पढ़िए..अनूप रंजन पाण्डेय ने कैसे दी बस्तर बैंड को अलग पहचान…? बिलासपुर की माटी के एक और लाल को पद्मश्री..

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(रूद्र अवस्थी)सीजीवालडॉटकॉम।ऐसे समय में जब बंदूक की गोली और सुरंगों के बीच फटने वाले बारूद की गूंज की खबरों से छत्तीसगढ़ का बस्तर इलाका देश के मीडिया की सुर्खियां बनता है……। तब अगर कोई शख्स बस्तर की लोकपरंपराओँ और लोक वाद्यों से नकलने वाली गूंज…. उसमें रची – बसी धुन को सहेजने मे लगा हो …. । और उसे बस्तर बैंड के नाम से नई पहचान दिला रहा हो , तो लगता है कि बस्तर की यह पुरानी पहचान भी सुर्खियां बननी चाहिए । सुखद खबर है कि बस्तर बैंड को मूर्त रूप देने वाले अनूप रंजन पाण्डेय का चयन  पद्मश्री पुरस्कार के लिए हुआ है……। जाने-माने रंगकर्मी अनूप रंजन बिलासपुर के ही लाल हैं। बिलासपुर की ही गलियों में अपना बचपन गुजारे…… यहां के स्कूल – कालेजों में पढे – लिखे और यहां के मंचों पर कई नाटक खेल चुके रंगकर्मी  अनूप ने शहर की  माटी को नमन् करते हुए  अपना यह पुरस्कार बिलासपुर को ही समर्पित किया है।गणतंत्र दिवस पर राष्ट्रीय स्तर पर जिन पुरस्कारों की घोषण की गई है, उनमें अनुप रंजन पाण्डेय का भी नाम शामिल है । उन्हे लोक कला के क्षेत्र में योगदान के लिए पद्मश्री पुरस्कार दिया गया है। लोककला के लिए समर्पित रंगकर्मी बिलासपुर के ही हैं। पुरस्कारों की घोषणा के बाद एक बातचीत में उहोने बिलासपुर से जुड़ी कई यादे cgwall.com  के साथ साझा कीं। बिलासपुर के रल्वे स्कूल में प्रायमरी कक्षा में  पढ़ते समय  कुंदा पिंगले मैडम ने सबसे पहले एक नाटक सिखाया था। तब से वे इस कला के साथ ऐसे जुड़े कि आज तक यह उनकी जिंदगी का अहम् हिस्सा है।

बिलासपुर में उन्होने  विनय मुखर्जी, दादा मनीष दत्त जैसे कला मनीषियों के साथ बहुत कुछ सीखा। इप्टा के साथ ही अग्रज नाट्य दल , काव्य भारती, भातखण्डे संगीत महाविद्यालय, बिलासा कला मंच और साक्षरता अभियान के दौरान कला जत्था  ने भी उन्हे सिखाया। बिलासपुर के रावत नाच महोत्सव से काफी गहरे तक प्रभावित अनूप का मानना है कि नर्तकों के समूह के बीच लोकोक्ति, मुहावरे में बहुत सी गहरी बातें छिपी हुईं हैं। सत्यदेव दुबे, शंकर शेष, श्रीकांत वर्मा का यह नगर हर समय कलाकारों को कुछ न कुछ सिखाता ही रहा है। अनूप याद करते हैं कि अपने मोहल्ले विद्यानगर में ही आयोजित होने वाले दुर्गा और सरस्वती पूजा जैसै आयोजनों से उन्हे न सिर्फ सीखने का मौका मिला , बल्कि यहां पर वे अपनी प्रतिभा को प्रस्तुत भी कर सके।
इसी तरह सीएमडी क़ॉलेज में सलाना जलसे और युवा उत्सव जैसे आयोजनों ने भी उन्हे अपनी प्रतिभा को निखारने का अवसर दिया। गुरूघासीदास विश्वविद्यालय और एनएसएस में भी उन्हे बहुत कुछ सीखने का मौका मिला। रंगमंच की दुनिया की गहराई का अहसास उन्हे तब हुआ , जब वे महान रंगकर्मी – अपने गुरू हबीब तनवीर से मिले। हबीब तनवीर से उनका मुलाकात वरिष्ठ पत्रकार पियुष कांति मुखर्जी ने कराई थी। जिनके साथ उन्होने कई नाटक खेले। हबीब तनवीर के सथ नया थियेटर से जुड़कर उन्होने चरणदास चोर, आगरा बाजार, मिट्टी की गाड़ी, जिन लाहौर नहीं देख्या, राजरथ, सड़क जैसे नाटकों में भूमिका निभाई। उनके साथ विदेशों की यात्राएं कीं। इंगलैण्ड, जर्मनी, इटली, फ्रांस, हालैंण्ड, साउथ आफ्रिका में भी नाटकों का मंचन किया। दरअसल इस बात का असर कहीं न कहीं अनूप रंजन की शख्सियत में रहा है कि उनका रिश्ता जांजगीर जिले के मुलमुला से है। बाजा मास्टर के नाम से मशहूर पं. पचकौड़ प्रसाद के परिवार से हैं। इस इलाके के नरियरा – शिवरीनारायण  में महानद थियेटर की परंपरा रही है। इधर घर में मां श्रीमती मनोरमा पाण्डेय तो भजनों की इनसाइक्लोपीडिया के रूप में पहचानी जाती रहीं। इसका भी असर उन पर रहा।


