(सत्यप्रकाश पाण्डेय)। “गंदगी की हद नही थी । चारो तरफ पानी ही पानी फैल रहा था । पखाने कम थे । उनकी दुर्गन्ध की याद आज भी मुझे हैरान करती हैं । मैने एक स्वयं सेवक को यह सब दिखाया । उसने साफ इनकार करते हुए कहा, ‘यह तो भंगी का काम हैं ।’ मैंने झाड़ू माँगा, वह मेरा मुँह ताकता रहा । मैने झाडूखोज निकाला और पाखाना साफ किया । पर यह तो मेरी अपनी सुविधा के लिए हुआ । भीड़ इतनी ज्यादा थी और पाखाने इतने कम थे कि हर बार के उपयोग के बाद उनकी सफाई होनी जरुरी थी । यह मेरी शक्ति के बाहर की बात थी । इसलिए मैने अपने लायक सुविधा करके संतोष माना । मैने देखा कि दूसरो को यह गंदगी जरा भी अखरती न थी, पर बात यहीं खतम नही होती । रात के समय कोई-न-कोई तो कमरे के सामने वाले बरामदे मे ही निबट कर चला जाता था । सवेरे स्वयं सेवको को मैने मैला दिखाया । कोई साफ करने को तैयार न था । उसे साफ करने का सम्मान भी मैने ही प्राप्त किया ।”
… मोहन दास करमचंद गाँधी की आत्मकथा में उल्लेखित ये वाक्या वर्ष 1901 का है जब वे कांग्रेस के महासम्मेलन में शामिल होने कोलकाता पहुंचे थे। दरअसल इन बातों का जिक्र यहां इसलिए भी जरुरी हो जाता है क्यूंकि इस देश के राष्ट्रपिता ने स्वच्छता का सदियों पहले ना सिर्फ डंका पीटा बल्कि खुद ही पैखाना साफ़ करके लोगों को नसीहते दीं कि साफ़-सफाई इंसानी परिवेश का अहम् हिस्सा है। बदलते दौर के साथ सफाई को लेकर एक बार फिर शोर मचा है, स्वच्छता अभियान और देश को खुले में शौच से मुक्ति दिलाने का बीड़ा आजाद भारत के नए गांधी ने उठा लिया है। हालांकि गांधी के कलयुगी अवतार ने ना तो लोगों के पखाने साफ़ किये ना कभी सालों से जाम पड़ी नालियों का कचरा बाहर निकाला। चमकदार रेशमी वस्त्र, हाथ में दस्ताने और नई झाड़ू से साफ़-सुथरी जगह पर फटका मारने वाले सफाईगिरी के ठेकेदार ने महात्मा गांधी के नाम, आदर्श और उनके बताये रास्तों पर चलते रहने का शोर खूब मचाया। गांधी के नए अवतार का जुमला देश के कोने-कोने में दोहराया जाने लगा, अंधी आस्था की भीड़ देखते-देखते जनसैलाब में बदल गई। हर हाथ में झाड़ू दिखा, गाँव-गाँव में शौचालय की दीवारें खड़ी कर दी गईं मगर चौक-चौराहे पर बैठा महात्मा उपेक्षित पड़ा रहा। स्वच्छता अभियान और खुले में शौच मुक्त भारत निर्माण के सपने ने सत्तानशीनों से लेकर नौकरशाहों के बीच ऐसी पैठ बनाई कि अखबार, टीवी चैनल,शहर से लेकर गांव की दीवारें और खाद्य सामग्रियों पर गांधी का चश्मा दिखाई देने लगा। इस चश्में के एक तरफ स्वच्छ तो दूसरी तरफ भारत लिखा है, मतलब साफ़ है भारत को स्वच्छता से थोड़ा दूर अब भी रखा गया है। सरकार के विज्ञापनों में गांधी का चश्मा स्वच्छ भारत की वकालत करता है मगर चौराहे पर बैठे महात्मा का चश्मा गायब है।
छत्तीसगढ़ के कुछ अलग-अलग स्थानों में स्थापित महात्मा गांधी की प्रतिमाओं को मैंने काफी करीब से देखा है। कहीं पर मोहन दास करमचंद गाँधी की सूरत ही बदली हुई है तो कहीं पर गांधी की शक्लो-सूरत इस कदर बिगड़ी हुई है जैसे वर्तमान दौर में घर के किसी बुजुर्ग पर अत्याचार हो रहा हो। भारत को स्वच्छ बनाने वालों की भीड़ ने गांधी का चश्मा तो ले लिया मगर उनकी प्रतिमा पर जमी काई नहीं हटा पाए। किसी ने गांधी की प्रतिमा का सर फोड़ दिया, कोई आँख नोचकर आगे बढ़ गया तो किसी ने गाँधी की सूरत