छत्तीसगढ़ सरकार तक क्यों नहीं पहुंच पा रही है… एक लाख़ महिलाओं की आवाज़…?

Chief Editor
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( गिरिज़ेय ) छत्तीसगढ़ के किसी भी छोटे बड़े गांव में चले जाइए……। वहां आंगनबाड़ी केंद्र जरूर मिलेगा….। जहां  3 साल से 6 साल की उम्र वाले छोटे-छोटे नन्हे-मुन्ने बच्चों की देखभाल करते महिलाएं भी मिल जाएगी । हरएक  बच्चे को स्वस्थ और खुशहाल जिंदगी जीने का हक होता है। हर मां बाप उसे यह हक़ मुहैया कराने की पूरी कोशिश करता है। और इस कोशिश में आंगनबाड़ी केंद्रों की कार्यकर्ता और सहायिकाएं भी भागीदार नजर आती हैं। क्योंकि कोई बच्चा जितना वक्त घर पर गुजारता है उसका एक हिस्सा वह आंगनबाड़ी केंद्र में भी गुजारता है।। इन बच्चों को बेहतर स्वास्थ्य और खुशहाल जिंदगी मुहैया कराने के लिए आंगनबाड़ी केंद्र की कार्यकर्ता और सहायिका भी अपनी हिस्सेदारी निभाती हैं। लेकिन कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं को खुद अपना हक नहीं मिल पा रहा है।महिला सशक्तीकरण जैसे भारी भरक़म शब्द से भी उनका नाता है। लेकिन ये महिलाएं ख़ुद कितनी सशक्त हैं.. यह सवाल भी जवाब़ की तलाश कर रहा है।  सरकार ने जो जिम्मेदारी उन्हें सौंपी है- उसमें बच्चों को खेलकूद के जरिए शिक्षा देने के साथ ही पोषण आहार के रूप में  रेडी टू ईट का वितरण भी उन्हें करना होता है।  आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका गांव की गर्भवती – शिशुवती महिलाओं की भी देखभाल करती हैं ।बच्चों और महिलाओं से लगातार राफ़्ता कायम कर उन्हें जरूरत पड़ने पर अस्पताल तक पहुंचाने की जिम्मेदारी भी इनकी ही होती है। इतना ही नहीं  कई दूसरे विभागों से तालमेल कायम कर उन्हें महिला सशक्तिकरण के कामों में भी लगाया जाता है। हाल के दिनों में कोविड- टीकाकरण के दौरान भी आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाओं को जिम्मेदारी सौंपी गई है। रोजाना सुबह से शाम तक आंगनबाड़ी केंद्र में बच्चों के साथ वक्त गुजारने के बाद उम्मीद की जाती है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका रोजाना 3 घरों में जरूर जाएं और वहां महिलाओं – बच्चों के बारे में जानें- समझे-बूझे और जरूरत पड़ने पर उनकी मदद भी करें। इस तरह आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाओं पर काम का बड़ा बोझ नजर आता है। लेकिन उनके हिस्से में आने वाला मेहनताना इस बोझ़ के मुकाबले बहुत ही कम है।

             
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सरकार  के महिला बाल विकास विभाग की वेबसाइट पर जाकर कोई भी देख सकता है कि इस विभाग ने कई योजनाओं के साथ ही महिला जागृति ,स्वावलंबन और सक्षम  जैसे बड़े-बड़े नामों के साथ योजनाएं चला रखी हैं। एक योज़ना नवाबिहान के नाम से भी है। लेकिन इसी विभाग के अंतर्गत काम करने वाली आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाओं की  जिंदगी में फिलहाल नवा बिहान दिखाई नहीं देता है ….। न वे स्वालंबन की स्थिति में है और ना ही वे सक्षम नजर आती है। लेकिन अपने हक के लिए जूझ रही इन महिलाओं ने आंदोलन के साथ ही जो मुहिम शुरू की है …. उसमें उन्हें उम्मीद  दिखती है कि आने वाले समय में उनकी जिंदगी में भी नवा बिहान आ सकता है ।

