(गिरीश मिश्रा)आधुनिक समय में भी मेले का उल्लास आज भी उसी तरह नजर आता है ,जिस तरह प्राचीन समय में हुआ करता था ।प्राचीन समय से चली आ रही इस मेले की परंपरा पर ध्यान दें तो फसल कटने के पश्चात भारत के विभिन्न हिस्सों में मेले का आयोजन किया जाता था।लोग दुरूह कृषि कार्य के बाद जब फुर्सत में होते थे। तब उन्हें अपनी जरूरतों का सामान खरीदने मेले का बेसब्री से इंतजार रहता था। व्यापारी भी अपना माल लेकर अलग-अलग जगहों के मेले में शामिल हुआ करते थे। अनेक महत्व को समेटे भारत के विभिन्न हिस्सों में मेले का आयोजन आज भी किया जाता है। आज के दौर में मेले का महत्व कम नहीं हुआ है। बल्कि लोग मेले का आनंद उठाने पूरी शिद्दत के साथ मेले में सपरिवार शामिल होते हैं । आधुनिकता का असर मेले में दिखाई देता है । परंतु मेला आज भी उसी प्राचीन रूप में नजर आता है । जहां उखरा ,जलेबी, मिट्टी और लकड़ी के खिलौने के स्वरूप में अभी तक कोई परिवर्तन नहीं हुआ है । बसंत पंचमी के बाद छत्तीसगढ़ के अलग-अलग हिस्सों में राजीम,रतनपुर, बेलपान,पीथमपुर, शिवरीनारायण में मेला भरने की परंपरा प्राचीन काल से चली आ रही है
मेले में स्थानीय उत्पाद की बिक्री के साथ देश के विभिन्न प्रांतों के उत्पाद मेले में आसानी से मिल जाता है ।साथ ही नाच- गाना, फ़िल्म धर्म ,कला ,संस्कृति का जुड़ाव और आदान-प्रदान भी मेले के माध्यम से होता है।जिस स्थान पर मेले का आयोजन किया जाता है । प्राचीन समय से ही इसके पीछे एक निश्चित विशेष कारण और उद्देश्य शामिल है । धार्मिक स्थलो के आध्यात्मिक महत्व होने के साथ ही साथ अलग-अलग जाति धर्म धर्म के लोग मेले में शामिल होकर अपने विवाह योग्य संतानों के लिए वैवाहिक चर्चा कर आपसी संबंधों को मिठास देते थे इसके अलावा मेले के माध्यम से ही लोग अपने दूरदराज स्थित नातेदारी संबंधियों को सुख-दुख के संदेश संवादिया के माध्यम से प्रेषित किया करते थे ।
प्राचीन समय में ज्यादातर मेला उन्हीं स्थानों पर आयोजित किया जाता था जहां राजा -रजवाड़ा, रियासत और जागीर आर्थिक रूप से बेहद संपन्न और मजबूत हुआ करती थी । व्यापारी गृह उद्योग और कुटीर उद्योग के माध्यम से साल भर अपना उत्पाद तैयार करते थे । इसके पश्चात दूरदराज इलाके की मेला घूम घूम कर पूरे 3 माह तक अपने उत्पाद का बिक्री अच्छा मुनाफा की उम्मीद करते थे और यह परंपरा आज भी शामिल है । जहां व्यापारियों के और मेला घूमने वालों के सगे संबंधी परिवार एक साथ रहकर विभिन्न हिस्सों के मेले में घूम कर शामिल होते थे और आनंदित होते थे इस तरह मेले का परंपरा आज भी जीवंत स्वरूप में भारत के विभिन्न हिस्सों में दिखा जा सकता है ।
संभागीय मुख्यालय बिलासपुर में भी काफ़ी पुराने समय से मेले की परंपरा चली आ रही है। यहां चांटीडीह में हर साल महाशिवरात्रि पर मेला लगता है। हालांकि समय के साथ इस पर भी आधुनिकता की झलक मिलती है। लेकिन मिट्टी के खिलौने और काठ की गाड़ी आज भी चांटीडीह मेले में आकर्षण का केन्द्र बनी हुई है।