इसे नक्सलवाद कहना बंद कीजिए,ये आतंकवाद है

Shri Mi
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IMG-20170425-WA0005(यशवंत गोहिल)बर्बरता बस्तर की पहचान हो गई है और हर बार “नक्सली’… नहीं, नहीं ‘आतंकवादी’ उस पर मुहर लगा रहे हैं। जी हां, आतंकवादी। हम दो मोर्चों पर लड़ रहे हैं। एक देश के बाहर के दुश्मनों से और एक अंदर के, लेिकन जवान तो वही हैं, देश तो एक ही है, तो शहादत अलग-अलग कैसे हो सकती है? एक आतंकवाद में और दूसरा नक्सलवाद में शहीद कैसे हो सकता है? जो देश के खिलाफ है, जो जवानों के खिलाफ है, जो जन के खिलाफ है, वह आतंकवादी ही है। बस्तर के घने इलाकों में शायद किसी को कोई फर्क न पड़े कि इसे आतंकवाद कहें, या नक्सलवाद, लेकिन जहां से ये सोच पैदा होती है, जहां ऐसे विचार उमड़ते-घुमड़ते है, जहां तर्क-वितर्क-कुतर्क करने वाले थिंक टैेंक बैठे हैं, उन्हें फर्क पड़ेगा। वास्तव में वहां की ही नसें काटने की जरूरत है।

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                         ये सीधा-सीधा युद्ध है। घोषित युद्ध। और कैसे होता है युद्ध? जो लोग मारे जा रहे हैं, वो अपने हैं, लेकिन जो मार रहे हैं वो आतंक ही मचाना चाहते हैं क्योंकि यही उनका कारोबार है। बस्तर से माओवाद का विचार खत्म हो चुका है। कार्पोरेट स्ट्रक्चर पर काम कर रही है वहां की जनताना सरकार और टार्गेट बेस्ड सिस्टम में काम हो रहा है। हर साल हजार करोड़ रुपए की उगाही की ख़बरें आती हैं। ये ऐसे ही तो नहीं होता। ये हजारों करोड़ नहीं उगाहे जा सकते, अगर ये आतंक खत्म हो जाए। इस उगाही में हमारा तंत्र भी कहीं न कहीं कमज़ोर है, इस कारण प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से साथ देता है। नहीं तो बस्तर ट्रांसफर होने वाले अधिकारी-कर्मचारी मंत्रियों के घरों के चक्कर न लगाते आवेदन लेकर कि ट्रांसफर रुकवा दीजिए। बस्तर जैसे फोड़ा हो गया है और इस फोड़े का इलाज करने के लिए शिक्षाकर्मी, डॉक्टर, प्रशासन के लोग वहां जाना ही नहीं चाहते। अप्रत्यक्ष रूप से ये आतंकवादियों की मदद ही है।

                     बेशक पिछले 10-15 सालों में बस्तर में आतंकवाद का दायरा सिमटा है, लेकिन इस धारणा को तोड़कर नक्सली बार-बार चुनौती देते रहे हैं। ख़ासकर सुकमा के इलाके में। अभी 11 मार्च को ही 12 जवान शहीद हुए थे और इस बार संख्या और बढ़ गई। केंद्र और राज्य सरकारें जब तक इन आतंकवादियों के ‘सीईओ’और ‘एमडी’लेवल के लोगों को टार्गेट मे रखकर काम नहीं करती, ये चलता रहेगा। मौतों के आंकड़े बढ़ते-घटते रहेंगे। कभी इस तरफ, तो कभी उस तरफ। उस स्तर पर मनोबल टूटता दिखाई नहीं दे रहा है। हमारी इंटेलीजेंस पर भी सवालिया निशान खड़े होते हैं, हमारे कोआर्डिनेशन पर भी प्रश्नचिन्ह लगता है, आख़िर क्यों? क्या उनका ‘मैनेेजमेंट’ ज्यादा बेहतर है। तो इस मैनेजमेंट को तोड़ने का एक बड़ा कारगर उपाय देश की जनता की मन:स्थिति में बदलाव करना हो सकता है। हम जब नक्सलवाद शब्द का जिक्र करते हैं तो कहीं न कहीं, भले ही बहुत छोटे से रूप में हम देश के भीतर एक विचार का समर्थन करते दिखते हैं। नक्सलवाद नाम देकर हम ये मान लेते हैं कि वे अपने एक विचार के लिए लड़ रहे हैं, जबकि आतंकवाद पूरी तरह देश के खिलाफ़ की खड़ा दिखता है, आतंकवाद लोगों के दिलों मे ंंज्यादा गुस्सा पैदा करता है। हर ज़ेहन में जब ये बात बैठ जाए कि नक्सलवाद नाम की कोई चीज नहीं रह गई है, अब जो है वह सिर्फ आतंकवाद है तो मानवाधिकारवादियों के हौसले भी टूटेंगे। तब दिल्ली की यूनिवर्सिटी से निकलने वाली माओवाद की चीखती चालीसा को सुनने वाला कोई नहीं होगा। 

                     बस्तर के हालात से दिल्ली वाले तब वाकिफ़ होते हैं, जब कोई एनकाउंटर में मारा जाता है। मानवाधिकारवादी चीख-चीख कर कहते हैं कि फोर्स हत्यारी है। क्या फोर्स को मानव अधिकार नहीं है? दौड़े-दौड़े बस्तर जाने वाले ऐसे मानवाधिकारवादियों को भी आतंकवादी की श्रेणी में लाने की जरूरत है, जो इनका सहयोगी साबित हो जाता है।

                     पिछली बार जब एकीकृत कमान की बात हुई थी तो लगा था कि कुछ हो रहा है। छत्तीसगढ़, ओडि़शा, झारखंड, आंध्र, पं. बंगाल सब ही तो जूझ रहे हैं, तो कहां है एकीकृत कमान और क्या किया उसने। बस्तर में आतंकवादियों को डर इसी बात का है कि वहां सड़कें बन जाएंगी, संचार मजबूत हो जाएगा तो उनका बिजनेस ख़त्म समझो। इस बार भी हमला सड़क बनाने के लिए सहयोग करने वाले जवानों पर ही है। तो एकीकृत कमान को जागृत करने की जरूरत भी लगती है। 

                         कुछ लोग तो आज भी इसे कानून-व्यवस्था की सामान्य समस्या मान रहे हैं, जबकि इसमें अंतरराष्ट्रीय षडयंत्र की बू से इनकार नहीं किया जा सकता। अंतरराष्ट्रीय षड्यंत्र में दूसरे देशों के लिए लड़ने वाले और हमारे जवानों को मारने वाले लोग नक्सलवादी नहीं, आतंकवादी हैं। हमारी मीडिया, हमारी सरकार, हमारे चिंतन, हमारे मंथन में मानसपटल से नक्सलवाद शब्द का लोप होना चाहिए। ऐसी घटनाओं को आतंकवादी घटनाएं कहा जाए, लिखा जाए, पढ़ा जाए, सुना जाए, समझा जाए और देश के खिलाफ उसे युद्ध मानकर वही सलूक किया जाएगा जो आतंकवादियों के साथ होना चाहिए, तो इस नक्सलवाद विचार का अंत कर सकते हैं और जब विचार का अंत हो, तो धरातल से उसे खत्म करने में ज्यादा वक्त नहीं लगेगा।

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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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