रतनपुरिहा गमम्त और नाचा से शुरू से प्रभावित रहे अनूप रंजन पाण्डेय लोकपरंपरा के वाद्य यंत्रों को सहेजने का अद्भुत शगल रखते हैं। इस खोज में उन्होने सबसे पहले खड़े साज की परंपरा का चिकारा उन्हे मिला। इस सफर में आगे बढ़े हुए वे बस्तर पहुंच गए। जहां उन्होने लिंगोदेव की गाथा में बजने वाले अठारह वाद्यों की तलाश शुरू की तो खुद को लोकपरंपरा के अद्भुत संसार में पाया। बस्तर में जितनी लोक कहानियां हैं, उतने ही वाद्यों की परंपरा है। जिनका अपना अनुशासन है। अपनी शैली है और अपना धुन है। यह अनुभूति का एक संसार है। इसकी राग – रागिनियां हैं। सामूहिक आलाप,गान,पदविन्यासऔर जुगलबंदियां हैं। जगार की परंपरा है। अनूप बताते हैं कि उन्हे सात –आठ बोलियों के लोग मिले । जो एक –दूसरे की बोलियों और परंपराओँ से परिचित नहीं थे। उन्होने सभी को आपस में जोड़ा । और उनकी मौलिकता को बचाए रखते हुए बस्तर बैंड का प्रयोग शुरू किया। जिसमें धनुष,सूपा, मटकी आदि परंपरागत वाद्यों से विलक्षण धुन निकलती है। इसकी प्रस्तुति राष्ट्रीय – अंतर्राष्ट्रीय स्तर पर हुई। जिसे पूर्व राष्ट्रपति प्रणव मुखर्जी और उपराष्ट्रपति वैंकैया नायडू ने भी देखा और सराहा भी। कॉमनवेल्थ गेम में भी इसकी प्रस्तुति हुई थी। मसूरी ट्रेनिंग सेंटर और पृथ्वी थियेटर में भी इसे राहना मिली थी। बस्तर बैंड से जुड़े सात कलाकारों को राष्ट्रीय स्तर पर पुरस्कार मिल चुके हैं।

लोककला में खैरागढ़ संगीत विश्वविद्यालय से डाक्टरेट अनूप रंजन पाण्डेय मानते हैं कि बस्तर की लोक परंपरा अनूठी है। वहां अभी जो हलचल मची है, उसके बीच भले ही यह सुनाई न दे। लेकिन हिंसा का मुकाबला हिंसा से नहीं हो सकता। बस्तर के घने जंगलों के बीच लोक परंपरा के स्वर को भी सुनना पड़ेगा। पद्मश्री के लिए चयनित होने पर उन्होने कहा कि अब निश्चित रूप से जिम्मेदारी बढ़ गई है। अभी तो काम की शुरूआत है। अभी और सीखना है। अनूप रंजन ने अपने पुरस्कार को बिलासपुर शहर  को  समर्पित करते हुए कहा कि “  मैं जन्मभूमि – मातृभूमि के प्रणाम करता हूँ। जिसने मुझे यह मुकाम दिया ।“

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