मान्यता का धंधाः अटैच अधिकारी हो रहे लाल.. नियमों से जमकर खिलवाड़..कागजों में शर्ते पूरी

BHASKAR MISHRA
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बिलासपुर—प्राइवेट स्कूलों में मान्यता के नाम पर शिक्षा व्यवस्था से बेधड़क  खिलवाड़ किया जा रहा है। सरकारी संरक्षण में प्राइवेट स्कूलों की जमकर दुकानदारी चल रही है। संभाग और जिला कार्यालय के अफसर बेधड़क जेब भर रहे हैं। शिक्षा अधिकार अधिनियम 2009 के अनुसार प्राइवेट स्कूल को मान्यता देने का काम जिला शिक्षा अधिकारी और संयुक्त संचालक शिक्षा विभाग करता है।  जिला शिक्षा अधिकारी प्राइमरी और मिडिल स्तर के स्कूलों के लिए मान्यता देता है। हाईस्कूल और हायर सेकेंडरी शालाओं की मान्यता संयुक्त संचालक लोक शिक्षण संभाग से मिलती है। 
 
प्रायवेट स्कूलों को मान्यता की शर्तें
 
           शिक्षा के अधिकार अधिनियम के तहत स्कूलों को मान्यता के लिए कुछ शर्तों का पालन करना होता है। शर्तों में शाला भवन, खेल मैदान, शौचालय कमरों का आकार, प्रति बच्चे स्थान की उपलब्धता खेल सामग्री की उपलब्धता, चिकित्सकीय सामग्री की उपलब्धता ,प्रशिक्षित शिक्षक की स्टाफ की व्यवस्था, पुस्तकालय समेत अनेक बिन्दु शामिल हैं। परीक्षण के बाद ही मान्यता देने का प्रावधान है।
 
नियम और शर्तों की अनदेखी
 
            बिलासपुर में मान्यता की पहली शर्त में पार्टी की हैसियत को शामिल किया जाता है। यही कारण है कि अधिकारियों की कृपा से गली गली में कुछ कमरों में ही प्राइवेट स्कूल का संचालन धडल्ले से  किया जा रहा है। सीजीवाल की टीम ने संभाग के सभी सात जिलों में सर्वे के दौरान पाया कि प्रति बच्चे के हिसाब से विद्यालयों में ना तो बैठने की व्यवस्था है। और  ना ही पेयजल सुविधा ही है।  स्वच्छता का कही नामों निशान नहीं है। लाइब्रेरी या तो बंद..यदि हैं तो कमरा कभी खुला नहीं है। या फिर चन्द किताबें ही लायब्रेरी में दिखाई देते हैं।प्रशिक्षित टीचरों की भारी कमीं है। बावजूद इसके धड़ल्ले से प्राइवेट स्कूलों का संचालन अधिकारियो की कृपा से साल दर साल जारी है।
 
प्रभारवाद और जेब की चिंता ने किया कबाड़
 
              मान्यता देने में माहिर अधिकारी अपनी जेब को लेकर पूरी तरह से गंभीर हैं। चाहे प्रायवेट स्कूल शर्तों को पूरी करते हो या नहीं। शिक्षाजगत से जुड़े अन्दर के लोगों ने बताया कि दरअसल की मूल वजह प्रभारवाद है।
 
                     शिक्षकीय कार्य छोड़कर ऑफिसों में अटैच व्याख्याता और प्राचार्य नोडल अधिकारी बनकर स्कूलों को मान्यता देने की फाइल जांच रहे हैं। लिफाफा संस्कृति से प्राइवेट स्कूलों की मान्यता फाइल हर साल बिना देखे ही पास हो रही है। सुविधाओं के नाम पर मोहताज प्राइवेट स्कूलों का धंधा गली-गली में फल फूल रहा है। शिकायत होने पर जांच की रस्म अदायगी होती है। बहुत हुआ तो किसी स्कूल की मान्यता को टेंपरेरी रोक दिया जाता है। बाद में बहाल कर दिया जाता है।
 
पांच हजार में मान्यता की खरीदी
 
                      जांच पड़ताल के दौरान बात समाने आयी कि शिक्षा का धंधा नो लॉस हो नो प्रॉफिट की तर्ज पर समिति बनाकर शुरू होता है। स्कूल संचालक कुशल व्यवसायी की तरह अधिकाधिक फीस वसूली कर न्यूनतम लागत पर अधिकतम लाभ कमाने का प्रयास करता है। महज 2 से 5000 की प्रति फाइल में जिले और संभाग के जांच अधिकारियों की मान्यता खरीद लेता है।
 