2 अक्टूबर 1975 को शुरू हुए इस कार्यक्रम का धीरे-धीरे विस्तार हुआ और महिलाओं- बच्चों की बेहतरी के लिए कार्यकर्ता और सहायिका के तौर पर महिलाओं को इस काम में जोड़ा गया। इसके बाद काफी वक्त गुजर चुका है और छत्तीसगढ़ की नदियों में काफी पानी बह चुका है। लेकिन यह विडंबना ही है कि कई आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका अभी भी इस रूप में ही काम कर रही है।  जिन्होंने 1997 में यह काम शुरू किया था। हालत यह है कि आंगनवाड़ी कार्यकर्ता को हर महीने साढ़े छः हज़ार रुपए और सहायिका को 3,250 रुपए  मानदेय मिलता है। इस आँकड़े को गुणा- भाग कर उनके रोज का मेहनताना निकाला जा सकता है और यह भी हिसाब लगाया जा सकता है कि सरकार की योजनाओं को कामयाबी के शिखर पर पहुंचाने वाली इन महिलाओं को सरकार क्या दे रही है।

आंकड़े बताते हैं कि छत्तीसगढ़ में 46,000 से अधिक आंगनबाड़ी केंद्र और साढ़े छः हज़ार से अधिक मिनी आंगनबाड़ी केंद्र हैं। जहां काम करने वाली कार्यकर्ता और सहायिकाओं की गिनती एक लाख के करीब है। इन कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं का संगठन पिछले काफी समय से अपनी मांगों को लेकर आंदोलन कर रहा है । इतनी बड़ी तादाद होने के बावजूद इन महिलाओं का आंदोलन मीडिया में भी सुर्खियां नहीं बना पाता । लेकिन उनका दर्द समझा जा सकता है।

छत्तीसगढ़ आंगनबाड़ी कार्यकर्ता सहायिका संघ ने इस साल 22 सितंबर को अपने संचालक को ज्ञापन सौंपकर उनके सामने अपनी मांगें रखी थीं। उन्होंने इस दिन पौधे लगाकर अपनी रचनात्मकता का परिचय भी दिया था। इसके बाद 2 अक्टूबर से जनता के नुमाइंदों से मिलकर अपनी मांगों का ज्ञापन शासन तक पहुंचाने की कोशिश की । रैली निकालकर ज्ञापन सौंपा। लेकिन कुछ नहीं हुआ । 1 नवंबर को जिला मुख्यालय में धरना- रैली का आयोजन किया। फिर भी किसी ने नहीं सुना तो नवंबर महीने में ही सरगुजा, बिलासपुर, दुर्ग, बस्तर और रायपुर संभाग में धरना रैली भी कर ली । इतने पर भी किसी ने ध्यान नहीं दिया तो अब 10 दिसंबर से 16 दिसंबर तक राजधानी रायपुर में रात दिन का धरना प्रदर्शन करने का ऐलान किया है।ऐँदोलन का यह ब्यौरा देने का मक़सद यही है कि समाज में बच्चों और महिलाओं को बेहतर जिंदगी का हक़ दिलाने में अपनी जिम्मेदारी निभा रही इन महिलाओं ने अपने हक की बात रखने के लिए लगातार लोकतांत्रिक तरीके से कोशिश की है। लेकिन अब तक उनकी बात सुनी नहीं गई है।

आइए अब यह भी जान लेते हैं कि आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और  सहायिकाओं की मांगें क्या हैं….? इस बारे में बताया गया है कि शिक्षाकर्मियों की तरह आंगनबाड़ी कार्यकर्ता सहायिकाओँ को शासकीय कर्मचारी घोषित किया जाए। पड़ोसी राज्य मध्य प्रदेश की तरह कम से कम दस हज़ार रुपए  जीने लायक वेतन दिया जाए। सुपरवाइजर के खाली पदों में को शत प्रतिशत वरिष्ठता क्रम में कार्यकर्ताओं से ही भरा जाए ।मासिक पेंशन, ग्रेच्युटी का भी लाभ दिया जाए । मोबाइल नेट चार्ज और मोबाइल भत्ता दिया जाए । इस तरह की मांगों को लेकर आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं का संगठन सड़क पर उतरकर आंदोलन कर रहा है। सरकार इनकी मांगों की ओर क़ब तक ध्यान देगी और उनके लिए कुछ करेगी….। इस बारे में कुछ भी कह पाना कठिन है । लेकिन आंगनबाड़ी कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं की लगातार चल रही मुहिम को देख कर कोई भी हो सकता है कि इन महिलाओं के अंदर सरकार के रवैए को लेकर भयंकर असंतोष है ।

