CG NEWS: जैसे विमल मित्र के बिलासपुर में बिताए दिनों को शहर याद करता है, वैसे ही कथाकार देवेन्द्र की भी पहचान रहेगी

Chief Editor
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CG NEWS :बिलासपुर । “बिलासपुर शहर इस बात को याद कर हमेशा गर्व महसूस करता है कि “साहेब बीबी और गुलाम.” जैसा उपन्यास लिखने वाले विमल मित्र ने बिलासपुर शहर में भी अपना समय बिताया था । जब वे रेल्वे में नौकरी करते थे । इसी तरह जाने माने कथाकार देवेन्द्र  भी सेन्ट्रल युनिवर्सिटी में काम करते हुए लंबे समय तक बिलासपुर में रहे। इसे याद करके बिलासपुर हमेशा गर्व महसूस करेगा..।” ये बातें बिलासपुर के संभागीय कमिश्नर और साहित्यकार डॉ. संजय अलंग ने उस कार्यक्रम की अध्यक्षता करते हुए कही, जिसमें युनिवर्सिटी से रिटायरमेंट के ठीक एक दिन पहले अपनी लिखी कहानी “क्षमा करो हे वत्स” का पाठ किया और प्रार्थना भवन सभागार में मौज़ूद सभी लोगों को अपनी मार्मिक कहानी में डुब़ोकर भाव विभोर कर दिया ।

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श्रीकांत वर्मा पीठ बिलासपुर की ओर से शुक्रवार को कथाकार देवेंद्र का कहानी पाठ रखा गया। ‘क्षमा करो हे वत्स’ कहानी के पाठ से उन्होंने सभी को भावविभोर कर दिया ।जल संसाधन विभाग के प्रार्थना भवन सभागार में कार्यक्रम अध्यक्षता डॉ. संजय अलंग संभागायुक्त बिलासपुर एवं साहित्यकार ने की ।

पीठ के अध्यक्ष रामकुमार तिवारी ने कहानीकार देवेंद्र और डॉ संजय अलङ्ग का पुष्पगुच्छ से स्वागत किया एवं स्वागत शब्द में कहा कि- 80 के बाद उभरे हिंदी कहानी के परिदृश्य में देवेंद्र महत्वपूर्ण कथाकार हैं।उनकी पहली कहानी :शहर कोतवाल की कविता’ के प्रकाशित होते ही वे चर्चित हो गए थे।उनकी कहानियों की भाषा कथ्य और शैली लोकमयी है और उन्होंने मनुष्य और समाज के स्याह पक्षों को अभिव्यक्त करने नैतिक साहस किया है।

 

तत्पश्चात देवेंद्र ने अपनी कहानी ‘क्षमा करो हे वत्स’ का पाठ किया । जिसे श्रोताओं ने बड़े धीरज और जिज्ञासा से सुना और उसमें डूबते चले गए। कहानीकार ने आत्मकथात्मक शैली में लिखी इस कहानी में 10 वर्षीय पुत्र के अपहरण के बाद घटनाक्रम को बड़ी सहजता,जनपदयिता,रोचकता और भावनात्मकता से गति दी । कहानी के माध्यम से लेखक अपने अंदर के देवेंद्र को उसी रुप में प्रस्तुत करने के चक्कर में मूल शीर्षक को अपनी नंगी आत्म कथा की परिधि पर रख कर चलते दिखे । जो जिज्ञासुओं को संपूर्ण कहानी की तह तक जाने बाध्य कर देता है।

बेरोजगारी पर माँ द्वारा समय-समय पर किये जाने वाले व्यंग्याक्षेप से घाव को नकोटने से तिलमिलाये हुये देवेंद्र का बनारस की गलियों में नौकरी के लिए खाक छानना,बेरोजगार आदमी की गृहस्थी की ककहरा पढ़ी औरत से शादी हो जाना, तीसरे मनुष्य को जीवन देने में अर्थ अक्षम दंपति का भ्रूण गिराने का प्रयास करना, डाक्टर की डाँट पर समझौता कर माँ की ममता के महत्व को समझते हुये भी गर्भावस्था का भेषज व्यय चिकित्सा अनुश्रयण का दवाई आदि के व्यय भार से झुंझलाये देवेंद्र नाम के पति से त्रस्त होकर एक स्त्री का भ्रूण हत्या के लिए तैयार हो जाना देवेंद्र को झकझोर कर रख देता है।

तब जाकर उन्नीस सौ सत्तासी में लखीमपुर खिरी में महाविद्यालय में सहायक प्राध्यापक की नौकरी मिलती है पर पता नहीं क्यों देवेंद्र की घुमक्कड बाजी व मस्तमौला पना को पंख तो लग जाते हैं । पर उसकी धर्म पत्नी आम परदेशिहा की तरह मेहरारु को चट्टी और शहरी जीवन से बहुत दूर ससुर, सास, भसूर के बंद दरवाजे लाले चौखट पर टंगे परदा और घूंघट के अंधेरे से बाहर निकालने में मरदत्व की नपुंसकता से ग्रस्त ही रहता है। पुरुषों के बीच बैठ कर नारी व समाज की अश्लील व्यवहारों पर प्रो:फेस करने में अपने को प्रगतिशील वादी बताने के लिए अफीमची चेहरा बनाये छुट्टियों में अपनी पति धर्म का खटिया तोड़ने व गोरे-चिट्ठे चाँद से बच्चे को गंवई संस्कार देने का कुतर्क देकर बनारस शहर की भाभी को निरुत्तर करता रहता है।

