शिक्षाकर्मी की कहानी (दो):सायकल-घड़ी गिरवी रखकर भी पढ़ाते रहे नौनिहालों को

Chief Editor
6 Min Read

part2_jpeg(गिरिजेय) पूर्व राष्ट्रपति डा. सर्वपल्ली राधाकृष्णन की जयंती पर 5 सितंबर को शिक्षक दिवस मनाया जाएगा। इस दिन शिक्षकों का सम्मान किया जाएगा और उनकी अहमियत  पर कसीदे पढे जाएंगे। यह दिन हर साल आता है और हर साल यही सिलसिला चलता है। इस रिवाज की रस्मअदायगी इस बार भी होगी। लेकिन कोई यह सोचने के लिए खाली नहीं है कि इस रस्मअदायगी से हम क्या हासिलल कर पाते हैं ? यह सवाल खासकर उस समय हमारे  जेहन में उतरता है जब हम आज के शिक्षकों की हालत पर नजर डालते हैं। यह बात किसी से छिपी हुई नहीं है कि आज के दौर में बुनियादी शिक्षा का बोझ अपने सर पर उठाए सरकारी स्कूलों में करीब 80 फीसदी शिक्षक पंचायत या शिक्षक नगरीय निकाय (  शिक्षाकर्मी)  हैं। इन गुरूजनों की हालत भी किसी से छिपी नहीं है। उनके हालात पर cgwall.com ने पड़ताल करने की कोशिश की है और जो तस्वीर हमारे सामने आई उसे  हम सिलसिलेवार -किस्तवार  पेश कर रहे हैं और उम्मीद करते हैं कि  व्यवस्था  के जिम्मेदार लोग इस पर गौर कर कोई ऐसा कदम उठाएंगे जिससे हालात बदले और  गुरूजनों को सही में सम्मान मिल सकेः । पेश है दूसरी किस्तः-

             
Join Whatsapp GroupClick Here

डाउनलोड करें CGWALL News App और रहें हर खबर से अपडेट
https://play.google.com/store/apps/details?id=com.cgwall

                                     देशवासियों में सरकारी नौकरी की मोह पुरानी बीमारी है। जो शिक्षाकर्मी घरों से सम्पन्न थे….पारिवारिक जिम्मेदारियों से मुक्त थे। उनका काम तो जैसे तैसे चल जाता था। लेकिन ऐसे लोग जिनकी जिम्मेदारियों में माता पिता पत्नी, बच्चे.छोटे भाई-बहन शामिल थे उनकी हालत बहुत खराब थी। राशन दुकानों से उधार लेकर काम चलाना पड़ता था। इसके बाद धीरे धीरे पहले सायकल फिर घड़ी गिरवी रखने की नौबत जाती थी। साहूकारों के व्याज के फेर में लोग पड गए। धीरे-धीरे शिक्षाकर्मियों की हालत मजदूरों से भी बदतर हो जाती थी। क्योंकि मजदूर दिनभर काम करने के बाद शाम को रूखा- सूखा खाकर सो जाता है।

शिक्षाकर्मी की कहानी भाग 1 पढ़ने के लिए क्लिक करे- http://cgwall.com/?p=41084

                               मजदूर के रहन-सहन, खान-पीन पर उंगली उठाने वाला कोई नहीं होता…लेकिन जब आप शिक्षा जैसे गरिमामय कार्य से जुड़े हुए होते हैं तब आपको पद की गरिमा का ख्याल रखते हुए..सामाजिक स्तर को भी बनाकर रखना होता है। इतनी कम तनख्वाह…उपर से मानदेय मिलने की तारीख भी निश्चित नहीं…ऐसे में शिक्षाकर्मियों के लिए कठिन हो जाता…कि पहले उधारी चुकाएं…या राशन लाए….गिरवी सायकल और घड़ी को छुड़ाए…या पारिवारिक जिम्मेदारियों को निभाएं। स्कूल में काम करने वाले शिक्षाकर्मी वर्ग एक के वेतन से तात्कालीन समय उसी स्कूल में काम करने वाले चपरासी का वेतन तीन गुना होता था।

               तात्कालीन समय सरकार के अलावा कार्यक्षेत्र में भी शिक्षाकर्मी अपने ही कौम से शोषण का शिकार होता। अपने ही साथियों से दोयम स्तर के व्यवहार का शिकार होता। अपनों से दोयम का स्तर का व्यवहार…सरकार के शोषण से कहीं ज्यादा असह  और भयावह पीड़ा देता…। लेकिन सरकारी नौकरी की प्यास और सुरक्षित भविष्य की आस ने युवाओं को शोषण और अपमान के बंधन से बांध कर रखा।

                        जब संख्या बड़ी तो शोषण भी बढ़ा। शोषण के खिलाफ कुछ नेतृत्व करने वाले सामने आए। संगठन का जन्म हुआ। कुछ आंदोलन हुए। आंदोलनकारियों पर लाठियां बरसीं। कुछ सफलता आंदोलनों से तो कुछ समय के साथ मानदेय में ऊंट के मुंह में जीर के समान बृद्धि होती रही। लेकिन सरकारों ने शिक्षा जैसे महत्वपूर्ण विषय की उतनी बड़ी समस्या पर कुछ सकारामत्मक पहल की कभी नहीं सोची। साल दर साल आंदोलन होते रहे…धीरे धीरे शिक्षाकर्मी संगठन हड़ताल का पर्याय बन गया।पालकों के बीच संदेश गया कि शिक्षाकर्मी तो बस हड़ताल करते रहते हैं।

                  समाज में शिक्षकों की घटती गरिमा को कुछ और नीचे तक ले जाने का काम लगातार होने वाले हड़तालों ने किया। लेकिन सरकारें हमेशा की तरह शिक्षकों को कभी खाली हाथ तो कभी झुनझुने पकड़ाकर लौटाती रही।

                      इस बीच प्रदेश में भारी संख्या में स्कूल खोले गए। स्कूल चलाने के लिए उसी अनुपात में शिक्षाकर्मियों की भर्ती हुई।  हर बार भर्ती प्रक्रिया के नए नियम होते….। साक्षात्कार, नियुक्ति, पदस्थापना और स्थानान्तरण के नाम पर बाबुओं,अधिकारियों और जनप्रतिनिधियों ने खूब चांदी काटी।  और शिक्षाकर्मी भर्ती प्रक्रिया एक समानान्तर चलने वाला व्यवसाय बन गयी। लोक सेवा आयोग,व्यवसायिक परीक्षा मंडल, आदि आयोजित होने वाली प्रतियोगिती परीक्षाएं अनेक कारणो से न्यायिक प्रक्रिया में उलझती रहीं।

                        उच्च डिग्रीधारी योग्य युवा पीएससी और अन्य परीक्षाओं से हताश होकर शिक्षाकर्मी की नौकरी की ज्वाइन करने लगे।  जबकि नियमित शिक्षकों और शिक्षाकर्मियों के वेतन का अन्तर लगभग अभी भी वैसा ही रहा जैसे पहले था। अन्तर में बिलकुल भी नहीं आयी कहना सही नहीं होगा। लेकिन अभी भी शिक्षाकर्मियों का वेतन विद्यालय के भृत्य  के वेतन के बराबर की यात्रा ही तय कर पाया था।

(जारी है)

close