VIDEO-ख़ुदकुशी से पहले साढ़े तीन लाइन में पूरे सिस्टम का “CR” लिख़ गया एक किसान

Shri Mi
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(रुद्र अवस्थी)छोटे से  एक मकान के सामने से उठ रही महिलाओं की यह दर्द भरी …….दिल को दहला देने वाली चीख़ बता रही है कि इस मकान  में रहने वाला कोई शख़्स उन्हे रोता – बिलख़ता हमेशा के लिए छोड़ गया  है। यह मकान तखतपुर शहर से तहसील दफ्तर होते हुए महज साढ़े पांच – छः किलोमीटर दूर बसे छोटी सी आबादी वाले छोटे से गांव राजाकापा की मुख्य सड़क के किनारे बना है । जहां पिछले शुक्रवार की सुबह किसान छोटू केवर्त ने  फाँसी लगाकर खुदकुशी कर ली। जिसमें सिर्फ साढ़े तीन लाइनों में लिखा हुआ है कि ……पटवारी पर्ची नहीं दिया…… इसी नाम से मैंने आत्महत्या किया है। 5 हज़ार दिया हूं ……रज्जू अपनी अम्मा को बहुत प्यार और दुलार करना…….। कागज के इस टुकड़े में लिखे शब्दों को अब तक  किसान छोटूराम के सुसाइड नोट के रूप में देखा जा रहा है। जिसमें सिर्फ साढ़े तीन लाइनों में जो शब्द लिखे गए हैं उन्हें मौजूदा प्रशासन के सिस्टम का सी.आर. भी माना जा सकता है। अब यह सी. आर. क्या है…. ? प्रशासनिक हलकों के लोग जानते हैं कि किसी भी सरकारी कर्मचारी -अधिकारी की गोपनीय चरित्रावली बनाई जाती है। जिसे अंग्रेजी में कॉन्फिडेंशियल रिपोर्ट कहा जाता है।

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नाम से ही जाहिर है कि इस रिपोर्ट में संबंधित कर्मचारी -अधिकारी के चरित्र की झलक मिल जाती है। सुसाइड नोट के रूप में सामने आई यह पर्ची भी पूरे सिस्टम के चरित्र को उजागर करती हुई नजर आती है। जो सरकार किसानों के हितैषी होने का दावा करती है। उसके राज में कोई किसान …..सिस्टम की मनमानी के चलते खुदकुशी के लिए मजबूर हो ज़ाए तो इस तंत्र से हार मानते हुए दुनिया छोड़कर चले गए एक किसान के हाथों लिखे यह शब्द न केवल पूरे सिस्टम की पोल खोल कर रख देते हैं…. बल्कि दावेदारों के चेहरे पर कई सवाल भी छोड़ जाते हैं। रोते – बिलखते परिवार की चीख़ों के बीच इन सवालों को अगर कोई सुनने की कोशिश करे तो उसका भी दिल दहल उठेगा….।

अब तक किसी किसान की आत्महत्या पर यह बात भी शामिल होती थी कि कर्ज से दबकर उसने यह कदम उठाया है। लेकिन जैसा कि इस दर्दनाक घटना के बाद प्रशासन ने भी साफ कर दिया है कि खुदकुशी करने वाले किसान पर कोई भी कर्ज नहीं था। साथ ही इस घटना के लिए पहली नजर में पटवारी को जिम्मेदार मानते हुए उसके खिलाफ आत्महत्या के लिए उकसाने का जुर्म दर्ज कर उसे गिरफ्तार कर लिया गया। फिर तो मतलब साफ है कि सिस्टम की मनमानी और बेलगाम घूसखोरी ने ही मौत को गले लगाने पर किसान को मजबूर किया। फिर तो यह मामला अपने आप में और भी संजीदा हो गया है। यदि सिस्टम ही जानलेवा हो जाए और पहली नजर में ऐसा दिखाई दे कि किसी किसान को कर्ज ने नहीं मारा है ……अलबत्ता सिस्टम ने मारा है । तब तो फिर यह किसी किसान के लिए कर्ज में डूबने से भी ज्यादा घातक है। इस घटना के बाद विपक्ष के तमाम बड़े नेता अपने बयानों में यह बात भी उठा रहे हैं कि मौजूदा सिस्टम में बिना पैसे के कोई काम नहीं होता। कथित सुसाइड नोट ने तो उससे आगे जाकर हकीकत बयान कर दिया है कि पैसा देकर भी काम नहीं हो पा रहा है। विपक्ष के एक बड़े नेता ने हाल के दिनों में सोशल मीडिया पर अपने लाइव प्रोग्राम के जरिए भी यह बात कही थी कि एक तरफ भूमाफिया सक्रिय हैं । वहीं दूसरी तरफ सिस्टम में शामिल लोग भी खुलेआम घूसखोरी कर रहे हैं। उनकी इस बात को हफ्ते भर भी नहीं बीते थे कि तखतपुर इलाके की इस घटना ने उनके आरोपों पर कंफर्मेशन की मुहर लगा दी है। कोई कह सकता है की विपक्ष का काम आरोप लगाना है । लेकिन इस घटना के बाद आम लोगों की दबी जुबान भी अब खुलने लगी है।किसी चौराहे पर ज़ाकर कोई भी इसे सुनना चाहे तो सुन सकता है।

