बिलासपुर । देव उठनी एकादशी पर व्रत रखकर अनुष्ठान का अपना अलग ही महत्व है। इस दिन तुलसी विवाह का भी विधान है। अपने छत्तीसगढ़ में इसे छोटी दिवाली के रूप में मनाया जाता है। गाँव -गांव, घर-घर गन्ने के मंडप के नीचे परंपरागत रंगोली सजाकर पूजा की जाती है। इस पर्व की महत्ता को अपने अनुभव और पूज्य पिताजी के यादों की विरासत को शब्दों में पिरोकर हमारे पत्रकार साथी व्योमकेश -आशू त्रिवेदी ने सोशल मीडिया पर साझा किया है। जिसे हम जस का तस प्रकाशित कर रहे हैं –
व्योमकेश त्रिवेदी का लिखा –
एकादशी व्रत का माहात्म्य अपनी जगह सही है, यह व्रत आध्यात्मिक विकास के लिए तो आवश्यक है ही, यह शरीर के लिए भी अत्यंत महत्वपूर्ण है, इसे आसानी से समझा भी जा सकता है। आध्यात्म में डूबे रहने वाले मेरे पिताजी स्व. गयाप्रसाद त्रिवेदी इस एकादशी व्रत के प्रेमी थे, जीवनभर वे पूर्ण विधि विधान से एकादशी का उपवास रहकर भजन पूजन किया करते थे, उन्हें निराहार रहकर कष्ट सहते देख उनके हम बच्चों को कष्ट होने लगता था, हम विरोध करते हुए कहते थे आप उपवास मत रहा कीजिए, लगातार उपवास रहने से आप कमजोर होते जा रहे हैं।
यह सुनकर वे हंसने लगते थे, कहते थे महीने में दो और साल में 24 एकादशी आती हैं। इन एकादशियों का आध्यात्मिक विकास, मन के शुद्धिकरण और स्वास्थ्य की दृष्टि से बहुत अधिक महत्व है। पिताजी आयुर्वेदिक वैद्य भी थे, इसलिए वे आध्यात्मिक महत्व की जानकारी देने के साथ यह भी बताते थे कि यह उपवास शरीर के लिए क्यों आवश्यक है।
वे कहते थे एकादशी के उपवास का महत्व द्वादशी की पूजा के लिए होता है। एकादशी का उपवास रहने से मन और शरीर शुद्ध हो जाता है, फिर द्वादशी को भगवान विष्णु की पूजा कर दान दक्षिणा करने से अक्षय पुण्य की प्राप्ति होती है। महीने में दो और साल में 24 दिन उपवास रहने से मन और शरीर की स्वाभाविक सर्वििसंग हो जाती है, बहुत सी समस्याओं से मुक्ति भी मिल जाती है।
वे बताते थे एकादशी में ग्रह नक्षत्रों की स्थिति कुछ ऐसी होती है, कि इस दिन अन्न ग्रहण करने से पेट में बहुत से विकार उत्पन्न होते हैं, स्थाई होने पर ये विकार ही सर्दी, बुखार से लेकर अन्य कई बीमारियों को जन्म देते हैं। लगातार एकादशी का उपवास रहकर इन समस्याओं से बचा जा सकता है।
बातचीत में पिताजी बहुत सी जानकारियां देते रहते थे, परन्तु शहरी जीवन में डूबे रहने के कारण एक कान से अंदर गई बात दूसरे कान से बाहर निकल जाती थी। पिताजी के स्वर्गवास के बाद स्वाभाविक रूप से मेरा तबादला शहर से गांव की ओर हो गया। माताजी भी एकादशी का उपवास रहती थीं, उस दिन घर में भोजन नहीं बनता था, लिहाजा मजबूरी में ही सही, मैं भी एकादशी का उपवास रहने लगा।
उस दौरान पिताजी द्वारा कही गई बातें याद आईं, मैंने उनकी लायब्रेरी से किताबें निकालकर अध्ययन करना आरंभ किया। कई किताबें छान मारने के बाद वही जानकारी मिली, जो जानकारी पिताजी स्वाभाविक रूप से बातचीत में दे दिया करते थे। जानकारी मिलने के बाद मैंने निरंतर एकादशी का उपवास रहना शुरू कर दिया। कुछ समय बाद पुनः शहर आकर भागदौड़ में व्यस्त हो गया, परन्तु एकादशी के व्रत का त्याग नहीं किया।
प्रेस की नौकरी और विपरीत रुटीन होने के बाद भी एकादशी के दिन मैंने कम से कम अन्न ग्रहण नहीं किया,अब भी नहीं करता। पिछले डेढ़ दशक से अधिक समय से एकादशी का उपवास रहते रहते अब आदत सी हो गई है, इस दिन स्वाभाविक रूप से भूख नहीं लगती।
लगातार उपवास रहने से मुझे कोई अलौकिक अंतर्दृष्टि तो नहीं मिली, माता लक्ष्मी भी छप्पर फाड़कर नहीं आईं, लेकिन अनुभव यही है कि इस दौरान विपरीत रुटीन होने के बाद भी बहुत कम सर्दी बुखार से पीड़ित हुआ, सर्दी बुखार हुआ भी तो बिना एंटीबायोटिक गटके एक दो दिन में अपने आप ठीक हो गया, अब तक शरीर का वजन नहीं बढ़ा है, बीपी शुगर चेक कराने की आवश्यकता महसूस नहीं हुई है। सबसे बड़ी बात यह कि प्रेस में नौकरी करने के बाद भी मेंटल बैलेंस बना हुआ है….
….तात्पर्य यह है कि यदि हम शरीर को बीमारियों से दूर रखने के उद्देश्य से ही एकादशी का निरंतर उपवास रहने लगें, तो हमें समाज के उन महान सेवकों के दर्शन करने का अवसर कम ही मिलेगा, जिन्हें डाक्टर कहा जाता है….आज देवउठनी एकादशी है, आज से उपवास रहने की शुरुआत की जा सकती है…
….आप सभी को देवउठनी एकादशी व तुलसी विवाह की शुभकामनाएं….