ही बदल दी। पिछले दिनों जशपुर जिले के ग्राम जामचुवां के समीप तिराहे पर खड़े महात्मा की सूरत और सीरत देखकर मैं दंग रह गया। यहां आदमकद प्रतिमा जमीन पर चौकने वाले भाव से देख रही है, हाथ में डंडे की जगह लोहे की रॉड पकड़े गांधी को देखकर लगता ही नहीं ये सत्य, अहिंसा और स्वच्छता पुजारी है। यहां गांधी यक़ीनन शर्म से झुके दिखाई पड़ते हैं। इसी जिले के आदिम जाति कल्याण प्राथमिक शाला बरटोली के मुख्य द्वार पर लगी गांधी की प्रतिमा स्वच्छता अभियान के रहबरों की मनोदशा जाहिर करती है। जिस दीवार पर स्वच्छता के स्लोगन लिखें हैं वो सालों से गंदी पड़ी है, दीवार के पीछे से बापू झाँक रहा है जो प्रतिमा पर जमी काई से अब अपनी पहचान छिपाना चाहता है। सरगुजा के मैनपाट के रास्ते आमगांव में सड़क किनारे फूटी आँख से लोगों की मनोवृत्ति को समझता गांधी भी बदलते देश की तस्वीर को महसूस कर रहा है। बात इतने पर ही खत्म हो जाती तो भी गनीमत समझिये, अविभाजित बिलासपुर जिले के अचानकमार टाइगर रिजर्व के ग्राम छपरवा में सड़क किनारे सालों तक टूटी गर्दन लिए गांधी कराहते रहे, मगर कोई तीमारदारी करने नहीं पहुंचा।
दरअसल मैं आज-तक ये समझ ही नही पाया की इन महापुरुषों की प्रतिमाओं को लगाकर सरकारें क्या उन्हें सम्मान देती हैं या फिर चौक-चौराहों पर लोगों से अपमानित करवाने के लिए छोड़ दी जाती हैं क्यूंकि इन महापुरुषों का अगर सच में हम मान-सम्मान करते, इन्हे आजादी के दीवानो के रूप में देखते तो ये हमारे दिलों में आज भी ज़िंदा रहते। उपेक्षित प्रतिमाये इस बात का मौलिक प्रमाण हैं कि गांधी के देश की बातें सिर्फ बातों में हैं, गांधी का आदर्श किसी चौराहे पर पथराव का शिकार हो रहा है। चूँकि गांधी दिल में नहीं सिर्फ सियासी भीड़ में जुबान साफ़ करने की खुराक हैं इसलिए देखने वालों की नज़र अपमानित हो रहे गांधी पर पड़ती ही नहीं। कल 2 अक्टूबर को कुछ देशभक्त और गांधी भक्त उन्हें याद करने की रस्म निभाएंगे। ये रस्म अदायगी शहरी इलाकों में होगी, गाँव के चौराहे पर बैठे गांधी को कम ही लोग याद रखेंगे। सुना है कल एक टीवी चैनल पर सदी के महानायक सुबह 9 से लेकर रात 9 बजे तक स्वच्छता को लेकर पाठ पढ़ाएंगे। देश का प्रधान भी बहुत कुछ कहेगा मगर इन सबके बीच गांधी उपेक्षित रहेंगे ।
सच में देश बदल रहा है। महात्मा गांधी ऊपर बैठे पछता रहें है। उन्होंने पूरी जिंदगी सूत काता, लंगोट पहने की जिद की लेकिन वो सब कुछ नहीं कर पाए जो उनके नए अवतार ने केवल झाड़ू और चरखा पकड़कर कर दिखाया। पूरी उम्र बीत गई, गाँव-गाँव घूमें ताकि लोगों को समझ सकें लेकिन नए अवतार ने चंद दिनों में ही लोगों को पढ़ लिया और अपने मन की बात कहने लगे। खैर अब तक जो हुआ सो हुआ, अब तो सत्तर साल का हिसाब माँगा जा रहा है। कुछ जगह से हिसाब मिलने शुरू भी हो गये हैं। गांधी के सपनो का भारत अब डिजिटल हो गया है और उसका आम आदमी कतार में खड़े रहने की आदत डाल चुका है ऐसे में गांधी उस कतार से दूर कहीं चौक-चौराहे पर विराजमान हैं तो भला सपने बेचने वाला दोषी क्यों ? वैसे भी दुबले-पतले और अधनंगे फकीर की तस्वीर किसी म्यूजियम में तो स्थापित की जा सकती है पर बाज़ार के रैम्प पर कैटवाक करने के लिए सूटेड-बूटेड महात्मा ही उपयुक्त है जो मौनव्रत के आंदोलन का नहीं बल्कि हंगामेंदार इवेंट का नायक हो।