किसी तहसील दफ्तर या दूसरे किसी कार्यालय के आसपास परेशान हाल चक्कर लगा रहे लोगों से बात कर लीजिए ….। पता चल जाएगा कि किस तरह रेट लिस्ट के हिसाब से काम हो रहा है। इस तरह के आरोपों के साथ सरकार को घेरने वाले लोग यह भी कहते हैं कि वसूली का टारगेट दिए जाने की वजह से यह जंगलराज चल रहा है। हालांकि इस तरह के आरोपों की जांच पड़ताल कर सच सामने लाने का न कोई रिवाज है …..और ना इस तरह का कोई सिस्टम है। लेकिन छोटूराम की खुदकुशी जैसे मामले यह सोचने पर मजबूर करते हैं कि क्या सच को देखने और अपनी आँखों से पढ़ने के लिए एक किसान के हाथ से लिखी यह तहरीर काफी नहीं मानी जा सकती। व्यवस्था के जवाबदेह लोग अब इस बात से पल्ला नहीं झाड़ सकते। बिलासपुर में ही ऐसे कितने वीडियो फुटेज मिल जाएंगे ……जब  पत्रकारों ने सिस्टम की इस सड़ांध को जिम्मेदार लोगों के सामने रखा और उनसे सवाल भी पूछे हैं। जिम्मेदार लोगों ने भले ही टालमटोल कर इन सवालों को चलता कर दिया हो। लेकिन वह यह नहीं कह सकते कि उन्हें सिस्टम की इस हालत का पता नहीं है। बहुत अधिक दिन नहीं तो पिछले कुछ महीनों के अखबार उठाकर कोई भी देख सकता है कि करीब-करीब हर रोज अखबार के पन्नों पर जमीन से जुड़ी किसी न किसी गड़बड़ी या राजस्व विभाग की मनमानी की खबर जरूर छपी हुई नजर आएगी। इसके बावजूद किसी ने भी सिस्टम कि इस बदहाली को सुधारने की जहमत नहीं उठाई। सब कुछ देख कर भी आंख मूंद लेने के बाद अब वे इस सवाल से भी नहीं बच सकेंगे कि क्या नीचे से ऊपर तक सभी मिले हुए हैं……?  

यदि जमीन की घपलेबाजी की खबर रोज-रोज छाप कर भी जिम्मेदार लोगों को सच नहीं समझाया जा सका है तो इसका एक मतलब यह भी निकलता है कि क्या जिनको समझाने की कोशिश की जा रही है…. वह भी इस खेल में एक खिलाड़ी की तरह ही शामिल है। और कहीं बैठकर खुद कप्तानी भी कर रहे हैं।छोटू राम फांसी के फंदे पर लटककर और अपना परिवार तबाह कर यह सवाल भी अपनी अंतिम सांसों के साथ छोड़ गया है कि क्या पटवारी ही सब कुछ है….. ?  किसी भी दस्तावेज पर ऊपर के अफसरों के भी दस्तखत जरूरी हैं। सिस्टम में पटवारी ही पहला और अंतिम व्यक्ति नहीं है। ऐसे में अगर कोई पूरे सिस्टम की सच्चाई तक पहुंचना चाहे तो उसे  और भी सीढ़ियां चढ़नी पड़ेगी। सियासत और आरोप-प्रत्यारोप ,घेराबंदी जैसे शब्दों से दूर हटकर छोटू राम के घर के सामने गमगीन माहौल में इन सवालों  को बूझने की कोशिश करें तो इतनी बातें निकल कर आती है कि तफ्सील से उनको लिखने और बोलने में पता नहीं कितना वक़्त निकल ज़ाएगा। हमारे साथ भी शब्दों और समय की सीमाएं हैं। तार को चिट्ठी समझ कर पढ़ने की गुजारिश के साथ अगर यह सिस्टम इन सवालों का जवाब ढूंढ सके तो एक किसान की असमय मौत का यह मामला और भी लोगों को इस रास्ते में जाने से बचा सकता है। लेकिन प़िलहाल यह कहना मुश्किल है कि  इन सवालों के जवाब मिलेंगे या नही……? मिलेंगे तो कब तक मिलेंगे ……….। या जिस तरह एक किसान ने ऐसा रास्ता चुन लिया , जहां से वह कभी वापस नहीं लौट सकता। ठीक उसी तरह इन सवालों के जवाब भी हम तक कभी वापस नहीं लौट पाएंगे।

