बिलासपुर।छत्तीसगढ़ के राइस मिल मालिकों ने सरकार की कस्टम मिलिंग नीति के खिलाफ मिलों में तालाबंदी कर दी है। जिससे 15 नवंबर को धान खरीदी शुरू होने के बाद अब मिलिंग नहीं हो पाएगी। पिछले कई सालों से लगातार कस्टम मिलिंग की गलत- अव्यावहारिक नीतियों को बदलने की मांग कर रहे राइस मिलर्स अब मिलों को चलाए रखने में अपने को असमर्थ पा रहे हैं। अफसरशाही से तंग आकर आखिर उन्होने तालाबंदी का फैसला किया है। जिससे चावल की मिलिंग से लेकर मजदूरों के रोजगार और भूसे की कमी तक कई तरह की समस्याएं पैदा हो सकती हैं।
छत्तीसगढ़ में ज्यादातर कृषि पैदावार धान की है। ऐसे में स्वाभाविक रूप से कृषि आधारित सबसे बड़ा उद्योग चावल उद्योग ही है। लेकिन अफसरशाही की व्यावहारिक नीतियों की वजह से प्रदेश में चावल उद्योग पर तलवार लटक रही है। राइस मिलर्स राज्य सरकार की कस्टम मिलिंग नीति के कारण काम नहीं कर पा रहे हैं और 10 नवंबर से तालाबंदी कर काम बंद करने का फैसला किया है। बढ़ती हुई मंहगाई के बीच कस्टम मिलिंग की दर घटाए जाने , झरती के आकलन में खामी, बारदाने की कीमत बढाए जाने और अव्यावहारिक परिवहन नीति के चलते मिलर्स के सामने बड़ा संकट खड़ा हो गया है।अफसरों के अड़ियल रवैये के कारण मिलर्स की समस्याओँ का समाधान नहीं हो पा रहा है।
कस्टममिलिंग रेट घटाया
छत्तीसगढ़ राज्य गठन के पूर्व क्षेत्र में लगभग 500 चांवल उद्योग स्थापित थे। गठन के बाद से ही चांवल उद्योग की स्थापना में वृद्धि हुई है और आज यह संख्या लगभग 1600 से भी अधिक हो गई है। यह उद्योग पूर्णतः कृषि आधारित और रोजगारमूलक उद्योग है। एक अनुमान के मुताबिक एक राइस मिल में करीब सौ लोगों को प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार प्राप्त होता है। लेकिन शासन की नीतियों के कारण इस उद्योग से जुड़े लोगों के सामने रोजगार का संकट खड़ा हो गया है। वर्ष 2015-16 के लिए बनाई गई कस्टम मिलिंग की नीति से मिलर्स अब काम करने की स्थिति में नहीं हैं।जिसमें सबसे अहम् तो यह है कि आज के दौर में मजदूरी, बिजली से लेकर हर मामले में लगातार मंहगाई बढ़ रही है । ऐसे में मिलिंग की दर में बढ़ोतरी की उम्मीद थी । लेकिन दर बढ़ाने की बजाय रेट घटा दिए गए हैं। 2001 में कस्टम मिलिंग चालू हुई है।
शुरूआत में केन्द्र सरकार ने दस रुपए मिलिंग दर तय की और छत्तीसगढ़ सरकार ने तीस रुपए बोनस देने की शुरूआत की। इस तरह मिलर्स को प्रति क्विंटल चालीस रुपए मिलते रहे। यह सिलसिला पिछले साल तक चला। हालांकि पिछले सोलह साल में बिजली , मजदूरी और मिल-मशीनरी के पार्टस् के खर्च में करीब साठ से सौ फीसदी की बढ़ोतरी को देखते हुए मिलर्स मिलिंग दर भी बढ़ाए जाने की मांग लगातार करते रहे हैं। लेकिन बढ़ोतरी की बजाय इस साल मिलिंग दर घटा दी गई है। प्रदेश सरकार के फैसले के मुताबिक इस साल शुरूआत के दो महीने मिलिंग पर बोनस पन्द्रह रुपए ही दिया जाएगा। यानी मिलर्स को चालीस की जगह पचीस रुपए प्रति क्विंटल मिलेगा। ऐसे में मिलर्स के सामने इसके अलावा और कोई चारा नहीं है कि वे अपना काम बंद कर दे। एक तरफ सरकार किसानों को सुविधाए देने का दावा कर रही है। वहीं दूसरी तरफ चावल उद्योग की गाड़ी के दूसरे पहिए- राइस मिल को अफसरशाही – लालफीताशाही ने बंद होने की कगार पर पहुंचा दिया है।
बारदाना दर में बढ़ोतरी
सरकार की बारदाना नीति में भी ऐसी खामिया हैं कि राइस मिलर्स काम नहीं कर पा रहे हैं। धान खरीदी की शुरूआत में बारदाना को लेकर भी असुविधा नहीं थी। लेकिन 20014 के बाद से बारदाना के नाम से प्रति क्विंटल 23 रपए 75 पैसे की कटौती शुरू कर दी गई । जिसे इस बार बढ़ाकर 32 रुपए 57 पैसे कर दिया गया है। मिलर्स बारदाना को लेकर पहले भी घाटा उठा रहे थे, अब रेट बढ़ने से यह घाटा अपूरणीय स्थिति में पहुंच रहा है। मिलर्स का कहना है कि यदि सरकार नए बारदाने में चावल लेने की व्यवस्था बना ले तो मिलर्स को काफी राहत मिल सकती है।
