कांग्रेस ने कहा – सावरकर पर जारी डाक टिकट अंग्रेजों के साथ मिलीभगत से उन्हें बरी नहीं करता

Shri Mi
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गांधी की हत्या के लिए गठित न्यायिक कमेटी जस्टिस जीवनलाल कपूर आयोग ने भी स्पष्ट कहा है कि ‘‘सभी तथ्यों और साक्ष्यों को सामने रखने पर निश्चित रूप से साबित हो जाता है कि गांधी जी की हत्या की साजिश सावरकर और उनके ग्रुप ने की।’’ बावजूद इसके कांग्रेस यह मानती है कि सावरकर का जो भी योगदान जेल जाने से पहले 1911 के पहले भारत की आजादी की लड़ाई में था उसी को रेखांकित करते हुए उक्त डाक टिकट जारी किया गया था!

इससे सावरकर के स्वतंत्रता आंदोलन विरोधी कृति, गाँधी जी की हत्या में संलिप्तता, षड्यंत्र और अंग्रेजों से मिलीभगत को छुपाया नहीं जा सकता।

उक्त टिकट को ध्यान से देखें तो उसमें सेल्यूलर जेल को रेखांकित किया गया है, जो स्पष्ट लाईन है सावरकर की भूमिका के संदर्भ में। उसमें जो सावरकर की फोटो लगी है निश्चित रूप से वह 1921 से पूर्व की है। सावरकर की बात करें तो उसके जीवन को स्वतंत्रता आंदोलन के संदर्भ में निश्चित रूप से दो भागों में बांटा जा सकता है। सेल्यूलर जेल जाने से पहले और सेल्यूलर जेल से बाहर आने के बाद।

सावरकर नासिक के जिला मजिस्ट्रेट एमटी जैक्सन की हत्या की साजिश रचने और इंग्लैंड से पिस्तौल भेजने के आरोप में 4 जुलाई 1911 को अंडमान की सेल्युलर जेल लाया गया। इस बात के भी तथ्य हैं कि 1911 के पूर्व सावरकर एक विद्रोही षड्यंत्रकारी क्रांतिकारी के रूप में अंग्रेजो के खिलाफ काम करते रहे। लेकिन जेल जाने के 2 महीने से भी कम समय में 30 अगस्त 1911 को उन्होंने अंग्रेजों से क्षमा के लिए याचना की।

इससे स्पष्ट होता है कि एकांत कारावास के कुछ ही दिनों ने उनको तोड़ दिया। उन्होंने अंग्रेज अफसरों को खुश रखना शुरू कर दिया ताकि उनसे क्षमा प्राप्ति की कोशिश की जा सके। उसके बाद पश्चात लगातार स्वयं और अपनी पत्नी के माध्यम से अंग्रेजी हुकूमत से क्षमा याचना करते रहे।

सावरकर ने अपने लिखित क्षमा याचना में अंग्रेजी हुकूमत से कहा कि ‘‘मैं आप ही का नालायक बेटा हूं मुझे छोड़ दें तो मैं आप ही के काम आऊंगा।’’ 1921 में जब उनको रत्नागिरी भेजा गया तब से उनके क्रियाकलाप निश्चित रूप से अंग्रेजी हुकूमत के सहयोगी के रूप में रहे। राजनैतिक गतिविधियों से दूर रहने लगे। 1937 में उन पर से पाबंदी पूरी तरह से उठा ली गई। जेल से रिहाई के समय सावरकर ने अंग्रेजी हुकूमत से 100 रू. मासिक पेंशन की मांग की।

उस दौर में जब एक कलेक्टर की तनखा 15 से 18 रू. प्रतिमाह होती थी उस समय अंग्रेजी हुकूमत ने सावरकर को 60 रू. प्रतिमाह की भारी-भरकम पेंशन राशि देना मंजूर किया। इससे स्पष्ट है कि एकांतवास के चंद महीनों ने ही अंग्रेजों के विरुद्ध सावरकर की आक्रामकता को समाप्त कर दिया। वे अंग्रेजों के कृपा पात्र पेंशनभोगी वफादार बन गए। सावरकर ने अपने माफीनामा में स्वयं ही लिखा था कि ‘‘यदि सरकार अपनी कई गुना उपकार और दया करके मुझे छोड़ देते हैं तो मैं संवैधानिक प्रगति और वफादारी का कट्टर हिमायती होउंगा।’’

इसके पश्चात स्वतंत्रता संग्राम में सावरकर की नकारात्मक भूमिका स्पष्ट दिखने लगी। सावरकर ने ‘‘भारत छोड़ो आंदोलन’’ की खिलाफत की और नेताजी सुभाष चंद्र बोस के ‘‘आजाद हिंद फौज’’ आईएनए की कार्यवाही का विरोध किया। सावरकर ने यह कहा कि ‘‘ब्रिटिश सरकार के सभी युद्ध प्रयासों में भाग लेने और जो साम्राज्यवाद में सहयोग की नीति की भर्त्सना करते हैं उन कुछ मूर्खों की बात ना सुनने’’ की अपील की।

1941 में हिंदू महासभा के 23वें सम्मेलन में बोलते हुए सावरकर ने कहा था कि ‘‘हम चाहे पसंद करें या नहीं हमें अपने परिवार और घर को युद्ध के प्रकोप से बचाना होगा और यह तभी संभव है जब हम भारत के रक्षा के लिए सरकार के युद्ध प्रयासों को मजबूत बनाएं। अतः हिंदू महासभा को हिंदुओं विशेषकर बंगाल और असम में जितना प्रभावी तरीके से हो सके बिना एक क्षण गवाएं सेना के सभी अंगों में शामिल होने के लिए प्रेरित करना चाहिए।’’

इस प्रकार सावरकर नेताजी सुभाष चंद्र बोस के आजाद हिंद फौज के खिलाफ अंग्रेजी हुकूमत की सेना में भर्ती होने का आह्वान देश की जनता से किया। वास्तव में सावरकर आरंभ से ही घोर सांप्रदायिक विचारधारा के थे। ज्योतिर्मय शर्मा द्वारा लिखित पुस्तक ‘‘हिंदुत्व एक्सप्लोरिंग दि आइडिया आफ हिंदू नेशनलिज्म’’ के अनुसार मुंबई और पुणे में 1894-95 के दौरान जो धार्मिक हिंसा और दंगे हुए थे उसमें 12 वर्ष की आयु में सावरकर ने अपने सहपाठियों को साथ लेकर एक धर्म विशेष के से संबंधित स्थलों पर पथराव और तोड़फोड़ की घटना को अंजाम दिया था।

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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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