प्रदेश में प्रायवेट स्कूलों की स्थिति
 
                    बताते चलें प्रदेश में सात हजार से ज्यादा प्राइवेट स्कूल बिना मानक के लिफाफा संस्कृति के दम पर संचालित है। इनमें 16 लाख से अधिक विद्यार्थी पढ़ते हैं। मान्यता संबंधी फाइल के 80 मानक भी अच्छे से अच्छे स्कूल पूरा नहीं करते हैं। केवल सुधार की प्रत्याशा में दुकान को मान्यता दे दी जाती है।
  
मान्यता के लिए निर्धारित शर्त
 
                  आरटीई अधिनियम के तहत 25 प्रतिशत प्रवेश विस्तृत जानकारी, अधोसंरचना संबंधी जानकारी, समेत 30 बिंदुओं पर विवरण भरना होता है। शाला संचालन के लिए समिति को सोसायटी अधिनियम  1980 की धारा 21 के अंतर्गत  रजिस्टर्ड होना जरूरी है। पंजीकृत समिति के माध्यम से जिला शिक्षा अधिकारी, संबंधित प्रदिकारी को मान्यता के लिए आवेदन करते समय एसडीएम से वेरीफाई कराना होता है। शपथ पत्र भी देना होता है। आवेदन पत्र में वित्तीय स्थिति, स्टाफ की स्थिति के साथ छात्रावास, खेल का मैदान सारी जानकारी देनी होती है। भूमि भवन का नक्शा जमा करना होता है। इसके बाद ही मान्यता की शर्ते पूरी होती हैं।
 
फायदेमंद धंधा
 
              शिक्षा विभाग के अधिकारियों की आंख मिचौली में निजी शिक्षा में निवेश का धंधा काफी फायदे वाला साबित हो रहा है। बिलासपुर संभाग में लोक शिक्षण संचनालय संयुक्त संचालक में बैठे  स्कूल से किनारा कर बैठे दो उच्च अधिकारी सात जिलों के साथ मान्यता का खेल कर रहे है। एक अधिकारी के पास चार तो दूसरे के पास तीन जिलों को मान्यता देने का काम है। दोनों  ही तथाकथित अधिकारी स्कूल से किसी तरह पीछा छुडाकर संभागीय कार्यालय मेें अटैच है। और मान्यता की चांदी काट रहे है।  बातचीत के दौरान एक अधिकारी ने बताया कि मान्यता के लिए शासन से निर्धारित मानकों को पूरा करना होता है।यदि किसी प्रकार की शिकायत होती है तो इसके लिए नोडल जिम्मेदार होता है।
 
छत्रछाया में मान्यता का खेल
 
         मैदान में छानबीन के दौरान पाया गया कि 70 प्रतिशत स्कूलों में शर्तों का पालन ही नहीं किया जा रहा है। और यह सब इन्हीं अधिकारियों के छत्रछाया में हो रहा है। मतलब बिलासपुर संभाग में मान्यता का गोरख धंधा इन्ही तथाकथित अधिकारियों की छत्र छाया में फल-फूल रहा है। मजेदार बात है कि चढ़ावा का विधिवत बंटवारा होता है। शायद यही कारण है कि यह अधिकारी अटैचमेन्ट के बाद अंगद की पांव की तरह जमकर बैठे हैं।
 
स्कूल संचालक ने बताया..नहीं मानते अधिकारी
 
                निजी स्कूल संचालक संघ के प्रतिनिधि ने बताया कि कोरोना काल में आरटीई की 2 साल से राशि नहीं मिली है। फीस के लिए पालक समिति बनाने का प्रावधान है। समिति मेें कलेक्टर के प्रतिनिधि भी होते हैं। समिति की अनुशंसा पर ही फीस समेत अन्य मामलों में निर्णय होता है। लॉकडाउन के कारण प्राइवेट स्कूलों को खासा नुकसान उठाना पड़ा है। मान्यता के लिए प्रतिवर्ष प्रक्रिया की जाती है इस वर्ष भी तैयारी की जा रही है। अधिकारी अपनी बात मनवाने के लिए पूरी तरह से तैयार हैं। और हमें उनकी बात को मानना ही होगा।
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