जाहिर सी बात है कि गांव -देहात में घर -घर के बच्चों -महिलाओं से इन कार्यकर्ताओं और सहायिकाओं का सीधा संपर्क है। और उनके असंतोष का असर कई परिवारों तक भी पहुंच सकता है। वक्त आने पर सियासत पर भी इसका असर पड़ सकता है । इस बारे में इन महिलाओं का इस बारे में यह भी कहना है कि प्रदेश की मौजूदा सरकार ने उनसे जो वादा  क़िया था, उसे भी पूरा नहीं किया। 2018 के चुनाव से पहले घोषणा पत्र तैयार करते समय उनके संगठन से भी कांग्रेस के लोगों ने मुलाकात की थी ।इतना ही नहीं  जन घोषणा पत्र में महिला और बाल कल्याण विभाग को लेकर यह वादा भी किया गया था की आंगनवाड़ी कार्यकर्ताओं का नर्सरी शिक्षक के रूप में उन्नयन किया जाएगा और कलेक्टर दर प्रदान किया जाएगा। अब घोषणापत्र का यही हिस्सा इन महिलाओं के बीच सोशल मीडिया में वायरल हो रहा है। साथ ही सरकार की ओर से जारी एक पोस्टर भी इन महिलाओं के बीच चर्चा में है। जिसमें लिखा गया है कि जो कहा सो किया …35 महीनों में जन घोषणा पत्र के 36 में 25 वादों को पूरा किया..। इस पोस्टर में 21वें नंबर पर आंगनवाड़ी मध्यान्ह भोजन रसोईया के वेतन में वृद्धि का वादा पूरा करने की बात कही गई है  ।

आंगनवाड़ी कार्यकर्ता और सहायिका संगठन का कहना है कि कार्यकर्ताओं को बढ़ा हुआ वेतन ना तो अब तक मिला है और ना यह भी साफ हो सका है कि हर महीने कितना मानदेय बढ़ाया गया। उनका यह भी कहना है कि केंद्र सरकार ने नवंबर 2020 से अपनी ओर से दिया जाने वाला मानदेय बढ़ाकर 3,000 रुपए से 6,000 रुपए कर दिया। लेकिन प्रदेश सरकार ने कुछ नहीं किया। नर्सरी शिक्षक का दर्जा देने की बात का वादा भी अब तक पूरा नहीं हो सका है। लेकिन पोस्टर जारी कर वाहवाही लूटने की कोशिश जरूर हो रही है। गांव -गांव में घर- घर से जुड़ी इन महिलाओं के अंदर इस बात को लेकर भी गुस्सा है कि मौजूदा सरकार के कार्यकाल का 3 साल पूरा हो चुका है। सरकार ने अपना वादा भी पूरा नहीं किया और कार्यकर्ताओं सहायिकाओं की के शांतिपूर्ण आंदोलन को हल्के में ले रही हैं। आने वाले वक्त में यह सरकार पर भारी भी पड़ सकता है।

आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाओं की समस्याओं को लेकर हमने कई लोगों से बात की तो उनका यह भी कहना था कि कई बार ऐसा देखने में आता है कि कोई सड़क दोबारा खोदकर फिर बनाई जाती है। जिसे देखकर लगता है कि क्या सरकार के पास होशियार इंजीनियर नहीं है या सरकार के पास पैसा अधिक है। जो इस तरह सरकारी खजाने से बार-बार सड़क को खोदकर फिर बनाया जाता है । लेकिन महिलाओँ और बच्चों से ज़ुड़ी सरकार की सबसे महत्वपूर्ण योजना को पूरा करने के लिए अपनी पूरी जिंदगी लगाने वाली महिलाओं का जायज हक उन्हें सौंपने के लिए सरकार के पास पैसा नहीं है। यह अजीब सी उलटबांसी दिखाई देती है।

आंगनबाड़ी कार्यकर्ता और सहायिकाएं अपने हक की लड़ाई में पूरी तैयारी के साथ दिन -रात धरना देकर सरकार को अपना वादा याद दिलाने सड़क पर उतर रही है। इस बार उनके इस कदम के बाद सरकार सुनेगी या नहीं इस बारे में कुछ नहीं कहा जा सकता। इन महिलाओं की आवाज सरकार तक पहुंचे या ना पहुंचे …..। लेकिन उनका असंतोष आने वाले समय में भी असरदार हो सकता है।

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