बकरीद पर जशपुर में नमाज़ के बाद लोगों ने एक दूसरे को गले लगाकर दी मुब़ारकबाद

Chief Editor
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जशपुर । आज इस्लाम धर्म का दूसरा सबसे बड़ा त्योहार ईद उल अजहा यानी बकरीद है।इस मौके पर जशपुर के जामा मस्जिद में बकरीद की नमाज सुबह 8 बजे अदा की गई। जिसमें काफी संख्या में नमाज के लिए मस्जिद में आये । बकरीद, मुस्लिम समाज के प्रमुख त्योहारों में से एक है. मुस्लिम समुदाय के लोग इस त्योहार पर बकरे की कुर्बानी देते हैं. आज बकरीद के अवसर पर मुस्लिम समुदाय के सभी लोग नमाज के बाद सभी एक-दूसरे के गले लगा कर बधाई दिए. इसके बाद इस्लामी धर्मगुरू लोगों के घरों में जाकर कुर्बानी कराई आज बकरीद पर दोस्तों व समाज के लोगों को दावत भी दी गई। दावतों का दौर देर रात तक चलता रहेगा।

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क्यों मनाई जाती है बकरीद

जामा मस्जिद के मौलाना मंसूर आलम फैजी ने बताया कि बकरीद के इस त्योहार को त्याग और कुर्बानी के तौर पर मनाया जाता है. कुर्बानी के साथ ही ज नमाज अदाकर सलामती की दुआ की जाती है. बकरीद को मनाने का भी अपना एक इतिहास है. इसका इतिहास अल्लाह के पैगंबर हजरत इब्राहिम से जुड़ा हुआ है. इस्लाम धर्म की मान्यताओं के मुताबिक, हजरत इब्राहिम ने जब अपने बेटे की कुर्बानी देने का निश्चय किया तभी इस पर्व की नींव पड़ी.

उन्होंने बताया कि हजरत इब्राहिम अल्लाह के पैगंबर थे. एक बार अल्लाह ने उनकी परीक्षा लेने की ठानी. अल्लाह उनके सपने में आए तो उनसे उनकी सबसे प्यारी चीज की कुर्बानी देने की मांग की. हजरत इब्राहिम की नजर में उनकी सबसे प्यारी चीज उनका बेटा इस्माइल था. कहा जाता है कि उनके बेटे का जन्म तब हुआ था जब इब्राहिम 80 साल के थे. इसलिए भी उन्हें अपने बेटे से विशेष लगाव था. सपने में अल्लाह के आने के बाद हजरत इब्राहिम ने फैसला लिया कि उनके पास सबसे प्यारी चीज उनका बेटा है, इसलिए वो उसे ही अल्लाह के लिए कुर्बान करेंगे.
फैसला करने के बाद हजरत इब्राहिम बेटे की कुर्बानी देने के लिए निकल पड़े. इस दौरान उन्हें एक शैतान मिला और उसने उन्हें कुर्बानी न देने की सलाह दी. शैतान ने कहा, अपने बेटे की कुर्बानी कौन देता है भला, इस तरह तो जानवर कुर्बान किए जाते हैं. शैतान की बात सुनने के बाद हजरत इब्राहिम को लगा कि अगर वो ऐसा करते हैं तो यह अल्लाह से नाफरमानी करना होगा. इसलिए शैतान की बातों को नजरअंदाज करते हुए वो आगे बढ़ गए. बेटे की कुर्बानी से पहले आंखों पर पट्टी बांध ली.

जब कुर्बानी की बारी आई तो हजरत इब्राहिम ने आंखों पर पट्टी बांध ली क्योंकि वो अपने आंखों से बच्चे को कुर्बान होते हुए नहीं देख सकते थे. कुर्बानी दी गई, फिर उन्होंने आंखों से पट्टी हटाई तो देखकर दंग रह गए. उन्होंने देखा की उनके बेटे के शरीर पर खरोंच तक नहीं आई है. बेटे की जगह बकरा कुर्बान हो गया है. इस घटना के बाद से ही जानवरों को कुर्बान करने की परंपरा शुरू हुई.

गरीबों में बांटा जाता है कुर्बानी का एक हिस्सा

मुस्लिम धर्मशास्त्रों में गरीबों का खास ख्याल रखने की बातें कही गई है। बकरीद में यहां बकरे की कुर्बानी दी जाती है। अंजुमन इस्लामिया जशपुर के सदर महबूब अंसारी ने बताया कि धार्मिक परंपरा के अनुसार कुर्बानी के सामान को तीन हिस्सों में बांटा जाता है। पहला हिस्सा खुद एवं परिवार के लिए, दूसरा हिस्सा दोस्तों व एहबाबों (रिश्तेदारों) में एवं तीसरा हिस्सा गरीबों में बांटा जाता है। वे गरीब जो कुर्बानी नहीं कर सकते, उन्हें इसका मलाल न रहे, इसका विशेष ध्यान रखा जाता है।

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