कोरोना से बचने का मंत्र…

यह बात सभी जान रहे हैं कि करीब साल भर से भी अधिक समय से कोरोना एक तरह से अनिश्चितताओं का पर्याय बन कर सभी को डरा रहा है और दूसरी लहर के नाम से एक बार फिर हमें बीते बरस के इन्हीं दिनों की याद दिला रहा है। अपना छत्तीसगढ़ भी इससे अछूता नहीं है । पिछले कुछ समय से प्रदेश में भी कोरोना संक्रमित लोगों की गिनती लगातार बढ़ती जा रही है। हाल के दिनों में आंकड़ा रिकॉर्ड की गिनती को भी पार कर गया है। छत्तीसगढ़ में ऐसे कई जिले हैं जहां कोरोना शून्य पर था। लेकिन अब अलग-अलग जिलों में इकाई – दहाई से लेकर सैकड़ा भी पार हो गया है। व्यवस्था के जिम्मेदार लोग भी मान रहे हैं कि हालात चिंताजनक है और इस पर काबू पाने के लिए सभी की हिस्सेदारी जरूरी है। हालांकि पिछले साल के मुकाबले राहत की एक बात यह भी है कि इस बार टीकाकरण की शुरुआत हो चुकी है ।  45 साल से अधिक उम्र के लोगों को भी टीका लगाए जाने के लिए बड़ा अभियान शुरू किया गया है। इसके लिए भी जन जागरण चलाया जा रहा है। फिर भी एक्सपर्ट मानते हैं कि कोरोना के संक्रमण को रोकने के लिए सावधानियों और पाबंदियों का पालन करना जरूरी है। सभी से मास्क लगाने ,आपस में दूरी बरकरार रखने और बार -बार हाथ धोने की अपील की जा रही है । फिर भी अखबारों में कोरोना विस्फोट, क्वारंटाइन ,आइसोलेशन ,लॉकडाउन ,नाइट कर्फ्यू जैसे शब्दों का प्रचलन फिर से बढ़ गया है। कोरोना संक्रमित लोगों के आंकड़े ,अस्पतालों के हालात, बाजार का माहौल जानने की दिलचस्पी बढ़ गई है। इस दौर में कहां कितनी पाबंदी लगी और लॉकडाउन को लेकर सरकार और प्रशासन का रुख क्या है….. ?  इस बारे में भी लोग जानने को उत्सुक हैं । इसी से जुड़ी एक और बात गौर करने लायक है कि आपस की बातचीत में तमाम लोग इस बात को मान लेने में हिचक नहीं रखते कि बीच के समय में कोरोना के मामलों में आई कमी को देखते हुए लोगों ने ढ़िलाई और लापरवाही बरती। जिससे हालात फिर बेकाबू होते जा रहे हैं। शायद पिछले बरस का तजुर्बा भी लोगों को ऐसा सोचने पर मजबूर कर रहा है। लेकिन यदि ऐसा है तो ढ़िलाई और लापरवाही… कौन…. ? कब…? क्यों… ? कैसे … ? .बरत रहा है ।  इस बारे में भी सोचा जाना चाहिए कि इस कसौट़ी पर हम ख़ुद भी कहां पर हैं। यह वक्त का तकाजा है कि सभी अपनी जिम्मेदारी समझे। सिस्टम की ओर से सख़्ती का इंतजार किए बिना लोग अगर खुद इन पाबंदियों का पालन करने लगे तो सही में लॉकडाउन जैसे फैसले की जरूरत ही नहीं पड़ेगी। एक्सपोर्ट भी बार-बार कह रहे हैं कि आने वाले लंबे समय तक पाबंदियों के साथ जीने की आदत डालनी होगी। उम्मीद यही की जा सकती है कि लोग इस मंत्र को समझ कर कोरोना से मुकाबला करने में अपनी हिस्सेदारी निभाएंगे।।

“ असम ले कब लहुटबे भूपेश कका……? ”

