पढ़िए…कैसे हुआ राज्यसभा उम्मीदवारों का फैसला..?Chhattisgarh की सियासत पर,“आलाकमान” की पैनी नज़र-का एक अँदाज़

Shri Mi
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पहला सीन-( करीब़ 15-20 दिन पहले ) अरे भई इस बार छत्तीसगढ़ से राज्यसभा में कौन-कौन जाने वाला है… आप जानते हैं क्या…? दूसरा सीन-( आज की तारीख़ पर ) अरे भई इस बार छत्तीसगढ़ से राज्यसभा में कौन- कौन जा रहा है .. आप उन्हे पहचानते हैं क्या… ? इन दोनों ही डॉयलाग को सुनकर कोई भी समझ सकता है कि कांग्रेस ने राज्यसभा के लिए जिन उम्मीदवारों के नाम तय किए हैं… उसे लेकर छत्तीसगढ़ में आम लोग क्या सोच रहे हैं…। कई दिनों की मशक्कत और मंथन के बाद जो नाम निकलकर आए हैं, उन्हे देखते ही शनिवार की रात सोशल मीडिया पर तरह-तरह के तंज़ भरे कमेंट देखने-सुनने-पढ़ने को मिल रहे हैं। जिनका लब्बोलुआब यह है कि जिन लोगों ने छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की सरकार बनाने के लिए दिन – रात मेहनत की , उन्हे ईनाम मिल गया है…..।

             
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छत्तीसगढ़ और राजस्थान के मुख़्यमंत्रियों ने अपनी-अपनी सरकार को बचाने के लिए बाहरी उम्मीदवारों को स्वीकीर किया …. और किसी तरह का प्रतिरोध नहीं किया …।….कांग्रेस को छत्तीसगढ़ में कोई भी क़ाब़िल नेता नहीं मिला …. इसलिए पार्टी ने बाहर से उम्मीदवार लाया है…। यह कांग्रेस की हाईकमान संस्कृति का ही एक नमूना है, जिसे पैराशूट कल्चर ही अधिक शूट करता है….। और इस कल्चर को ख़ाद पानी देते समय कांग्रेस पार्टी का आलाकमान यह भी नहीं देख़ता कि इससे ख़ुद उसकी जड़ सूख़ती जा रही है….। वगैरह… वगैरह…।

राजयसभा चुनाव के लिए कांग्रेस उम्मीदवारों की सूची देखकर कोई भी अगर समीक्षा करना चाहे तो वह इन शब्दों के साथ अपनी बात शुरू कर सकता है। सच यह भी है कि सियासत में ऐसी बातें बहुत दिनों तक याद नहीं रखीं जाती। उसी तर्ज़ पर लोग कुछ दिन बाद इस बात को भी भूल ही जाएंगे कि छत्तीसगढ़ से कौन राज्यसभा सांसद है …. और उनमे से कौन छत्तीसगढ़िया … और कौन गैर छत्तीसगढ़िया है…। आख़िर कितने लोग हैं , जो अपने नुमाइंदों को हर दिन याद करते होंगे। लेकिन सियासत के मैदान पर ज़ो कुछ होता है, उसकी समीक्षा तो उस समय के परसेप्शन पर होती है…। इस नज़रिए से देख़े तो हाल-फ़िलहाल यही नज़र आ रहा है कि कांग्रेस हाईकमान की ओर से तय किए नाम छत्तीसगढ़ के लोगों के गले नहीं उतर रहे है और हाईकमान के नज़रिए पर भी सवाल उठ रहे हैं।

और पूछा तो यह भी जा रहा है कि क्या हाईकमान ऊपर बैठकर यह भी नहीं देख पाता कि किस सूब़े के लोग किस वज़ह से उनकी पार्टी के साथ खड़े हैं…। सिलसिलेवार देखा जाए तो यह बात सच है कि दो वज़हों से 2018 के विधानसभा चुनाव में छत्तीसगढ़ के लोगों ने कांग्रेस का साथ दिया था । अव्वल तो पार्टी ने अपने जनघोषणा पत्र में अढ़ाई हज़ार रुपए क्विंटल में धान खरीदी के साथ किसानों की कर्ज़ माफ़ी का वादा किया था । दूसरी बात यह कि सूबे के लोग पन्द्रह साल तक बीजेपी की सरकार से उक़ता गए थे । लेकिन इसके बाद जिस तरह से कैबिनेट की पहली मीटिंग में किसानों के हक़ में फैसले लिए गए, उससे नई सरकार पर भरोसा बढ़ा। इसके बाद सीएम भूपेश बघेल ज़िस तरह से छत्तीसगढ़िया पहचान के साथ लोगों से रू-ब-रू हुए उससे लोगों के बीच कांग्रेस पार्टी की साख़ भी बढ़ती गई ।