पत्नी की दूरभाष पर कई माध्यमों से प्रेषित सूचना पर भी बे मतलब की बाल में खाल निकालने व एकमात्र बच्चे के अपहृत हो जाने को अपने अटकी बटकी,टूटे बटन,मुर्गी के दाने बराबर तनख्वाह आदि से जोड़ कर यह सिद्ध करना कि यह सब कुछ पत्नी का एक बहाना है प्रो:फेसर देवेंदरवा को गांवे बुलाने का…। तब तो लेखक अति कर देता है जब वह देवेंद्र को मरहद गांव न जाकर लखीमपुर वापस जाने की मनःस्थिति में ला खड़ा कर देता है।

 

कहानी में पुलिसिया मिलीभगत से अपराधियों को समाज में मिल रही सुरक्षा पर सीधा प्रहार है। डी आई जी श्रेणी की तजूर्वेदार आदेश को दरोगा नहीं मानता। क्योंकि उसकी पीठ पर किसी न किसी राजनीतिक गुण्डे का रावणी हाथ रहता है। एसपी का निकम्मापन पर निरर्थक घोड़ा भटकाना भी पुलिस तंत्र की कलई खोलती कहानी तब मोड़ लेती है जब दरवाजे पर देवेंद्र व एक माँ के बेटे की लाश खेत में फेंके होने की सूचना मिलती है। शक की सूई बड़े भाई के बीडीसी चुनाव में मिली जीत की खुशी से रंज रखने वाली प्रतिशोध का परिणाम दिखता है।काश प्रो फेस देवेंदर अपने अंदर के प्रोफेसर को पहचान कर अपने बेटे के साथ अपनी पत्नी को भी शहरी जीवन में अपने साथ रखने का अपना पिता-पत्नी धर्म निभाया होता। कहानी का दुखांत क्षण तब होता है जब एक बाप अपने हृदय के टुकड़े की मांस लगी खोपड़ी को हाथों में लेकर ढ़ ण त्र से खत्म होने वाली फांकागिरी वाली प्रगतिशीलता की कविताओं से अंत्याक्षरी की प्रतियोगिता जीत लेने का गुर सिखाता दिखता है  ।आंखों में पश्चाताप का समंदर लिए…..लेखक क ई स्थान पर रामधारी सिंह दिनकर की रचना को, संस्कृत सुभाषित को रेखांकित कर अपने पढ़े लिखे होने की पुष्टि करता दिखता है पर….एक स्थान पर अपना हृदय का टुकड़ा खो चुकी माँ का यह पूछते हुये पुरुष को ललकारने की कोशिश कि- ” बदला तो लेंगे न…” ।पर लेखक ने जो कसमसाहट के साथ संयम बरता है वह क़ाबिले समझदारी है। पर उस स्त्री को अपने भर्तार में छिपी कायरता भी दिखी होगी।

क्षमा करो हे वत्स! कहानी के माध्यम से बेरोजगारी का वैयक्तिक विचारधारा,सामाजिक स्थिति पर पड़ने वाले प्रतिकूलताओं, दाम्पत्य जीवन की जिम्मेदारी,पत्नी के अंदर की श्री शक्ति को पहचान देने, संतान को स्वस्थ सुरक्षित विकास देने की जिम्मेदारी और खुदगर्जी का पतलून पहनने वाले पुरुष के पुरुषत्व पर लेखक ने स्वयं हो कर प्रहार करने का बहुत देर से प्रयास किया है।

“क्षमा करो हे वत्स!” कह देने से मनुष्य की अति व्यक्तिवादी सोंच, लापरवाही,गैर जिम्मेदारीपना से कारित पाप क्षम्य नहीं हो जाता।

 

 

अध्यक्षीय भाषण में डॉ संजय अलंग ने कहा कि देवेंद्र क्षेत्रीयता से सौरभौमिकता को छूने वाले देश के विलक्षण कहानीकर है।बिलासपुर को इस चीज़ पर गर्व होगा कि देवेंद्र यहां काम करते थे।सौम्यता और धीरज के मानवीय गुण उन्हें श्रेष्ठ बनाते हैं।उनके पास कथा की वह शैली है जिससे वहां पाठक अपने को कहानी से सहज ही जोड़ लेता है।

 

अंत मे राम कुमार तिवारी ने कहानी के बारे में कहा कि…घटना कोई व्यक्तिगत नहीं होती उसकी कीमत पूरा समाज चुकाता है।क्षमा करो हे वत्स’ कहानी पूरे भारतीय क्षरण की कथा है।एक तरह से यह भारतीय जनपदो का शोक गीत है।

कार्यक्रम का सफल संचालन श्री कुमार पाण्डेय व सुमित शर्मा द्वारा किया गया। कार्यक्रम में  राजकुमार अग्रवाल, रूद्र अवस्थी,अरुण दावडकर,राजेश दुआ,मधुकर गोरख, सतीश जयसवाल,अजय श्रीवास्तव वीरेंद्र गहवई ,प्रो गौरी त्रिपाठी ,प्रोफ़ेसर मुरली,द्वारका प्रसाद अग्रवाल सुनील चिपड़े,अरुण भांगे, महेश श्रीवास एमडी मानिकपुरी राजेंद्र मौर्य ,राघवेंद्र धर दीवान, खुर्शीद हयात महेंद्र साहू, मुदित मिश्रा, सत्यभामा अवस्थी, पुष्पहास पाण्डेय, संजय पाण्डेय , वीरेंद्र अग्रवाल सहित विश्वविद्यालय के छात्र साहित्यकार प्रोफेसर समाजसेवी एवं शहर के गणमान्य जनों ने हिस्सा लिया।

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