42 साल का हो गया कालीचरण का रावत नाच महोत्सव…बिलासपुर को मिली विशेष पहचान..घूंघरु की आवाज पर थिरकेगा शहर

BHASKAR MISHRA
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राउत महोत्सव में प्रदर्शन करती यदुवंशियों की टोली
 बिलासपुर—- आज से यानि शनिवार 16 नवंबर से 42 वां रावत महोत्सव का आगाज हो गया है। मतलब राउत महोत्सव की उम्र अब 42 साल हो गयी है। एक बार फिर प्रदेश की सांस्कृतिक राजधानी बिलासपुर देश दुनिया की नजर में रहेगा। कार्यक्रम का आयोजन लालबहादुर शास्त्री मैदान में किया जा रहा है। मतलब आने वाले एक सप्ताह तक शहर में जमकर चहल पहल का नजारा रहेगा। जब एक साथ सैकड़ों यदुवंशियों की टोली नृत्य और शौर्य का प्रदर्शन करेंगे तो नजारा निश्चित रूप से देखने लयाक रहेगा।
 
            बिलासपुर का रावत महोत्सव का आगाज आज यानि 16 नवम्बर से शुरू हो रहा है। प्रदेश की पहचान राउत महोत्सव की उम्र इस साल 42 साल हो गयी है। बिलासपुर में रावत नाच महोत्सव की परम्परा आज से 42 साल पहले लाल बहादुर स्कूल प्रांगण में 1978 से शुरू हुई। जो आज बिलासपुर शहर की पहचान बनकर देश दुनिया के किताबों में शामिल हो चुका है। 
 
ऐसे हुआ महोत्सव का जन्म
 
              राउत महोत्सव के संयोजक डॉ.कालीचरण यादव ने बताया कि आयोजन से पहले तक रावतों की टोली असंगठित तौर पर शहर के कई हिस्सों में अपना शौर्य प्रदर्शन करती थी। रदर्शन के दौरान कई बार टोलियों को खतरे का सामना भी करना पड़ता रहा है। आपस में लड़ाई-झगड़े जैसी नौबत भी आ जाती थी। इस मुश्किल से बचने के लिए के लिए एक टीम का गठन किया। टीम ने  बीड़ा उठाया कि ऐसी स्थिति से बचने के लिए कोई ना कोई उपाय जरूरी है। परम्परा निर्वहन के साथ लोगों के साथ आपसी भाई चारा को बनाए रखने के लिए भगीरथ प्रयास होना जरूरी है। टीम ने सबसे पहले असंगठित रावत नाच की टोलियों को एक किया। उनके सामने संगठित होकर कार्यक्रम की बात रखी गयी। इसके बाद राउत महोत्सव कार्यक्रम का जन्म हुआ। यही से सर्वश्रेष्ठ टीम को सम्मानित करने की परम्परा भी शुरू हुई। 
 
परम्परा का वाहन
 
                       डॉ.कालीचरण यादव ने बताया कि रावत नाच का भारतीय संस्कृति में अहम् स्थान है। इसका  सांस्कृतिक, सामाजिक और आध्यात्मिक महत्व है। महोत्सव के बहाने समाज में पशुसेवकों का सम्मान होता है। यदुवंशियों के महत्व को महोत्सव के बहाने सबके सामने रखा जाता है।
  
                    दीपावली के बाद तमाम यादवों को तकरीबन 1 पखवाड़े तक उन्हें उत्सव मनाने का अवसर दिया जाता है। इस बीच पशुसेवक समय के साथ आंशिक ही सही लेकि पशु सेवा के काम से दूर रहते हैं। समाज के तमाम उन लोगों से टोलियों में जाकर मिलते जुलते हैं। जिनसे उनका रोज का मिलना जुलना होता है। इस तरह से यदुवंशियों की टोलियों को घर-घर सम्मान स्वरूप उपहार मिलता है। निश्चित रूप से यह भारतीय पारंपरा में सांस्कृतिक महत्व को उजाकर करने वाला पक्ष है। 
 
 विशेष सज्जा और परिधान
 
                 रावत महोत्सव को कृषि संस्कृति में विशेष स्थान हासिल है। डॉ. कालीचरण ने बताया कि प्रदेश के मैदानी क्षेत्रों में इसे धूमधाम से मनाया जाता है। महोत्सव के दौरान यादवों की टोली विशेष वेशभूषा में पहुंचती हैं। जो उनके पारंपरिक और सांस्कृतिक महत्व को उजागर करता है। यादवों के साज-सज्जा में पैरों में घुंघरू, हाथ में तेंदू की लाठी, आकर्षक रंगीन धोती और काजल का टीका, विशेष तरह की पगड़ी शामिल है। 
 
                प्रदर्शन के दौरान विशेष चौपाई और मुहावरों को गाया जाता है। जैसे भैया लिए दिए…वैसे देव अशीष…अनधन तुंहर घर भरे…..जुग जीयो लाख बरीस…जैसे आदर्श दोहे मन को गदगद करते हैं।
 
साम्प्रदायिक सौहार्द और महत्वपूर्ण संदेश..
 
              डॉ. यादव ने जानकारी दी कि पुरुष प्रधान रावत नृत्य में पुरुष ही महिलाओं की वेशभूषा में नजर आते हैं। नृत्य के दौरान विभिन्न दोहों के माध्यम से लोक कल्याण की कामना करते हैं। रावत नाच को कृष्णलीला के रूप में भी देखा जाता है। राउत नाच और महोत्सव को साम्प्रदायिक सौहार्द और महत्वपूर्ण संदेश वाहक के रूप में शुमार है।
 
             डॉ.कालीचरण ने बताया कि हर साल की तरह इस बार भी विशेष प्रदर्शन करने वाले रावत टोली को प्रोत्साहित किया जाएगा। हजारों की संख्या में लोग रावत महोत्सव का आनन्द लेने पहुंचेंगे।

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