्क विशाखापट्टनम भेजा जाता है।
                                अब  जापान के साथ बैलाडिला लौह अयस्क का अनुबंध खत्म हो चुका है। अयस्क के खपत के लिए विशाखापट्नम में इस्पात संयंत्र स्थापित किया गया। बस्तर के विकास को ध्यान में रखते हुए NMDC ने जगदलपुर के नगरनार में एकीकृत इस्पात संयत्र की स्थापना की गई। कुछ निजी क्षेत्र की टाटा समूह को लोहंडीगुडा और एस्सार समूह को बचेली में उत्खनन का अधिकार दिया गया। एस्सार समूह बैलाडीला से लौह अयस्क को चूर्ण रूप में पानी के साथ पाइप लाइन से विशाखापट्नम तक पहुँचाता है। अब इन परियोजनाओं से बस्तर और छत्तीसगढ़ समेत देश का निर्माण बैलाडीला के लोहे से हो रहा है।
बहुत लोग जगदलपुर के आसपास से घूमकर चले जाते हैं। उन्हें बैलाडीला जरूर जाना चाहिए। आकाशनगर और कैलाशनगर में इन दिनों बारिश में तो बादल घर मे घुसते हैं।
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