यही वज़ह है कि सरकार बनने के बाद छत्तीगढ़ में विधानसभा के ज़ितने भी उपचुनाव हुए, सभी ज़गह कांग्रेस को ही क़ामयाब़ी मिलती गई। हरेली-तीजा-पोरा, गेंड़ी-भौंरा से लेकर बासी – बोरे तक हर मौक़े पर कांग्रेस की विचारधारा से अलग सोच रख़ने वाले लोगों ने भी भूपेश बघेल की तारीफ़ की। यह सिलसिला अब भी चल रहा है और छत्तीसगढ़ में कांग्रेस की ताक़त के पीछे इस परसेप्शन की अहम् भूमिक़ा नज़र आती है।

राजनीतिक टिप्पणीकार भी मानते हैं कि पिछले कुछ सालों में लगातार देश के कई राज़्यों में अपनी पैठ ज़मा रही बीजेपी के लिए भी यह एक बड़ी चुनौती है। दिल्ली से लेकर छत्तीसगढ़ तक बीजेपी के तमाम बड़े नेताओं के बीच लगातार इस बात को लेकर मंथन होता रहा है कि भूपेश बघेल के इस दाँव का कौन सा काट पेश किया जाए। लेकिन पार्टी ने पन्द्रह साल तक सरकार चलाते हुए अपनी जो पहचान बनाई थी, उसकी वज़ह से वह अब तक नए दाँव की तलाश में ही लगी हुई है। कुल मिलाकर यह दिख़ता है कि 2023 में होने वाले विधानसा चुनाव में यह एक मुद्दा बन सकता है।

लेकिन राज़्यसभा उम्मीदवारों की फ़ेहरिश्त देखने के बाद लोगों के सामने यह सवाल भी उठ रहा है कि छत्तीसगढ़ की मौज़ूदा सियासत को लेकर जो चीज़े दिन के उज़ाले की तरह साफ़- साफ़ दिखाई दे रहीं ..। और जिसे कोई भी आम आदमी अपनी ख़ुली आँखों से देख रहा है। क्या यह सब़ कांग्रेस पार्टी के रहनुमाओं को नज़र नहीं आ रही हैं। ख़ासकर ऐसे समय में जब 2023 में विधानसभा के चुनाव होने वाले हैं। यह बात कोई पक्के तौर पर नहीं कह स़क़त़ा कि ऊपर से थोपने की संस्कृति ने ही देश में कांग्रेस का यह हाल किया है। लेकिन छत्तीसगढ़ में इसका क्या असर होगा यह तो देखा ही जाना चाहिए था । चुनावी साल में दो लोगों को छत्तीसगढ़ से राज्यसभा भेजकर कांग्रेस कई जाति-समुदाय को साध सकती थी। यह मौक़ा उसके हाथ से निकल गया ।

फ़िर सबसे अहम् बात है कि ज़िस छत्तीसगढ़िया मुद्दे के ज़रिए कांग्रेस छत्तीसगढ़ में अपना भरोसा मज़बूत कर रही थी और ऐसे समय में कर रही थी, जब देश के तमाम हिस्सों में कांग्रेस पार्टी कमज़ोर होती जा रही है ।( कांग्रेस पार्टी सिर्फ़ छत्तीसगढ़ और राजस्थान दो राज़्यों पर सिमट कर रह गई है )। तब तो बाहरी उम्मीदवारों को थोपने के फ़ैसले से इस तरह की मुहिम को धक्का लगेगा ही । इस मामले से ज़ुड़ा एक पहलू यह भी है कि छत्तीसगढ़ में 2018 चुनाव से पहले उस समय के पीसीसी चीफ़ भूपेश बघेल के साथ मिलकर सूबे के ज़मीनी कार्यकर्ताओं ने भी ख़ूब़ मेहनत की थी । आलाकमान के इस फ़ैसले से ज़मीऩी कार्यकर्तों को भी झटक़ा लगा है। भले ही यह क़सक खुलकर सामने नहीं आ रही है । लेकिन सोशल मीडिया पर चल रहे पोस्ट देखकर कोई भी अँदाज़ा लगा सकता है कि किस तरह के तंज़ के साथ 2018 की जीत दिलाने वालों को बधाई दी जा रही है। एक कमेंट यह भी..

मशक्कत रात दिन कर के टुकड़े को तरसते हैं..
हम पर तो शोक के बादल हरदम बरसते हैं…..

उधर बीजेपी को बैठै-बिठाए एक मुद्दा भी हाईकमान ने थमा दिया है। बीजेपी इसका कितना फ़ायदा उठा पाएगी , यह कहना तो अभी जल्दबाज़ी होगी । लेकिन फ़िलहाल यह कहने में कोई गुरेज़ नहीं है कि पिछले काफ़ी समय से मुद्दे की तलाश में भटक रही बीज़ेपी के हाथ एक मुद्दा ज़रूर लग गया है…। शायद यह भी छत्तीसगढ़ की 36 पॉलिटिक्स का एक नायाब़ नमूना है..।

By Shri Mi
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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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