अब थोड़ी सी बात सियासत पर भी कर लें। वैसे तो इस समय कोरोना की चर्चा ही सबसे अधिक हो रही है। हाल के दिनों में हम सभी ने कोरोना के साये में रंगों का पर्व होली भी मनाया । कोरोना की वजह से त्योहार कुछ फीका- फीका सा रहा। लेकिन इस दरमियान डिजिटल प्लेटफार्म पर मजेदार वीडियो और मीम के जरिए लोग एक दूसरे को हंसने –हंसाने – गुदगुदाने का बहाना भी ढूंढ़ते रहे । इस दौरान सीएम भूपेश बघेल को लेकर एक वीडियो वायरल भी होता रहा और लोगों के बीच चर्चित भी रहा। जिसमें भूपेश  “कका” की तारीफ में एक गाना भी बजता रहा। छत्तीसगढ़ में चाचा के लिए कका का संबोधन होता है। कका – भतीज का रिश्ता भी बड़ा दिलचस्प और मज़ाकिया भी होता है । इस वीडियो के जरिए सीएम भूपेश बघेल को लोगों के बीच कका के रूप में वैसी ही पहचान मिल रही है ,जैसे कि पड़ोसी सूबे मध्यप्रदेश में मुख्यमंत्री शिवराज सिंह चौहान “मामा” के नाम से फेमस हुए। इसी तरह मजाकिया अंदाज में छत्तीसगढ़ के छात्र -नौजवान अपने भूपेश कका से कहीं परीक्षा में पास कराने की गुजारिश करते दिखाई देते हैं तो कहीं यह भरोसा भी जताते हैं कि ऐसे कका के रहते उन्हें कोई चिंता नहीं है। ऐसे भूपेश कका इन दिनों असम के चुनाव प्रचार में मशगूल हैं। उनकी पार्टी कांग्रेस ने उन्हें असम के चुनाव के लिए ऑब्जर्वर बना कर भेजा था। जैसे राजस्थान के मुख्यमंत्री अशोक गहलोत केरल के ऑब्जर्वर बनाए गए थे । लेकिन भूपेश बघेल ने ऑब्जर्वर से भी आगे बढ़कर असम चुनाव में अपनी लम्बी लक़ीर तान दी है। पिछले कुछ समय से उनकी टीम के करीब 500 लोग असम में कांग्रेस के प्रचार की कमान संभाले हुए हैं। खबर यह भी आई थी कि छत्तीसगढ़िया कांग्रेसियों की टीम नें असम में 126 में से 115 सीटों पर बूथ लेवल तक जाकर अपने कार्यकर्ताओं को ट्रेनिंग दी। भूपेश बघेल खुद 40 से अधिक आम सभाओं में भी हिस्सा ले चुके हैं। देशभर से असम का चुनाव कवरेज करने पहुंचे स्वतंत्र पत्रकार और राजनीतिक प्रेक्षक भी मानते हैं कि कांग्रेस के शीर्षस्थ नेताओं में राहुल और प्रियंका जैसे बड़े नामों के बाद कांग्रेस में भूपेश बघेल का चेहरा असम में  नजर आ रहा है। एक दिलचस्प वाक्या यह भी है कि असम के एक कस्बे में प्रियंका गांधी की आम सभा तय हुई थी। सारी तैयारियां हो चुकी थी। लेकिन क्वारंटाइन होने की वजह से जब प्रियंका गांधी सभा स्थल पर नहीं पहुंच सकी , तो भूपेश बघेल ने मोर्चा संभाला। अपने चुनावी भाषण में उन्होंने लोगों को प्रियंका गांधी की गैर मौजूदगी का अहसास नहीं होने दिया और लोगों की खूब तालियां बटोरी। असम के चुनाव का कवरेज कर रहे लोग कांग्रेस की टीम में भूपेश बघेल का किरदार अहम् मान रहे हैं। हालांकि काफ़ी कुछ दारोमदार चुनाव के नतीजों पर भी है। जिसमें कांग्रेस को कामयाबी मिलती है तो भूपेश बघेल का भी कद बढ़ना लाज़िमी है। वे कांग्रेस की केंद्रीय राजनीति और हाईकमान के सबसे भरोसेमंद नेताओं में शामिल हो सकते हैं।उनकी मेहनत कामयाब रहती है तो भूपेश बघेल हिंदी पट्टी में कांग्रेस के बड़े नेता के बतौर उभर कर सामने आ सकते हैं। जाहिर सी बात है कि हिंदी बेल्ट में एक नया ओबीसी नेतृत्व उभरने से  इसका असर आने वाले दिनों की सियासत पर भी दिखाई दे तो हैरत की बात नहीं होगी । फ़िलहाल तो छत्तीसगढ़िया भतीजे यही सवाल कर रहे हैं कि “असम ले कब लहुटबे भूपेश कका……तोर बिन इहाँ सब सुन्ना लागथे…….।”

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By Shri Mi
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पत्रकारिता में 8 वर्षों से सक्रिय, इलेक्ट्रानिक से लेकर डिजिटल मीडिया तक का अनुभव, सीखने की लालसा के साथ राजनैतिक खबरों पर पैनी नजर
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