दैनिक भास्कर के संपादक रहे वरिष्ठ पत्रकार प्राण चड्ढा जी ने हिंदी पत्रकारिता दिवस पर अपने फेसबुक वाल पर एक पोस्ट साझा की है। अपने सुदीर्घ अनुभव के आधार पर उन्होने मौज़ूदा पत्रकारिता का सच सामने रखा है। जिसे हम साभार अपने पाठकों के लिए साझा कर रहे हैं।
प्राण चड्ढा जी का लिखा..
पत्रकारिता को जीवित रखने के लिए अपनी नौकरी बलिदान करने वाले उन समस्त सम्पादकों और पत्रकारों का आज अभिवादन।। भला क्या मिला आपको नौकरी गवां के, प्रेस को आपकी जगह, नया बन्दा आधे वेतन पर आपकी कुर्सी पर काम कर रहा है और वह अख़बार भी “बिक’ रहा है।।
हाँ, एक बात हो सकती है,अख़बार में पाठकों को कुछ पढ़ने मिलता था, वो अब वैसा नहीं है। पहले अखबार की खबरे पढ़ी जाती, उन पर चर्चा होती,अब कोई अखबार होगा जो दस मिनट किसी पाठक के हाथ रहे। नहीं तो पन्ने पलटे और टॉयलेट से बाहर आ गए।
अख़बार का कलेवर रंगीन हो गया है, पर पढ़ने को कुछ नहीं। उसकी आत्मा मर गई है। अब पहले पेज पर विज्ञापन के दो दो जैकेट, जैसे मालिक बता रहा है, खबरों से ज्यादा तरजीह जैकट के विज्ञापन को, पहले स्पेस बिकता था, अब पेज पर जैकेट सवार हो रहा है। विज्ञापन और खबरों के प्रतिशत की नीति है, मगर कभी सुना नहीं की इसके पालन न करने पर, किसी को तलब किया गया हो।
प्रबंधतंत्र के लिए अखबार प्रोडेक्ट है,इसे मार्केट में लाने के लिए,कुर्सी, से लेकर डिटर्जेंट सब साथ झोंक देता है। प्रसार बढ़ने सर्वे कर नए ग्राहक को स्कीम के तहत अख़बार,लगभग फ़्री। पर पत्रकारों को नया वेतन मान छोड़ा पुराना वेतनमान भी नहीं मिल पाता । एक अरबी घोड़े के वेतन के बदले, दो-तीन कच्छ के रन गधों को चारा दे दिया जाता है। फिर ये कहते है अंग्रेजी अखबार का जो असर होता है, वह हिन्दी पत्रकारिता का नहीं। अब भला मालिकों को कौन उनकी करनी समझाए! पत्रकारों से सालाना नौकरी का एग्रीमेंट,करा लिया जाता है फिर अगर बीच कुछ जोरदार खबर उसने लगायी,तो बाहर की राह,इन विवशजनों के टीम बना कर हिंदी पत्रकारिता का ‘इंपेक्ट’ देखना चाहते हैं।
हिंदी के पत्रकारों की माली दशा ठीक नहीं, खासकर जो ईमानदार हैं, सबके लिए वो लिख रहे हैं,पर अपने वेतनमान के लिए कलेक्टर या लेबर अफसर को आवेदन लिख कर देने का जोखिम नहीं उठा सकते। सम्पादक अब एडिटोरियल मैनेजर है, या फिर मालिक की किसी दूसरी कम्पनी का लाइजनर। कई हैं जिनका लेखन से कोई सरोकार नहीं। अलबत्ता उसे पता रहता है, इस माह का विज्ञापन का टॉरगेट क्या है, और इसमें उसकी भूमिका क्या होगी।
आंचलिक पत्रकारों को वेतन नहीं ,आम तौर विज्ञापन की कमीशन मिलती है,साथ,प्रेस का कॉर्ड, जा तूँ भी खा और हमारे लिए विज्ञापन ला।” दूसरी तरफ पत्रकारिता और पत्रकार के नाम पर धंधेबाज हर जगह व्याप्त हैं। जब अख़बार का मालिक ही कई धंधों में लिप्त है तो बेचारे आंचलिक पत्रकारों पर क्या ऊँगली उठाना।
हिंदी पत्रकारिता प्रिंट मीडिया से होती हुई अब डिजिटल या इलेक्ट्रानिक मीडिया के दौर में पदार्पण कर गयी हैं। यह पर्यावरण फ्रेंडली है। कागज की बर्बादी नहीं। बस स्मार्ट मोबाइल में खबरों का पिटारा मुट्ठी में। पोर्टल ने पत्रकारों की नई खेप पेश कर दी है। हर अख़बार अब इस पर पढ़ें। पोर्टर पत्रकारिता में अच्छे पत्रकार कभी कुछ कर रहे हैं।
विवि से पत्रकार जो पढ़ कर निकलते है, वो अखबार और पत्रकारिता में उपयोगी कम होता है,उनको यथार्थ का अनुभव और कुछ को वर्तनी,लिंग व्याकरण की समझ नहीं होती और न न्यूज सेन्स। उनको अनुभव की यूनिवर्सिटी में गढ़ना शेष रहता है।
यही हाल दीगर क्षेत्र से आये युवाओं का भी होता है। अब हिंदी का अख़बार में उनकी खबर में कोई दमखम नही होता वो गलती करता है और फिर सीखता चलता है। समाचार पत्र चाहे,गलतियों से भरा हो,पर वो प्रोडेक्ट है और स्कीम संग बिकता है।
अख़बार की नीति और नेताओं की दुरभि संधि खबरों में साफ पाठक को दिखती है,हिंदी अखबारों का पाठक इससे इतना समझदार हो गया है कि वो सब जानता है कि किसी बड़ी खबर के पीछे क्या खिचड़ी पक रही है। पर ये हैं कि, शर्म इनको आती नहीं।
अरे भाई, सीताहरण करना था,अथवा चौखा माल कामना है,तो साधु का मुखौटा क्यों,? और भी कई धंधे रहे, पर ये बात भी सही है रावण ने साधु का वेश धारण कर सीता हरण करना पड़ा था।।