झरती का सही आकलन नहीं
मिलिंग की प्रक्रिया में धान से चावल निकाला जाता है। धान से चावल निकलने का अनुपात देश के अलग-अलग हिस्से में अलग-अलग है। हरियाणा- पंजाब प्रदेश में प्रति क्विंटल धान में 67 किलो चावल निकलता है। जिसे पैमाना मान लिया गया है। जबकि छत्तीसगढ़ में ऐसी स्थिति नहीं है। यहां पर प्रति क्विंटल 50 से 55 किलो से अधिक चावल नहीं निकल पाता। छत्तीसगढ़ के मिलर्स पिछले कई साल से इस मामले में घाटा सहते आ रहे हैं और चांवल अपने खर्चे से पूरा करते आ रहे हैं। सरकार को भी यह पाता है कि मिलर्स को अपनी ओर से चावल पूरा करना पड़ता है । फिर भी छत्तीसगढ़ के सभी जिलों में अलग-अलग टेस्ट मिलिंग की मांग पूरी नहीं हो रही है। एक जानकारी के मुताबिक प्रदेश सरकार की वैट टैक्स नीति के चलते मिलर्स मजबूरी में प्रति क्विंटल 67 किलो झरती दिखाते हैं। लेकिन कुल मिलाकर इसकी वजह से उन्हे बड़ा नुकसान उठाना पड़ रहा है।
अव्यावहारिक परिवहन दर
धान – चावल की ढुलाई के लिए जो परिवहन दर तय की गई है, वह पूरी तरह से अव्यावहारिक है।सरकार ने जीपीएस सिस्टम लागू किया है। जिसमें कई बार एरियल डिस्टेंस के आधार पर डुलाई का निरर्धारण किया जाता है। जबकि व्यावहारिक धरातल पर अधिक दूरी तय करनी पड़ती है। मिलर्स इस मामले में भी व्यावहारिक रूप से परिवहन दर तय करने की मांग कर रहे हैं।
कृषि आधारित उद्योग में लालफीताशाही
राइस मिलर्स का कहना है कि यह उद्योग कृषि आधारित है। इसलिए किसानों की तरह उद्योगों को भी सुविधाएँ दी जानी चाहिए। बिजली की दर, मंडी टैक्स में राहत मिले तो इसका लाभ किसानों – मजदूरों को भी मिलेगा। लेकिन लालफीताशाही के चलते अफसर इस मामले में सरकार को भी गुमराह किए हुए हैं। और यह धारणा बना दी गई है कि राइस मिलर्स काफी कमाई कर रहे हैं। जबकि ऐसी स्थिति नहीं हैं। एक जानकारी के मुताबिक प्रदेश में बीस फीसदी मिलर्स की स्थिति कुछ ठीक-ठाक हो सकती है। पचास फीसदी मिलें किसी तरह अपना खर्च निकाल रही हैं। जबकि बाकी मिलें बद से बदतर हालत में घिसट रहीं हैं।
आऱ- पार की लड़ाई में एसोसिएशन
बार- बार राइस मिलर्स की समस्याओँ की ओर सरकार का ध्यान खींचने के बाद भी कोई राहत नहीं मिलने पर संगठन ने आर – पार की लड़ाई का फैसला कर लिया है। जिसके तहत चरणबद्ध आंदोलन की विधिवत् सूचना प्रशासन को दे दी गई है। प्रदेश के सभी जिलों के राइस मिलर्स ने अपनी ओर से जिला कलेक्टर को लिखित में सूचना दी है कि वे इन परिस्थितियों में मिलिंग का काम नहीं कर सकेंगे। हालांकि कुछ जगह मिलर्स को शासन की ओर से ब्लैक लिस्टेड करने या अपराधिक मामला दर्ज करने की धमकी दिए जाने की भी खबर है। लेकिन मिलर्स ने दस नवंबर से अपने राइस मिल पर तालाबंदी का फैसला किया है। यदि शासन – प्रशासन की ओर से इस मामले में गंभीरता से विचार नहीं किया गया तो इस बार चावल उद्योग पूरी तरह से ठप्प हो सकता है।
कई उद्योगों पर पड़ेगा असर
प्रदेश सरकार हर साल की तरह इस बार भी 15 नवंबर से धान की खरीदी शुरू करही है। आम तौर पर इसके साथ ही मिलिंग का काम भी शुरू हो जाता है। लेकिन यदि राइस मिलर्स की हड़ताल चलती रही तो मिलिंग का काम पूरी तरह से ठप्प पड़ जाएगा । ऐसे में मिल में प्रत्यक्ष- अप्रत्यक्ष रूप से रोजगार पाने वाले तो बेरोजगार हो ही जाएंगे साथ ही इसका विपरीत असर कई उद्योगों रक भी पड़ सकता है। जानकारी के मुताबिक राइस मिल के बाइ-प्रोडक्ट के रूप में मिलने वाली भूसी से कई उद्योग चलते हैं। उन्हे भी दिक्कतों का सामना करना पड़ेगा।